बरसात की ऋतु में जीवन के रंग
प्रियम्वदा ! क्या खूब बारिश हुई है आज। छमाछम। दोपहर एक बजे से बरस रहा था आसमान, शाम साढ़े सात तक। उसे भी पता है, की मुझे आठ बजे घर जाना होता है, तो ठीक घर जाने से पूर्व बंद भी हो गया। मतलब बिल्कुल सूखा सूखा घर भी पहुंच आया। आज दिनभर लाइट आती-जाती रही, इस कारण से कुछ जरूरी काम भी न हो पाए। बाकी दिन इतना जबरजस्त था कि क्या कहूँ। खासकर जब शाम की बारिश होती है, तो घर घर के देवावतार पतिदेव का एक ही आदेश होता है उनकी रसोईघर की महारानी से.. पकोड़े। बेसन की खूब डिमांड बढ़ जाती होगी वर्षा में। ऋतु ही ऐसी है न। प्रेमियों की नजदीकियों का कारण यह वर्षा है। एक तो इस फिल्मी जगत ने बारिश में भीगी नायिका के काले बालों से गिरती जलबून्दों पर इतना फोकस किया है, कि प्रेमियों की यह आकांक्षा जरूर रहती है, अपनी प्रेमिका के साथ बारिश में भीगने की।
पकोड़े और प्रेम – मानसून की आदतें
एक तरफ सूरजदेवता निकलते नही, और सारे गीले कपडे घरों के भीतर ही पंखे में सूखने की चेष्ठा करते पाए जाते है। सिनेमेटोग्राफी से कोसो दूर, सरकारी आवागमन मार्ग पर घुटनेभर पानी मे, नवजात गढ्ढो से बचते हुए घर पहुंचा कोई पकोड़े कैसे मांग ले? जब कि घर मे चारो ओर कपड़े ही कपड़े सूखने के लिए उतावले हुए हो। यहां नायक को अपनी नायिका के बालों से टपकते जलबून्दों के बदले, डोरी पर टंगी छिद्रयुक्त बनियान से गिरते नीर से हुआ, टाइल्स के केंद्र में नन्हा सा जलभराव दृष्टिगोचर होता है। बाहर गरजते मेघनादों को अनसुना करते हुए, अपनी प्राणप्रिया के कटुवचन सुनकर भी, वह अपने जठराग्नि को सन्तोषने के लिए झिझकपूर्ण अर्जी तो लगाता है पकोड़े की। लेकिन वह अर्जी भी किसी सरकारी बिल की भांति अन्य बातों में कहीं दबी रह जाती है। सरकारी बाबुओं को दी जाती घूंस या झूठी तारीफों के बाद भी वह पकोड़े की फाइल आगे नही बढ़ पाती है। कारण बस एक ही, नायिका ने पहले ही प्रतिदिन के पकवान पकाए रखे है।
खेत में हल खींचता किसान – महाराष्ट्र की सच्चाई
खेर, यह तो मजाक था, लेकिन वास्तविकता से दूर नही। मेरे घर पर भी, बारिशों में पकोड़े अक्सर बनते है, तब भी, जब मुझे जरा पसंद नही। हाँ, मेथी या प्याज के हो तो बात अलग है। फिलहाल बारिश बंद है, लेकिन आसमान अभी तक रोशनी कर कर के, कहाँ गिरूँ यही सोच रहा है। कईं सारी ऐसी जगह भी हो चुकी है, जहां खेत थे, और अब नाला.. जमीन ही धुल चुकी है। लेकिन सोचने लायक बात वो लगी जब टीवी ने खबर सुनाई की, महाराष्ट्र में कहीं एक किसान खुद बैल की जगह हल खींच रहा था, और पीछे उसकी पत्नी हल को थामे हुए थी। दोनो ही उम्रदराज थे। कितनी अजीब बात है ना? इस जमाने मे भी कोई किसान खुद बैल की जगह हल खिंचे तो। टीवी पर जब वह दृश्य चला तो मुझे एक कहानी याद आ गयी।
सौराष्ट्र का राजा देपालदे और मोतियों की कथा
सौराष्ट्र में पाळियाद पर उन दिनों गोहिलो का राज मध्यान्ह के सूर्य सा तप रहा था। राजा देपालदे ने अपनी प्रजा के कल्यानार्थ सारे ही काम किए थे। ऐसी ही वर्षा की ऋतु थी, और बहुत अच्छी वर्षा हो रही थी। अपनी प्रजा का हालचाल जानने राजा खुद प्रजा के खेतों की ओर सैर पर निकल पड़ा। उसने एक दृश्य देखा और भीतर से डगमगा गया। एक जगह पर एक किसान खेत जोत रहा था, लेकिन बैल के बदले वह अपनी पत्नी से हल खिंचवा रहा था। राजा देपालदे क्रोधित हो उठा। एक स्त्री पर होता अत्याचार देख वह उस खेत मे आया, और किसान को सारा मामला पूछा। पता चला कि किसान का बेल वर्षा की शुरुआत में ही मर गया। और इस भरे मौसम में नया बैल कहाँ मिले? ऋतु बीत जाने पर तो खेती ही कैसे हो? राजा ने उस किसान को रुक जाने को आग्रह किया।
लेकिन किसान उल्टा राजा को ही कोसते हुए बोला, "तुम्हे अगर इतनी दया आ रही हो तो खुद ही बैल की तरह हल खींचो।" राजा ने अपने अंगरक्षकों को तुरंत ही नया बैल लाने को बोलकर, उन किसान-पत्नी को मुक्त करवाते हुए, हल का धुंसर अपने कंधों पर लिया। चार चास चलने तक मे राज का बैल आ चुका था। और राजा ने वह बैल किसान को दिया। वर्षा खत्म हुई। और जब फसलें लहलहाने लगी। तो किसान खेत पर आया, सारी ही जमीन पर मोती के दानों सी बाजरी की फसल आयी थी। किसान चलते चलते वहां पहुंचा, जहां राजा ने हाल जोता था। आकस्मिक उसने देखा, कि उन चार चास जमीन की फसल मुकाबले बिल्कुल नहिवत हुई थी। वह घर आया, और अपनी पत्नी पर चिल्लाते हुए कहने लगा, "कैसा पापी राजा है, जिस जमीन पर चला वहां फसल भी कमजौर हुई, कितना अभागी है, मेरा नुकसान कर गया.. वगेरह वगेरह.."
उसकी पत्नी से अपने मुक्तिदाता के बारे में यह ताने न सुने गए। वह आर्तनाद करती हुई, श्रद्धापूर्व देवीजाप करती हुई अपने पति के साथ खेत पर आई। जिस जमीन पर राजा देपालदे चला था, वहां एक बाजरी का पौधा देखा, तो उसमे से असली मोती निकले। उन चार चास जमीन में जहां राजा चला था, उस सारी फसल में बाजरी के बदले मोती उगे थे। अब उस किसान को पछतावा हुआ। कि कितना पुण्यशाली राजा है, जहां खेती कि वहां बाजरी के बदले मोती हुए है। उस ने पूरा छाबड़ा भरा, और राजदरबार पहुंचा। नीति अनुसार वह मोती राजा के हुए, उसकी मेहनत के थे। राजा का मानना था, कि जमीन किसान की थी, इस कारण वे सारे मोती किसान के हुए। और आखिरकार राजा ने उसमे से एक मोती स्वीकार कर उसे अपने राजखजाने मे रखवाकर बाकी की छाब किसान को भेंट कर दी।
बदलते युग और किसानों की पीड़ा
और एक आज का जमाना है, उस महाराष्ट्र के किसान ने बैल के अभाव में खुदने हल खींचा और हम लोग सहानुभूति ही दिखा सकते है बस। क्योंकि उसके पास विकल्प कहाँ? खेती की मौसम में वह किसके पास अपनी फरियाद करें? कौन उसकी सुनेगा? सरकार की ऐसी तो कोई जोगवाई नही है, वह तो ज्यादा से ज्यादा सब्सिडी दे सकती है। राजाओं की तरह बैल या ट्रेक्टर - ऐसे ही थोड़े दे देंगे? इस बात से एक और बात याद आ गयी। वह भी लिख देता हूँ।
राजाओं से नेताओं तक – संवेदना की कमी
भारत स्वतंत्र हो गया, राजशाही खत्म हो गयी, भावनगर के महाराज कृष्णकुमारसिंह जी गोहिल अपना राज्य भावनगर, भारतसंघ को सौंप चुके थे, और स्वयं मद्रास के गवर्नर के रूप में कार्यभार संभाल चुके थे। उन दिनों भावनगर के किसी गांव के एक किसान का बैल चोरी हो गया। राज्य की तरफ से किसानों के लिए ऐसी सुविधा थी, कि राज्य उस किसान का बैल ढूंढकर न दे, तब तक उस किसान के लिए दूसरा बैल राज्य देता था। किसान पहुंचा भावनगर। महाराजा साहब को ढूंढता हुआ। किसी ने उसे समजाया, कि अब तो राजशाही चली गयी है। अब तो पुलिस के पास जाओ, अपनी शिकायत दर्ज कराओ। मिलेगा तो वे लौटाएंगे। लेकिन किसान नही माना। वो तो महाराजा को ढूंढते हुए मद्रास पहुंचा। गवर्नर बंगलो के बाहर इन्तेजार करता रहा। और घर से निकलते कृष्णकुमारसिंहजी के पास दौड़कर पहुंच गया। महाराजा ने मुस्काते हुए अपनी भोली प्रजा की राव सुनी। अपनी आमदनी में से नए बैल के लिए रुपये दिए। और तब किसान वापिस लौटा।
क्या ऐसी व्यवस्था आज है? आज के राजनेता कहीं किसी किसान को, ऐसी सुविधा कर देने की चेष्ठा भी करते है, बगैर चुनाव के? नहीं। क्योंकि राजनेताओं को तो मत चाहिए तब प्रजा माईबाप है। वरना बढ़ती हुई आबादी मात्र।
शुभरात्रि।
(०३/०७/२०२५)
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– दिलावरसिंह
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