एक सुस्त सुबह और अटकी कार की कहानी
कभी कभी दिन ऐसा निकलता है, कि समय ही समय पड़ा है, क्या लिखूं यह समझ नही आता। और कभी कभी आज के जैसा दिन भी आता है, कैसे लिखूं यह समझ नही आता। बातों को कौनसे रैपर में बंडल किया जाए, कि आकर्षक लगे, लेकिन भीतर क्या है - कौन है - यह भी प्रकट न हो। पूरे दिन का सार कहूँ, तो आज बस पढ़ रहा था। और जो पढ़ रहा था वह बड़ा ही मजेदार है। लेकिन मुझे जिसमे मजा आ रहा हो, और वह मुझे चोट न दे यह भी कभी हो सकता है भला? अक्सर मुझे पसंद आया हुआ मुझे घायल कर जाता है। फिर चाहे आर्थिक हानि हो, मानसिक या शारीरिक.. जिसपर भी मैंने पसंदगी उतारी है, वहां वहां से चोटिल हुआ हूँ। लेकिन आदमी गिरते गिरते ही तो चलना सीखता है। और मैंने तो अब इस जीवन को ही निरन्तर चलना सीखना समझ लिया है। बार बार जख्म खाते है, उन्हें फिर दर्द का अहसास कम हो जाता है। अरे.. कहाँ मैं वो घायलों वाले दुःखी अंदाज़ में जाने लगा.. आप भी वापिस मुड़िये मेरे साथ।
रिश्तों की रस्सियाँ और आत्मकेंद्रित प्रेम
आदमी की उम्र के साथ साथ एक चीज और बढ़ती है। वो है रिश्तेदारियां..! जिन्हें निभाना पड़ता है। मुझसे नही होता है, लेकिन करना पड़ता है। मेरा वो वाला मामला है, जिसमे आदमी को प्यार होता है तो सिर्फ उसके नित्यक्रम से.. कि मेरे कल के इतने अधूरे काम है, अरे उसे तो आज रिमाइंडर देना है पेमेंट के लिए, अरे मेरे उस ब्लॉग के भी स्टेटिक्स देखने है.. या फिर मुझे यह वाली चींजे चाहिए अपनी अगली ट्रिप के लिए। स्वार्थी आदमी। तो दरअसल एक रिश्तेदार का रिश्ता तय हो रहा था, और उस रिश्ते के लिए कुछ जरूरी साजोसामान अपने यहां सुलभता से मिलता है। तो माताजी को, कुँवरुभा को, उनको पास के शहर वाली मार्किट जाना था। सोचा उन लोगो को कार से वहां छोड़कर वापिस घर आकर बाइक से ऑफिस चला जाऊंगा। क्योंकि ऑफिस तक पहुंचने के लिए कीचड़ के दरिये में डूबकर जाना होता है। ठीक नौ बजे कार का इग्निशन ऑन किया, हैंडब्रेक नीचे किया, पहला गियर डालकर गाड़ी आगे करने के लिए क्लच छोड़ा।
गाड़ी पर गजे का ज्ञान और यूट्यूब की खोज
गाड़ी आगे नही बढ़ी। लगा कुछ पत्थर वगेरह होगा, रिवर्स ले लेनी चाहिए। रिवर्स भी नही हो रही थी। अब अपन ठहरे मिकेनिकल ज्ञान के अबुध.. सोच में पड़ गए। क्लच छोड़ते ही गाड़ी दम तो लगाती है, लेकिन किसी भी दिशा को प्राप्त नही हो पा रही। गाड़ी को भी कब्ज होते है क्या? डाकसाब से सलाह मशविरा करना अनिवार्य हो गया। रिक्शा बुलवाकर घर वालो को तो मार्किट भेज दिया, और मैं उकड़ू बैठा ठीक गाड़ी के आगे, अपना सर खुजाते। हैंडब्रेक लगा नही है, ब्रेक पैडल पर ट्रक की तरह हवा भी भरी, लेकिन गाड़ी जिद्द पर अड़ गयी। याद आया, अपने पास डाकसाब है, फोन मिलाया गजे को। जहरीला संघी गजा। किस्मत का खेल देखिए आप.. गजा मुझे देखकर ही इंजीनियरिंग जॉइन किया था। मैंने आधी छोड़ दी, उसने पूरी की। वो भी ऑटोमोबाइल से। आज उसी लाइन में नौकरी करता है, लेकिन थोड़ी हेवी। ट्रक भी तो ऑटोमोबाइल में आते है।
उसके द्वारा अमूल्य ज्ञान मिला, कि ब्रेक शू फूल गए होंगे, या हैंडब्रेक उतरी नही है। गाड़ी को रेन कविर चढ़कर रखना चाहिए। और इसके इलाज के तौर पर टायर खोलना पड़ेगा, और ड्रम को हथोड़े से मारना पड़ेगा। लेकिन मैं ठहरा शंकाधारी.. सोचा यह तो ट्रक का डॉक्टर है, कार को हथौड़ा कैसे मार सकता है कोई? वह भी अपनी पहली कार को? अपन भावनाओ के बहाव में बह गए.. और कार को जैसी थी, छोड़ ऑफिस चला आया। दिनभर शनिवार होने के उपरांत काफी खाली समय मिला था, जिसका सदुपयोग मैंने वो यात्रा वृतांत पढ़ने में किया। हालांकि सुबह सुबह ऑफिस पहुंचकर पहला काम तो टायर वाली प्रोब्लेम को गूगल करने का ही किया था। गजा पर संदेह करना गलत साबित हुआ, क्योंकि यूट्यूब के अनुसार भी यह प्रॉब्लम इसी तरह हल होती है, हथोड़े से थपथपाने से टायर फ्री हो जाता है।
तीनताल पॉडकास्ट के ठहाके और स्क्रेपिंग की पीड़ा
आजकल यूट्यूब पर मैं एक पॉडकास्ट भी सुन रहा हूँ। तीन घण्टे का तीनताल। तीन लोग बैठकर इधर-उधर की बाते करते है, जो बड़ी मजेदार लगती है। नया नया सुनना शुरू किया है न। सुबह कसरत करते हुए हँसना भी हो जाता है। बड़ी रोचक बातें होती है। और गंभीर मुद्दे भी बड़ी सहजता से, हास्यविनोद के साथ, और दार्शनिक अंदाज में। और सबसे ज्यादा पसंदीदा है चिट्ठियों वाला भाग। लोग भी अलग अलग अंदाज में चिट्ठी लिखकर अपने किस्से भेजते है। एक दिन किसी का किस्सा सुनते हुए, मैंने इतने ठहाके लगाए, कि बाइक चला रहा था यही भूल गया था। चिट्ठी का अंदाज़ ही ऐसा था, और क्या रूपक थे.. गजब। आज बात हो रही थी पंद्रह वर्ष पुराने वाहनों की स्क्रेपिंग स्कीम पर। नया नियम है कि पंद्रह से अधिक वर्ष पुराने वाहनों को सड़क पर चलते मिले या पेट्रोलपंप पर पाए गए तो उन्हें वहीं से सीज करके स्क्रेपिंग के लिए भेज दिया जाएगा.. इस विषय पर कमलेश जी की बातें बड़ी जोरदार लगी मुझे। बोले, पंद्रह वर्ष का वाहन स्क्रैप नही करोगे आप, पंद्रह वर्षों में उस व्यक्ति ने अपने वाहन से बांधी भावनाओ को स्क्रैप की जाएगी।
टिकाऊ संस्कृति और डिजिटल खर्च की दूरी
बात भी सच है। अपने यहां use and throw का रिवाज ही न था। हम तो एक ही चीज को लंबे समय तक कैसे उपयोग में लेते रहे उसके लिए बने है। संतोषी जीव। जैसे एक पानी की बोतल खरीदी हो, उसे रिफिल कर कर के उपयोग में ली हो, फिर उसे काटकर छोटा पौधा लगाने के लिए गमला भी बनाया हो..! जैसे एक शर्ट पहनी, फिर उसे छोटा भाई पहनेगा, फिर उसका पोछा बनेगा, और जब बिल्कुल ही खत्म होने की कगार पर हो, तब उसे बाइक में सीट पोंछने उपयोग में ले लेते है। हम 'टिकाऊ' की परंपरा वाले लोग थे। बॉलपेन में रिफिल करने वाले। कोई चीज फेंकनी हमे आती कहाँ? लोग अपने मन तक भरकर रख लेते है। दूसरी बढ़िया बात थी स्पर्श की। स्पर्श कितना जरूरी है.. पैसे जब छूकर - नोट स्वरूप - में खर्च करते थे तो एक अंदाज रहता था। जिम्मेदारियों का। लेकिन जब से यह डिजिटल करेंसी का चलन हुआ है, बस एक रिंगटोन बजती है, लेकिन पता नही चलता है कि वास्तव में जरूरत थी या कोई फालतू खर्च..?
शाम होते होते कुछ अन्य कामों में व्यस्त हो गया, दिलायरी लिखनी छूट गयी। पड़ोसी के ऑफिस पर भी टैक्स वगेरह भरने थे। वहां भी जाना आज ही जरूरी था। तो सवा आठ बजे वहां चला गया। और उसका काम निपटाते निपटाते साढ़े नौ बज गए। घर आया, और फिर याद आया, स्नेही ने भी कुछ लिखकर भेजा है। छत पर खुले आसमान के नीचे, मंद चलते पवनो के साथ टहलते हुए, मेरा मन भी स्नेही के उस भावनात्मक लेखन के साथ किसी गम्भीर और स्थिर हो चुके समंदर सा थम गया था। स्नेही की बातों से मुझे भी एक व्यक्तित्व याद आ गया। कुछ देर तक टहलता रहा। और फिर नीचे आकर मन शांत किया, और यह लिखने बैठा।
बैठने से उपजी अनहोनी अनुभूतियां
बैठने से याद आया। अब मुझे बैठने से समस्या हो रही है। अरे नही नही, वो वाली बीमारी नही है। दूसरी वाली है, जिसे मैं समझ नही पा रहा हूँ कि यह बैठे रहना उसका कारण है या खानपान..! दरअसल मेरी आदत थी, कुर्सी पर लगातार बैठे रहने की। लेकिन अब क्या होता है, कि अगर सतत बैठा रहा तो पूरा शरीर खाली खाली लगता है, हल्का चक्कर अनुभव होता है, और पसीने छूटने लगते है। समझ नही आता, घाम के कारण होता है, या बैठे रहने से, या फिर खानपान गलत हो जाता है। पिछले कुछ दिनों में कईं बार यह अनुभव किया है। पहले कभी हुआ नहीं ऐसा कुछ। बहुत से कारण लगते है मुझे, जैसे अधूरी निंद्रा, एक साथ काफी पानी पी जाना, घाम, लगातार एक ही स्थिति में बैठना, या फिर गलत सलत भोजन.. जो भी हो, इसके कारण से वह पुस्तक, मैं एक ही बैठक में पूरा नही कर पा रहा हूँ। शाम होते होते वो समस्याएं आ जाती है। और फिर काफी देर तक पैदल टहलना चालू कर देता हूँ। धीरे धीरे सारे बवंडर शांत हो जाते है।
जैसे अभी यह रात शांत हो चुकी है, बारह बजे।
शुभरात्रि।
(०५/०७/२०२५)
|| अस्तु ||
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प्रिय पाठक,
यदि इस दिलायरी में कही कोई बात आपके मन की सतह को छू गई हो, कोई स्मृति उभर आई हो, या कोई सवाल मन में गूंज रहा हो—तो बेझिझक अपनी बात मुझ तक पहुँचा दीजिए।
आपके शब्द मेरे लिए भी वही हैं—
जैसे किसी पुराने वाहन में छुपी अनगिनत यात्राओं की यादें।
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– दिलावरसिंह