थकान, सुकून और चुनाव की कहानी || दिलायरी : 31/10/2025

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रात्रि की थकान और खेल का सुकून

    प्रियम्वदा !

    रात्रि के साढ़े ग्यारह बजे रहे है। साँसे धमन की माफिक चल रही है। मौसम तो शीतल है, लेकिन यह शरीर उष्णता पाकर, अब धीरे धीरे शिथिल हो रहा है। लगभग नौ बजे से लेकर अभी तक हम लोग वॉलीबॉल खेल रहे थे। शरीर बिल्कुल ही थक के चूर हो जाए, तब तक हम बैठते नहीं। प्रकृति में भयंकर सन्नाटा है। सिर्फ हम लोग खेलते हुए चिल्लाते थे, तब जाकर शांत प्रकृति जैसे जीवंत होती थी। यह शांति कईं बार खटकती है। जैसे समाधिस्थ को सदैव के लिए समाधिग्रस्त रखना चाहती है। जरा सा भी स्वर कहीं से किसी का नहीं आता। वर्षों से खड़े उस पीपल के भी पत्तों में कोई सरसराहट नही है। लगता है उसका भी जीव ब्रह्मरंध्र में पहुंच गया है।


एक सोच में डूबा भारतीय युवक, लकड़ी की मेज़ पर खुली डायरी और घड़ी के पास बैठा है। खिड़की से आती शाम की सुनहरी रोशनी में, वह समय और ज़िम्मेदारियों पर मनन कर रहा है।


इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर और तारीखों की अदालत

    सवेरे ऑफिस जाने के पूर्व एक इलेक्ट्रिशियन को पकड़ लाया था। और उसे कहाँ कहाँ क्या क्या काम करना है वह समझा आया। वह भी कल आने की बोलकर गया है। देखते है, कल आता है या नहीं? यह कारीगर लोग अपनी मर्जी के मालिक होते है। पता नही, ऐसा कौनसा काम यह लोग अपने हाथ मे लिए बैठे होते है, जो इनके पास दूसरे कामों के लिए पलभर का समय नही होता है। खासकर यह इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर, और मैकेनिक..! इन लोगों को जब भी पूछो, ये लोग कोर्ट की तरह तारीख ही देते है। तारीख आती है, तब इन्हें कुछ और याद आ जाता है। हमारे यहां एक प्लम्बर है, इनके चक्कर मे पानी की पंप-मोटर मैं खुद से फिट करनी सीख गया। जब भी पूछता, तो कहते आज शाम को आऊंगा..! 


ऑफिस की व्यस्तता और अधूरी दिलायरियाँ

    आफिस पहुंचा तो बहुत सारे काम मेरा ही इन्तेजार कर रहे थे। जैसे मेरे पहुंचने भर की ही देर थी। एक के बाद एक निपटाते हुए दोपहर हो गयी। लंच के बाद मार्किट जाने का विचार तो था मेरा, लेकिन वही बात, आलसी लोग विचार करने में माहिर होते है। पड़ा पसरा रहा और रील देखता रहा। दिलायरियाँ लिखने को बिल्कुल ही मन नहीं कर रहा है, ऊपर से सारी दिलायरियाँ बस ड्राफ्ट में इकट्ठी हो रही है, क्योंकि बीच मे दो दिन की लिख नही पाया हूँ। 23 और 24 तारीख की दिलायरी काफी लंबी है, क्योंकि मैं महाराष्ट्र में था। और दिनभर में इतना कुछ हुआ होता है, कि सब कुछ ही लिख देने को मन करता है। और बस इस चक्कर मे लंबाई बढ़ती जा रही है। शाम को भी काम ने घेरे रखा था। क्योंकि इकत्तीस तारीख है। अंग्रेजी महीना पूरा हो रहा है। बताओ, दिवाली भी चली गयी.. अब अगली दीवाली के लिए पूरा एक साल पड़ा है।


    प्रियम्वदा, एक तो मेरी कोहनी पर यह दिलायरी का गुड़ चिपका कर कोई चला गया है, अपने अलग पथ पर। बस यह एक साल पूरा हो जाए, फिर मैं यह दिलायरियाँ बंद करने की फिराक में हूँ..! सच कहूँ तो अब समय नही मिल रहा है। दिनभर में और भी बहुत कुछ याद रखना पड़ता है। मुझे तो यह समझ नहीं आता है, कि लोग कैसे याद रख लेते है, उन्हें अगला काम क्या करना है? मुझे तो एक काम के खत्म होने पर आनंद हो आता है, कि अब आगे आराम ही आराम है..! लेकिन वह सोच उतनी ही टिकती है, जितना गर्म तवे पर पानी की बूंद..! ना, वाकई अब मुश्किल है, यह दैनिक लिखने के चक्कर मे मेरा गंभीर घाटा होता जा रहा है। शब्दो मे रूखापन आ चुका है। मिठाश भी जा चुकी है, व्यंग्य भी, रूपक भी.. और पिछले कितने ही महीनों से मैं यह बात सतत नोटिस कर रहा हूँ। 


    मुझे एकांत चाहिए होता है, वह भी मुझे पूरा नहीं मिल रहा है। जब कुछ लिखने को मन करता है, तब मेरे पास कोई न कोई अकाट्य काम भी होता है। मैं भुलक्कड़ भी तो हूँ, बाद में जब लिखने बैठता हूँ, तब मुद्दा याद नहीं आता। सुकून खो गया है.. सुकून के पलों में जो कलम चलती है, वह हड़बड़ाहट में नही चल सकती। जब कोई पंक्तियां स्वयं से स्फुरित होती है, तब वह हमेशा ही लाजवाब होती है। लेकिन जिन्हें जबरजस्ती बंधारण में ढालने की कोशिश की गई हो, वे हमेशा ही चोटदार नहीं होती। यौरकोट पर मैंने कितने ही नवोदित कवियों को पढा है। लेकिन वे भी सुकून खोकर लिखी गयी पंक्तियां होती है। शब्दों में वजन होना चाहिए, भाव का.. जिसे मैं भी खो चुका हूँ..


सुकून की तलाश और शब्दों की मिठास

    सुकून की तलाश में हम कितना ही भटक ले, उसकी खोज भीतर ही संपूर्ण होती है। लेकिन भीतर भी तो इतनी सारी भूलभुलैया है। अनगनित रास्तों में सदा ही गलत रास्ता मेरा होता है। इतने सारे शौक बदलने के बावजूद जब मैं किसी एक पर स्थायी नही हो पाया हूँ, तो फिर यह दिलायरी का भी तो भूत उतरना है किसी दिन..? बहुत जल्द उतर जाएगा।


भीतर की भूलभुलैया और चुनाव का भ्रम

    धीरे धीरे मैं प्रगति तो कर रहा हूँ, लेकिन साथ ही गुणवत्ता घटती जा रही है। गुणवत्ता का बना रहना बहुत ज्यादा जरूरी है। जैसे भोजन में स्वादानुसार नमक का होना। नमक न हो तब भी नही चलता, और अधिक हो जाए तब भी..! प्रियम्वदा, कभी कभी तो लगता है, खुश रहना भी एक चुनाव है। हम खुश रहने के लिए कितने सारे चुनाव करते है। अपनी पसंदगी के स्तर के साथ हमारी खुशी का आंकलन होता है। चुनाव करना ही सबसे मुश्किल काम है, क्योंकि कईं बार खुशी कम या ज्यादा भी होती है। जैसे फिलहाल गुजरातभर की क्रश बन चुकी है वह लड़की, जिसका छठ पूजा का इंटरव्यू वायरल हुआ है। पुरुष प्रजाति सदमे में है, कि यह लड़की इतना स्पष्ट गुजराती कैसे बोल रही है.. वह भी सौराष्ट्र के अंदाज़ वाली गुजराती। लोगो ने चुनाव किया, और उसे फिलहाल क्रश के पद पर स्थापित किया है। साथ ही वह सुप्रसिद्ध गाना भी जोड़ दिया जाता है, "मारा मलक ना मैना राणी.." लेकिन वह लड़की दूसरे राज्य की है, इस कारण से "बीजा मलक ना मैना राणी.." लोग लिख रहे है।


गुजरात की सरलता और बाहर वालों की कहानियाँ

    गुजरात इतना सरल है, कि हमारे यहां रहकर लोग अपने आप यहां की संस्कृति अपना लेते है। एक और वायरल वीडियो था, जिसमे बिहार का कोई आदमी बता रहा था, कि गुजरात मे लोग बाहर वालो को मारते है। मैं भी चौंक गया था, कि ऐसा कैसे? पूरा वीडियो सुना, तो पता चला कि उसका अनुभव था, कि वह हाफ पैंट में होगा, और उसे किसी ने मारा होगा। वैसे यह बात सच है। मैं खुद अपनी गली में निकलते चड्डी धारियों को वार्निंग दे देता हूँ, कि दोबारा फुल पैंट पहनकर निकलना। या फिर बहुत गर्मी लग रही हो, तो सूती कापड की धोती पहना करो। ज्यादातर लोग वार्निंग में समझ जाते है। नहीं है, यहां के रीति रिवाज में हाफ पैंट का कोई स्थान नही है। अपने घर के भीतर नंगे घूमो, कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन घर से बाहर निकलो तो थोड़े सुसभ्य बनकर निकलना जरूरी है। मैंने तो जगन्नाथ मंदिर में ओड़िया लोगो को भी कह दिया था, कि यह क्या चड्डी पहनकर घूमते हो, मंदिर का तो मलाजा(इज्जत) रख लो। 


    चलो यह तो शहर है, यहां इतनी छूट मिल जाती है, खासकर बाहर से आए लोगों को। गांवों में मार खाते होंगे।


    शुभरात्रि।

    ३१/१०/२०२५

|| अस्तु ||


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