बरसात भरी सुबह और दिनभर की अनकही कहानियाँ
सुबह से ज़िरमिर... बारिश शुरू है। रुकने का बहाना नही मिला है शायद इसे। बिल्कुल मद्धम.. धीरे धीरे बून्द बून्द कर बरस रहा है। कोई उतावल नही है। लेकिन पूरा दिन ऐसे ही निकल जाए तब भी मुझे जरा उबाऊ नही लगता। मस्त अपना खिड़की के आगे बैठ जाओ, और निहारो.. एकाध कप चाय लो..! व्हिस्की हो तब तो बात ही अलग है। खेर, आज साढ़े छह को अपने आप आंखे खुल गयी थी। फिर भी सात बजे तक पड़े पड़े करवटें बदली है।
कार के जैक से लेकर वोट देने की तैयारी
ना, आज ग्राउंड में नही गया, क्योंकि उससे अधिक मेहनत घर पर ही करनी थी मुझे। सुबह सुबह बूंदाबांदी चालू ही थी। कार की चाबी उठायी, बूट से जैक और जरूरी पाने लेकर बैठ गया। अब तो जैक लगाना सीख गया हूँ। पहले नही आता था। मतलब कार में जैक लगाना कहाँ है यही नही पता था। सुबह सुबह वोट देकर मुझे सोमनाथ निकलना था, और टायर फ्लैट था। तब किसी से सीखा था, कि जैक कैसे लगाते है। और टायर कैसे बदलते है। आज सुबह सुबह कुछ ही देर में जैक चढ़ा दिया, लेकिन झुके झुके जैक लगाने और टायर खोलने तक मे ही शरीर हांफ गया। टांगे कंपकपाने लगी। थोड़ी सी मेहनत में ही थकान हो जाती है। खेर, टायर निकालकर ड्रम घुमाया तो नही घुमा। याद आया, हैंडब्रेक तो उतारी नही।
हैंडब्रेक डाउन करके बगैर टायर का ड्रम घुमाया तो घूमने लगे। बड़ा जल्दी राजी हो गया मैं, मुझे लगा प्रॉब्लम सॉल्व हो गया। लेकिन फिर टायर चढ़ाकर, कार स्टार्ट की तो कार अपनी जगह से नही हिली। अब मतलब था, बाईं ओर का पिछला टायर भी खोलना पड़ेगा। फिर से जैक वाली सारी प्रक्रिया दोहराई, बस टायर खोलने से पूर्व, एक बार उस उठे हुए टायर को, ऐसे ही घुमाया तो घूम गया। फिर तो कार से थोड़ी देर ऐसे ही इधर उधर की गेड़ी मार आया, और वापिस लाकर खड़ी कर दी।
ऑफिस के काम और शाम की किताबों की संगत
सुबह ऑफिस पहुंचा, और सारे काम निपटाते हुए दो बज गए। घर आया तब भी बारिश धीरी होकर बूंदाबांदी का स्वरूप ले चुकी थी। मतलब बगैर भीगे घर पहुंच गया। चारेक बजे कोई काम याद नही आ रहा था, तो वही अपनी बुक पढ़ने बैठ गया। शाम होते होते गजे का फोन आया। एक पोस्टर बनाने के लिए। संघ की शिबिर लगने वाली है, तो उसके प्रचार हेतु एक पोस्टर बनाना था। तो जगन्नाथ की संध्या-आरती के बजट नगाड़ो के बीच मैं बैठकर पोस्टर बना दिया।
बारिश फिर से तेज होने लगी, तो घर आ गया। यही था आज का दिन। बिल्कुल नीरस। हालांकि नीरस नही कहना चाहिए, क्योंकि मैं तो वह बुक पढ़ते हुए भारी रोमांच का अनुभव ले रहा था। लेकिन दिलायरी जरूर नीरस रहेगी। क्योंकि अभी मुझे वही पढ़नी है, इसी कारण यह दिलायरी में दिनचर्या से विशेष और कोई भी बात नही लिख रहा हूँ।
शुभरात्रि।
(०६/०७/२०२५)
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– दिलावरसिंह