ऋतुगीतों में आषाढ़ : मेघ, मल्हार और मुरारी की प्रतीक्षा

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आषाढ़ मास और ऋतुगीतों की परंपरा



गड़हडीय सज दळ आभ वळगळ मंद प्रबळा मलपती, 
दीपतीय खड़खड़ हसी नवढा शाम घूंघट छुपती,
अबळा अकेलिय करत केलिय व्योम वेलीय लळवळी,
आषाढ़ घम घम धरा धम धम, व्ररळ चम चम विजळी.. जी.. व्ररळ चम चम विजळी.. 


सिंह और मेघों की टकराहट

प्रियंवदा ! आषाढ़ भी जैसे अपने भरयौवन में आया है। वनराज केसरी भी मेघाडंबर सुनकर शरमा जा रहा है। ऐसा कहते है, कि आषाढ़ में होती बिजलियों की गर्जना को सिंह एक चुनौती मानता है। वह भी दहाड़ें मारता है। बिजलियों के कड़कने से उसकी गर्जना दब जाती है, और वह मानभंग हुआ सिंह अपना सर पथ्थर पर पटकता है। ऐसी प्रफुल्लित ऋतु में भी कोई और भी पीड़ा में, कष्ट में आ पड़ता है। विरही.. विरही के लिए यह सबसे ज्यादा पीड़ादायक ऋतु है।  


विरही हृदय और आषाढ़ की पीड़ा

ऋतुगीतों में हमेशा आषाढ़ महीने से गीत और भावना दोनों ही बदल जाती रही है। इस पन्ने की शुरुआत में लिखा छंद मुझे मुंहजुबानी याद हो चूका है। कवि आपाभाई का लिखा यह छंद, जब भी आसमान में बिजली होती है, मैं स्वतः ही बड़बड़ाता हूँ। सिर्फ यह एक ही नहीं आषाढ़ के लगते और भी छंद तुरंत मन में आ प्रकटते है। जैसे की,


आषाढ़ घघूंबीय लुम्बीय अम्बर, वद्दळ बेवळ चोवळीया,
महोलार महेलिय, लाड़ गहेलिय, नीर छले न झले नळीयाँ,
अंद्र गाज अगाज करे धर ऊपर अंब नयां सर उभरिया,
अजमाल नथु तण कुंवर आलण सोय तणी रत संभरिया.. जी.. सोय तणी रत संभरिया.. 

[आषाढ़ छा चूका है, आसमान भरा भरा है बादलों से। बादलों के पड़ पर पड़ बंध रहे है। महल भी लाड में आए है, नीर को मकानों के मिटटी के छपरे झेल नहीं पाएंगे। धरती पर इंद्र गाजबीज कर रहा है। सरोवर नए नीर से छलक गए। ऐसी ऋतु में मुझे नथूभाई का कुंवर अजुभाई याद आ रहा है।]


इसी तरह एक और छंद है, बड़ा ही सुन्दर है। व्रज वियोगी राधिका आषाढ़ के आगमन पर हर्षित हो उठती है, और प्रिय कृष्ण को एक बार लौटने को विनती करती है। किसी कवि ने राधा के मुख से कृष्ण को सन्देश कहलवाया है कि,


आषाढ़ आता, मेघ माता, वाय वाता, वादळा,
धर नीर धारा, दुखी दारा, सामी मारा शामळा,
वाजंत्र वाजे, गहेरी गाजे, मेल माझा मान ने,
भरपूर जोबनमांय भामन, कहे राधा कान ने.. जी.. कहे राधा कान ने..

[आषाढ़ आते ही मेघ होश खो चूका है, वायु के साथ बादल बहते जा रहे है। धरती पर पानी की धाराएं बह रही है। दारा (बिरहिनि) दुःखी हो रही है। हे श्याम ! वाजिंत्र बज रहे है, गहरे नाद से गरज रहे है, मानुनि मान मर्यादाएं त्यज दे, यह भरयौवन में आयी राधा, कृष्ण से कहलवाती है।]

ऐसा ही एक और छंद गजगति में है,

रंग रास रत खट मास रमणा पीया प्यास बुझावणा,
आषाढ़ झरणा झरे अंबर, तपे तन तरणी तणा,
विरहिणी नैणां वहे वरणा, गियण विरही गावणा,
आखंत राधा, नेह बाधा, व्रज्ज माधा आवणा.. जी.. 
व्रज्ज माधा आवणा.. 

[हे प्रभुजी ! छह ऋतु के रंग से सुशोभित रास रमाकर हमारी प्यास मिटाओ। आकाश से झरने फुट रहे है। लेकिन हम तरुणियों के तन तो तब भी विरह की वेदना से तप रहे है। विरहिणी गोपियों के नेत्रों से भी वारि(अश्रु) बह रहे है , विरह के गीत गाये जा रहे हे। राधाजी कहलवाती है कि, ओ माधव ! स्नेह से बंधे स्वामी, वृन्दावन में आओ।]

अति प्रसिद्द यह छंद तो नवरात्री में अक्सर गायक जरूर ही गाता है, यह भी राधा वियोग का ही है, 

आषाढ़ उच्चारं मेघ मलारं बनी बहारं जलधारं,
दादुर डका
रं मयूर पुकारं तड़िता तारं विस्तारं,
ना लही सम्भा
रं प्यास अपारं नन्द कुमारं निरख्यारी,
कहे राधे प्यारी मैं बलिहारी गोकुल आवो गिरधारी.. जी.. गोकुल आवो गिरधारी.. 

[आषाढ़ में मेघ मल्हार गाया जा रहा है। जलवृष्टिओं की शोभा बनी है। मेंढक आवाजें कर रहे है, मयूर पुकारते है, बिजलियाँ विस्तार से चमक रही है। लेकिन आपने मेरी खबर न ली, नन्दकुँवर को निरखने की मुझे अत्यंत तृषा है। हे मुरारी गोकुल पधारो..]

बारहमासी और मरसियों में आषाढ़

ऋतुगीतों में मरसिये भी लिखे गए है। अपने मित्र के लिए, अपने पीयू के लिए, अपने आश्रयदाता के लिए भी। कवियों ने अपने प्रिय की मृत्यु के पश्चात बारह मास के बारह छंद लिखे है। उन मरसियों में से.. 

आषाढ़ आया, मन भाया, रंक राया राजीऐ,
कामनी नीला पेर्य कचवा, सघणरा दन साजीऐ,
मग वरण धरती तरण मेंमत कोयण उगावो करे,
जस लीयण तण रत माल जामं सतन वीसळ सांभरे.. जी.. 
सतन वीसळ सांभरे.. 

[आषाढ़ तो मनभावन आया है, रंक से लेकर राजा तमाम राजी है, खुश है। कामिनी इन वर्षा के दिनों में हरे कंचवे (पोशाक) पहनकर सजधज कर खड़ी है.. धरती का रंग मग सा हरा हो चूका है। हर तरफ तृण छा गए है। इस ऋतु में मुझे वह यश का अधिकारी, माला जाम का पुत्र वीसळ याद आता है।]

उमाभाई कहानजी मेहडू नामक कवि ने मातर ठाकुर हिम्मतसिंहजी के विरह में ग्रीष्म को बिरदाते लिखा है,

जेठ आषाढ़ झळूम्बिया, भुवण प्रळम्बे भाण ;
ग्रीखम सुरता गेहरी, चिन्त धर्ये चहुआण . .

चहुआण मिन्तं, धर्ये चिंतं, प्राग नीत प्रग्गळे,
बागा बणीतं, होज हीतं, नीर सीतं त्रम्पळे,
पट झीणु प्रीतं, व्रे वजीतं, सरस रीतं, शामणी,
रढराण हिम्मत वळ्ये अणु रत धरण सर मातर धणी.. जी.. धरण सर मातर धणी.. 

[जेठ और आषाढ़ तपे है, पृथ्वी पर सूर्य देर तक रहता है, हे चौहान ! ग्रीष्म की ऐसी गाढ़ प्रीति को अपने चित्त में धारण करना। हे चौहान मित्र ! तुम चित्त में धरना, पुष्पों पर नित्य पराग आता है, बाग़-बगीचे ठाठ में आए है, जलाशयों में नीर छलक रहा है, प्रीति का जन्म हुआ है, श्यामाओं ने विरह त्याग दिए है, इस कारण हिम्मतसिंह, ऐसी ऋतु में तू धरा पर वापिस आ, हे मातर के धणी !]

कवि विभा मेहडू ने पाळियाद के अपने काठी दरबार के संस्मरण में बारहमासी लिखी, वहां आषाढ़ का वर्णन कुछ इस तरह है,

अत घाम खमियो, बीज आषढ़, अंद्र धण चड आविये,
अंब वेहड़ो हाल दनिया गणी मलहर गाविये,
दळ कळे चात्रक मोर दादर कोयल सरवा सूर करे,
जग तेण उन्नड रते जीवो सकज सांगण संभरे.. जी.. सकज सांगण संभरे..

[अत्यंत उमस सहन करने के बाद आषाढ़ की द्वितीया पर इंद्र अपनी फ़ौज के साथ चढ़ाई कर चूका है। आम की फसल ख़त्म हो चुकी है, दुनिया मल्हार राग गाती है, मोर, चातक, मेंढक किल्लोल कर रहे है, ऐसी ऋतु में मुझे इस जगत में उन्नड, जीवा, और सांगण - तीन सुकृत पुरुष याद आते है।]

उजली और मेह जेठवा की प्रेमगाथा

आषाढ़ कोराडो उतर्यो, मैयण पतल्यो मे,
दल ने टाढक दे, जिव नांभे रे जेठवा..!

[आषाढ़ भी जेठ की भाँती बिन बरसा ही बीत गया। मे (बरसात / और यहाँ मे से तात्पर्य है, मेह जेठवा जो घुमली का राजा था।) तो ठग निकला, हे जेठवा थोड़ा ही बरस के मेरे दिल को ठंडक दे। तभी मेरा जिव नाभि में टिक पाएगा। मेह जेठवा घुमली का राजा था, और उजली नामक चारण ज्ञाति की लड़की मेह से प्रेम कर बैठी। लेकिन मेह को जब पता चला की वह लड़की चारण है, जो राजपूतो के लिए देव-तुल्य होते है, तो उसने दूरी बना ली। चारण स्त्री राजपूत के लिए या तो माँ है, या बहन। लेकिन उजली मेह से प्रेम में बार बार ठोकर खाती रही।]

आषाढ़ : शुष्कता का संहारक, स्मृतियों का संचितक

प्रियंवदा ! इस प्रकार प्रत्येक महीने के अलग-अलग छंद है। लेकिन आषाढ़ मुझे अति प्रिय है। इनमे से कुछ तो मुझे मुंह-जुबानी याद हो गए है। वैसे भी आषाढ़ प्रिय होने का एकमात्र कारण यही है, कि यह प्रचंड गर्मी को परास्त करता है। शुष्कता को सोंख लेता है। पृथ्वी को नए रंग में ढालता है। कुछ बदलाव करते है, वे सदा याद किये जाते है, गाए जाते है।

पोस्ट साभार : ऋतुगीतो - झवेरचंद मेघाणी
|| अस्तु ||

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प्रिय पाठक !

"क्या तुम्हारे मन में भी कभी आषाढ़ की कोई बिजलियाँ गूंजती हैं? क्या कभी मेघों की ओट में कोई स्मृति हहराती है?
तो लिखो, बाँटो, और चलो—हम इस रिमझिम में साथ भीगते हैं...
पोस्ट पसंद आए तो Like करो, Comment में अपनी विरही बूँदें छोड़ो, और Share करो उन सबके साथ, जिनकी आंखें आज भी सावन ढूँढ रही हैं..."


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