जिम्मेदारियों का बोझ, समय का मूल्य और मनुष्य की आपमतलबी || दिलायरी : 30/10/2025

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जिम्मेदारियों का अंतहीन सिलसिला

    प्रियम्वदा !

    कितना सही होता, अगर हम अपनी जिम्मेदारियों से बच सकते। ना कमाने की झंझट, ना पालनपोषण करने की झंझट, ना ही अपने आप का भी ख्याल रखने की झंझट.. दिनभर में कितनी ही जिम्मेदारियां कंधे पर लादकर हम चलते है। और सब की सब जिम्मेदारियों को सकुशल निभाना भी है.. ऐसी व्यवस्था क्यों और कब स्थापित हुई होगी? जिनका स्थापन होता है, उनका उत्थापन भी तो होता है.. फिर यह अभी तक क्यों चला आ रहा है? 


एक थका हुआ भारतीय व्यक्ति, डायरी और चाय के साथ ज़िम्मेदारियों पर विचार करता हुआ — “दिलायरी” ब्लॉग के भाव को दर्शाती छवि।

    कल कोई और रिवाज़ था, आज कोई और है, और कल कोई और होगा.. ऐसा कुछ भी नहीं है क्या, जो सदैव शाश्वत रहे? ईश्वर भी तो बदले है - समय समय पर, आस्था बदली है, पूजन पद्धति बदली है। फिर भी कभी एकेश्वरवाद संपूर्णतः स्थापित नही हो पाया। शायद हमारी आस्था ही पंगु है। मेरी तो है ही.. मुझे एक इकलौता कुछ भी पसंद नही आया है, कभी भी.. वस्तु हो या व्यक्तित्व..!


मंदिर में ओड़िया परंपरा का अनुभव

    आज सवेरे भगवन जगन्नाथ के दर्शन करने के लिए शीश झुकाया ही था, कि मैं भय से कांप उठा था एक बार। हर बार भूल जाता हूँ, कि यह एक ओड़िया परंपरा का मंदिर है, और यहां ओड़िया लोग अपनी पद्धति से पूजन करते है। दरअसल इस पूनम तक मंदिर में कोई पूजापाठ और कथा वांचन चलता है। स्त्रियां एक समूह में बैठती है, और मंदिर का पुजारी ओड़िया भाषा मे कोई कथा पढ़कर सुनाता है। कथा का आरंभ होने से पूर्व यह ओड़िया स्त्रियां अपने नाक के नीचे और होंठ से ऊपर खुली हथेली रखकर 'उलुलुलु.. उलुलुलु..' ऐसी आवाजें निकालती है। यह ऐसी आवाजें वे स्त्रियां आरती पूरी होने के बाद भी निकालती है। हमें (मुझे) ऐसी आवाजों का कोई अनुभव नही होता। एक बार को मैं डर ही गया था, कि क्या हो गया अचानक से..!


काम की कमी नहीं, समझ की कमी है

    ऑफिस पहुंचा, सोचा था आज कोई काम नहीं है। आराम होगा। और मैं अपनी अधूरी दिलायरियाँ पूरी कर लूंगा। लेकिन नहीं, काम की कोई कमी नही थी। मुझमे यह समझ की कमी थी, कि काम की कभी भी कमी होती नहीं। इन्हीं कामों में कब दोपहर हो गयी, कुछ भी पता नहीं चला। लंच कर लेने के बाद सोचा घर पर इलेक्ट्रीशियन लेकर चला जाऊं। लाइट का काम है, वह करवाना जरूरी है। इलेक्ट्रीशियन को फोन किया, उसने वायदा किया, कि वह शाम को जरूर से आएगा। तो मैने घर जाने का विचार स्थगित कर लिया। वैसे भी दो-तीन दिन से मौसम बिगड़ा हुआ है। कभी भी बारिश आ धमकती है। बिनरुत कि बारिश.. इससे हर कोई नाराज़ है। सौराष्ट्र के कईं गांवों में मूंगफलियां बर्बाद हो गयी। 


समय पर आना, समय पर मिलना

    हम मनुष्य कितने आपमतलबी है। वर्षा ऋतु में जितना मान-सम्मान इस वर्षा को दिया है, उससे ज्यादा इस दो दिन की बारिश ने गालियां खाई है। हर कोई कोस रहा है इस वर्षा को। इससे यही सीख मिलती है, कि किसी के घर जाओ, किसी के काम आओ, तो कम से कम समय पर काम आओ.. समय बीत जाने पर आई हुई कोई भी अवस्था फ़िज़ूल ही होती है। फिर वह वर्षा हो, या व्यक्ति..! है न? किसी का इंतज़ार कर रहे हो, और वह न आए, हमारे वहां से चले जाने के बाद आए, तो क्या लाभ? समय व्यर्थ ही हुआ.. भावनाएं भी? भूख आज लगी है, लेकिन भोजन कल मिले तो? पैसे आज चाहिए, लेकिन हफ्ते भर बाद मिले तो? रख तो तब भी लेते है वैसे।


रिश्ते, तुलना और गलत उम्मीदें

    प्रियम्वदा, कईं बार हमें कुछ मिलता है, उससे अधिक हमें उसका मूल्य चुकाना होता है। उदाहरण के लिए शादी.. एक बार करते है, लेकिन जीवनभर किश्तें चुकाने में निकल जाता है। शादी करके मिलता क्या है? एक पत्नी, या एक पति.. आजीवन उसके नखरे से लेकर शब्दों तक के भार ढोकर चलना पड़ता है। फिर तुलना करते है, उसकी जिंदगी कितनी अच्छी है, उसे अपने जैसी समस्याएं नही है। या वह नसीबवाला/वाली है.. उसे कितना अच्छा या सही मिला..! और हमारे भाग फुट गए..! जबकि हकीकत में तो जिससे तुलना हो रही होती है, उसके पास अपनी अलग समस्याएं होती है। उसे भी अधिक मूल्य ही चुकाना पड़ रहा होता है। कईं बार हम गलत आशाएं बांध लेते है। और आशा निराशा ले आती है।


मोबाइल युग से थोड़ी दूरी

    शाम को घर आया, इलेक्ट्रिशियन का अभी तक कोई अता पता ही नही है। आज का दिन खाली गया। अब कल स्पेशियल धक्का खाकर किसी इलेक्ट्रिशियन को पकड़ लाना पड़ेगा। भोजनादि से निवृत होकर फिलहाल दिलबाग में बैठा यह लिख रहा हूँ, और ग्रुप में मेसेज आ रहे है, वॉलीबॉल के। मन तो कर रहा है, लेकिन आलस भी हो रहा है। कल बहुत दिनों बाद खेला था, तो पैर अभी तक दर्द कर रहे है। लो, बातों बातों में चल ही पड़ा। दिल तो मेरा भी बच्चा ही है। पसीने से लथपथ हो चुका होता हूं, जब लौटता हूँ। प्रियम्वदा, इस मोबाइल युग मे जितनी देर मोबाइल से पीछा छुड़वा सकें, छुड़वा लेना चाहिए। यहीं किसी एक गांव से वीडियो आया था, गांव समस्त खेल प्रतियोगिता का आयोजन हुआ था। बच्चों से लेकर बड़े तक सबने रेस में भाग लिया था। ऐसे आयोजन होने ही चाहिए। 


एक खुला ताला और एक बंद दिन

    इसमें इतनी ज्यादा भागदौड़ होती है, कि समय पता नही चलता, और छोटे से ग्राउंड में बहुत ज्यादा भगदड़ हो जाती है। थकान भी उतनी ही होती है। फिलहाल पौने बारह बज रहे है। मैं वॉलीबॉल खेलकर लौट आया हूँ। आज हमारे गरबी चौक के रूम का ताला खुला पड़ा मिला। किसी ने ताला तोड़ा है, या चाबी से खोलकर वापिस लॉक नहीं किया था। हमने चेक किया तो भीतर का सारा सामान ज्यों का त्यों था। कुछ भी इधर उधर नहीं हुआ है। 


    लेकिन समस्या यह है, कि फिर रूम खुला कैसे पड़ा हुआ था? हमने काफी छानबीन की। पर समझ नही आया। आज वॉलीबॉल के प्लेयर कम थे। एक टीम में तीन तो दूसरी टीम में चार प्लेयर थे। मैं नेटी रहा था। और जब भी मैं यहां खड़ा रहता हूँ, जोश में होश खो देता हूँ। आज एक हाथ से इतने ज्यादा बॉल पास किए है, कि दाहिने हाथ का मसल दर्द कर रहा है। यह टाइपिंग करते हुए अंगूठा जब इधर उधर होता है, तो मसल की मूवमेंट महसूस हो रही है।


    चलो फिर, आज यहीं तक दिन था..

    शुभरात्रि।

    ३०/१०/२०२५

|| अस्तु ||


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