लद्दाख यात्रा की डायरी : सज्जनसिंह का ऐतिहासिक शिकार वृतांत || दिलायरी : 07/07/2025

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लद्दाख यात्रा की डायरी – एक ऐतिहासिक और रोमांचकारी वृतांत



    प्रियंवदा ! जमाना कितना बदलता रहता है..! कल कुछ और परिस्थितियां थी। आज कुछ और है। और कल कुछ और होगी। जैसे कल राजशाही थी, आज लोकशाही है, और भविष्य में कुछ और भी हो सकता है। जैसे नेपाल में फिर से राजशाही की मांग उठ रही है। समय और स्थितियां सतत बदलती रहती है। अनेकों राजशाही राज्यों के एकत्रीकरण के पश्चात, निर्माण हुए आज के भारतवर्ष के, हम अठत्तरवे वर्ष में है। हमने राजशाही देखी नहीं है, अतः बहुत कम ज्ञान होना स्वाभाविक है। जितना ज्ञान मिलता है, वह यही दिखाता है, कि राजा लोग बहुत बुरे होते थे। या तो वे प्रताड़ना करते थे, या फिर अपने मौजशौख़ में डूबे रहते थे। अंग्रेजकालीन राज-व्यवस्था को हम उतने सही तरिके से जानते ही नहीं है। 


नीरज मुसाफिर और ब्लॉगिंग का संदर्भ

    पिछले तीन चार दिनों से एक पुस्तक पढ़ रहा था, "लद्दाख यात्रा की डायरी" - लेखक लेफ्टिनेंट कर्नल सज्जनसिंहजी। मेरे हिसाब से तो पुस्तक को दस में दस नंबर देता हूँ, क्योंकि मुझे इतिहास - भूगोल, और यात्रा वृतांत - तीनो एक साथ मिल गए, जिनमे मुझे अधिक रूचि है। ऐसे घूमते-घामते नीरज मुसाफिर के ब्लॉग पर पहुँच गया था। वहां पुस्तक चर्चा के लेबल तले बहुत सारे पुस्तकों की उन्होंने समीक्षा भी दी है। वहीँ स्क्रॉल करते करते "लद्दाख यात्रा की डायरी" नामक पेज पर नजर पड़ी। मैंने लद्दाख के ढेरों मोटो-व्लॉगस देखे है। तो लद्दाख के विषय में पढ़ने की कतई इच्छा न थी। लेकिन पुस्तक के टाइटल में डायरी शब्द पढ़कर सोचा समीक्षा तो कम से कम पढ़ ली जाए। 


    तीसरे अनुच्छेद में लेखक के विषय में जब पढ़ा, कि लेखक ओरछा राज्य के दीवान रह चुके है, तब तो पूरी समीक्षा बड़े गौरपूर्वक पढ़ी। (यहां क्लिक करके नीरज मुसाफिर की समीक्षा पढ़ सकते है।) उन्होंने काफी अच्छे से समीक्षा लिखी है, तो मैं सोचता हूँ, कि मैं क्या ही नया लिख लूंगा? फिर भी आज की दिलायरी के साथ साथ समाहित कर ही लेता हूँ।


    कल रात से यहाँ बारिश सतत शुरू रही है। वैसे तो कल दिनभर ही कभी तेज, कभी मद्धम, तो कभी बस नाइ के फव्वारे सा जल बरसता रहा। रात को नींद तो नहीं टूटी थी, लेकिन सुबह घरवालों के बताने पर यकीं कर लिया, कि रातभर विश्राम लेते लेते वर्षा की आय शुरू ही रही है। सवेरे आज ग्राउंड में कसरत करने न जाने का बढ़िया और संतोषपूर्ण बहाना यही था, कि बारिश हो रही है। अतः छतपर भीगने के लिए जरूर चढ़ा, लेकिन जाड़े जैसी पानी की बूंदो से, शरीर और मन दोनों के कपकपाने से वापिस घर के भीतर ही आ गया। और अधभीगा शरीर बाथरूम के फव्वारे के निचे झुका दिया। ऑफिस पहुंचने की कोई जल्दी न थी, कारण बारिश ने अभी तक ब्रेक न लिया था। 


    जब दस बजे करीब, बारिश सांस लेने को रुकी तो मैं उपयुक्त समय समझकर मोटरसायकल लेकर निकल पड़ा। सीधे जगन्नाथ, मौजे को भीगते बचाने के लिए पैरो के पंजे पर चलता हुआ सीढ़ी चढ़ा, दर्शन किये। निकला, और दूकान। एक चौकड़ी खींची, एक मावे को मुखार्पण किया, तब तक फिर से बूंदाबांदी बढ़ गयी। लेकिन उसके रुकते ही, मैं निकल पड़ा। तो सीधे ऑफिस से कुछ पूर्व ही उससे पाला पड़ा। गर्विष्ठ होकर ऑफिस पहुंचा, क्योंकि ९५ प्रतिशत सूखा था। मिल तो बंद थी, ऑफिस पर कोई काम न था, कल की बस दिनचर्या भरी दिलायरी, नियमितता भंग होती रोकने के लिए ही पब्लिश की। और फिर बैठ गया कंप्यूटर के आगे, आर्काइव्ज में वह बुक पढ़ने। आधी पढ़ चूका था।


डायरी की भाषा, शैली और यात्रा का कालखंड

    एक टैब में बुक खोली, दूसरी टैब में गूगल मैप्स। क्योंकि मैं उनका रूट भी देखता-समझता जा रहा था। ईस्वीसन 1939 में यह यात्रा की गयी थी। उस समय की सारी स्थितियों का अच्छे से चितार दिया गया है। सीधी-सीधी डायरी एंट्रीज है। कब निकले, कब पहुंचे, क्या वातावरणीय स्थिति थी, क्या शारीरिक स्थिति थी, यह सब बिना कोई मिलावट के। लेकिन तब भी एक लेखक अपने पाठक को बांधे रखने में सक्षम रहे है। उस समय तक शिकार करना आम बात थी। और यह यात्रा ही शिकार के लिए की गयी थी। एक अंग्रेज महिला द्वारा, ओरछा के दीवान को जब यह कहा गया, कि "और सब ट्राफी आप हिन्दुस्तानियों के बस की है, परन्तु लद्दाख के शिकार और उसमे भी ओविस अमोन को मारने का बूता आपका नहीं है।" तब उनको यह ताना चोट कर गया। और उन्होंने ठान लिया की अब तो शिकार ओवीस अमॉन का ही होगा। उन्होंने टीकमगढ़ से ट्रेन से अपने साथी हरवलसिंहजी (दाउसाहब) के साथ यात्रा शुरू की। 


    उस समय तक भारत का विभाजन भी नहीं हुआ था, और न ही अक्साई चीन पर चीन का कब्ज़ा। द्वितीय विश्वयुद्ध भी नहीं हुआ था। सज्जनसिंहजी 23 JUNE 1936 का उनकी डायरी का पहला पन्ना लिखते है, और आखरी पन्ना 13 SEPTEMBER 1936 का। जब शिकार खेलकर सितंबर में वापिस लौट रहे थे, तब उन्हें द्वितीय विश्वयुद्ध की खबर मिली। कश्मीर राज्य की उस समय के अच्छे भले उनके समस्त अवलोकन उन्होंने अपनी इस डायरी या यात्रा वृतांत में अच्छे से सम्मिलित किए है। शिकार होता कैसे है यह भी लिखा है। जहां जरूरत लगी वहां उन्होंने अपनी कमियां भी लिखी है, बिना संकोच के। शिकार के इतने बड़े शौख के बावजूद वे अश्व सवारी में कच्चे थे। एकाध जगह उन्हें टट्टू ने गिराकर, दुलत्ती जड़ी थी, यह भी लिखा है। मतलब आप बड़ाई नही की है। शिकार के लिए परमिट मिलने के बाद, वे कश्मीर पहुंचे, और एक एजेंट बुक किया..


    यहां तक कि बात ऑफिस पर लिखी थी, फिलहाल फोन में घर की छत पर, हुकुम के आदेशों को सुनते हुए लिख रहा हूँ। लिखने के लिए मुझे एकांत चाहिए होता है, जो कभी कभी नही बन पाता। ऑफिस में काम न था, तो गजा बार बार मेरी केबिन में आकर रील देखता रहा, और जबरजस्ती बातें करता रहा। तब भी, जब मैं उसकी बात का प्रत्युत्तर नही दे रहा था। आखिरकार लगा, कि न गजा बन्द होगा, न मैं शांति से लिख पाऊंगा, तो घर ही निकल लेने की सोची। दिनभर तो बारिश से छिपने में मैं समर्थ रहा था, लेकिन शाम को घर आते हुए उसने धप्पा कर ही दिया। इतनी भारी बारिश थी, कि मुझे अपने ब्लूटूथ और फोन, एक ओवरब्रिज के नीचे रुककर, तीन-तीन प्लास्टिक में लपेटे अपने टेंकबेग मे रखने पड़े। घर पहुंचा तब ठंड के मारे थोड़ी कपकपाहट चलने लगी शरीर से। फिर एक बढ़िया शावर लेकर भोजनादि से निवृत होकर छत पर टहल रहा हूँ। अब फिर मुद्दे पर आते है।


सज्जनसिंहजी और ओरछा की दीवानी से लद्दाख की घाटियों तक

    सज्जनसिंह जी कश्मीर पहुंचे, और एक एजेंट बुक किया.. जैसे आज हम लोग टूर ट्रेवल्स के लिए एजेंट से, अपनी पूरी यात्रा आयोजित कर लेते है कुछ उसी तरह। फर्क इतना है, कि हम मोटर वाहनों का इस्तेमाल करते है, उनके समय पर टट्टू थे। एक पूरा संघ चलता है, समूह। जिसमे दो लोकल शिकारी, कुछ नौकर, और कुछ सामान ढोने के लिए मजदूर। तीन-चार नाम इस यात्रा में खूब आए, जो मुझे याद रह गए। दाउसाहब, मोख्तालोन, रमज़ानखान और भोटे (शायद मजदूर) एक और भारी भरखम हिंदी शब्द, जिसे मुझे गूगल करना पड़ा, वो था 'उपत्यका'.. क्योंकि बार बार आ रहा था। दूसरे कुछ शब्द थे, जो लदाख के स्थानिक बोली के थे। लदाख की जन संख्या नियंत्रण को लेकर उनके स्थानिक सामाजिक नियमों से वे प्रभावित हुए, और डायरी में नोंध की। दूसरे कुछ शब्दों से भी मैं अपरिचित था, क्योंकि उस विषय का भी अज्ञानी हूँ, वे थे प्राणियों के नाम। न्यान (OVIS AMMON / Tibetan Argali), शापु (LADAKH URIAL), भरल (BLUE SHEEP), गोवा (Tibetan Gazelle), आईबेक्स वगेरह वगेरह..


शिकार, संवेदना और हिमालय की चुनौती

    अच्छा शिकारी वो नही होता है जो अपने निशान का अचूक हो। अच्छा शिकारी वह होता है जो धीरज धर पाए। सज्जनसिंहजी में भरपूर धीरज थी, यह उनके आखेट प्रसंगो से समझ आता है। बुक पढ़ते हुए कई बार रोमांच का अनुभव होता है। जैसे हम खुद ही वहां मौजूद हो, और कभी तो ऐसा भी लगता है, कि हमने ही फायर किया है। फायर से याद आया, इस बुक में - मतलब pdf वर्ज़न में - बहुत से शब्द समझ नही आते। जैसे 'रंग' का 'रग' हो गया है, अनुस्वार बिंदी गायब है। दूसरा स्थान, नगर, गांवों के नाम, आज के अनुसार थोड़े बहुत अलग है। सम्भव है, जो उच्चारण सुनाई दिया, वही लिखा गया हो। जैसे मुझे लगता है, 'फायर किया' की जगह 'फैर किया' लिखा गया है। इसमें भ, झ और अ पुरानी पुस्तकों वाले है, इस लिए पढ़ने में मुझे थोड़ी समस्या हुई, क्योंकि हिंदी मेरी प्रथम भाषा नही है। शिकारी होने के बावजूद एक करुण प्रसंग पर उन्होंने दयाभाव बहुत अच्छे से लिखा है। एक कुत्ते की मृत्यु पर वे खूब आहत हुए थे, और अपने मजदूर पर क्रोधित भी।


पुस्तक के पाठक होने का रोमांच और निष्कर्ष

    पूरी पुस्तक एक ही बैठक में खत्म करने की इच्छा होती है। लगभग 180 पन्ने की है, तो एक ही बैठक में पूरी की जा सकती है। लेकिन मैं अन्य विषयों में भी उलझा रहता हूँ, इस कारण मुझे तीन-चार दिन लगे। और मैं तो साथ ही साथ गूगल मैप्स में उनका रूट भी खोजता चला जा रहा था, इस कारण मेरा पुस्तक से ध्यान भटकना भी बहुत बार हुआ। मुझे मजेदार बात यह लगी, कि जब सज्जनसिंहजी और दाऊसाहब को अलग अलग शिकार पर जाना पड़ा, तब सज्जनसिंहजी के साथ स्थानिक शिकारी मोख्तालोन गया, और दाऊसाहब के साथ रमज़ानखान। लेखक सज्जनसिंहजी जब लद्दाख के विषम पर्यावरण के कारण थके, ऊर्जाहीन हुए, चिड़चिड़े हुए, या हठी हुए तब मोख्तालोन ने उन्हें बहुत ही अच्छे से संभाला। उस तरफ रमज़ानखान कामचोर तथा धूर्त था, तो दाऊसाहबने अपने साथ साथ उसे शिकार के पीछे खूब दौड़ाया। वो वाक्य बड़ा ही मजेदार था, जब पुनः दोनो इकट्ठे हुए और रमज़ान खान कहता है, कि "हुज़ूर, मुझे आपके साथ रख लो, छोटे हुजूर खुद तो थकते नही, और मुझ बूढ़े को दौड़ाते बहुत है.."


    दीवान के पद पर होकर भी उन्होंने, अपनी आर्थिक स्थिति ठीक न होने की कहकर, लाल भालू और बारहसिंगा के शिकार को टाल दिया। लेकिन दोनो स्थानिक शिकारियों को फिर भी पूरे सितंबर माह की पगार चुका दी। जहां जरूरत लगी वहां उन्होंने अनावश्यक मांगे गए भुगतान के लिए झगड़े भी किए। और जहां जरूरत लगी, उन्होंने बक्शीस भी बांटी। कुल मिलाकर एक बार यह बुक जरूर से पढ़नी चाहिए। इसमें बहुत सी ऐसी बातें है जो बड़ी रोमांचक है, कुछ करुणासभर, तो कुछ हास्य-विनोद भरी भी। लदाख के बौद्धों की उस समय की स्थिति के लिए तो जरूर ही इसे पढ़ी जाए।


    फिलहाल समय हो चुका है साढ़े नौ। और बस,

    शुभरात्रि।

    (०७/०७/२०२५)

|| अस्तु ||


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– दिलावरसिंह


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