पाताल लोक सीजन 2 समीक्षा – हाथीराम चौधरी की जद्दोजहद और हक़ की तलाश || दिलायरी : 04/07/2025

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पाताल लोक सीजन 2 – कहानी का सार


Paatal Lok Season 2 Review

    हक़.. तुम्हे पता है प्रियंवदा? यह जो हक़ शब्द है न, वहां बहुत सारे बंधन है..! हक़ में बहुत सारी संभावनाएं छिपी है। अधिकार, हमे बहुत कुछ देता है। बदले में उसे क्या चाहिए? बस पात्रता। फिर चाहे क्षमताओं की पात्रता, हो या निति की। वैसे यह हक़ हांसिल करना पड़ता है। कहीं पड़ा हुआ नहीं मिलता। एक लक्ष्य को साधने के पश्चात, कुछ एफ्फोर्ट्स लगाने पड़ते है। बहुत सारे समीकरणों को साधने के पश्चात यह मिलता है। हक़ की बात क्यों कर रहा हूँ? क्योंकि बहुत दिनों के अंतराल में समय मिला, तो आज वो अधूरी पाताल लोक की सीज़न २ देख ली।


हाथीराम चौधरी का किरदार और अभिनय

    रहस्यों की गुत्थियां सुलझाता एक चालीसेक साल का एस.एच.ओ हाथीराम चौधरी। पहली सीरीज़ भी मैंने बस यूँही देख ली थी। यह दूसरी सीरीज़ आयी, लेकिन देख नहीं पाया था। फिर वो पंचायत ख़त्म करके यह शुरू की थी। सच कहूं तो शुरुआत में तो इतने बोरिंग लगी थी, कि सोचा था आगे नहीं देखनी है। कारण है, मुद्दा समझ नहीं आ रहा था। पिछले सीज़न का न्यू जोइनी अंसारी इस बार ए.सी.पी. की पोस्ट को प्राप्त कर चूका था। और हाथीराम वहीँ का वहीँ। अरे हाँ अब याद आया, पाताल लोक की पहली सीज़न ऐसे ही नहीं देखी थी। उसकी एक रील बड़ी वायरल हुई थी, जिसमे हाथीराम एक गुंडे को पीटते हुए कह रहा था, "तेरा फूफा पेले'ते सस्पेंड हांडे है।"


संवाद और हरियाणवी बोली का असर

    मेरे कई सारे कलीग्स हरयाणा के थे। तो उनकी यह गले को जोर देकर, निकाले जाते शब्दों वाली बोली, मुझे काफी पसंद आती थी। शुरू शुरू में मैं उनसे फ्लुएंटली बात कर लेता था उन्ही के हरयाणवी अंदाज़ में। एक तरफ देश में महाराष्ट्र से लेकर दक्षिण तक राज्य की भाषा के लिए लोग मारपीट कर रहे है। और एक हम गुजराती लोग है, जो अपने यहाँ अन्य राज्यों से आए लोग की बोली सीख लेते है। कई बार तो ऐसा भी होता है, कि उत्तर प्रदेश का भैया अपने वाक्यों के पीछे जबरजस्ती "छे" ठूंस रहा होता है, और मैं अपने वाक्य में जबरजस्ती "हमरा"..! यही तो मजे है। कोई मारवाड़ी बोलता है, "तमेने खबर पड़ती छे?" और मैं कह देता हूँ, "म्हाने सारी ठा पड़े है.." दोनों ही गलत वाक्य है, लेकिन संवाद तब भी हो जाता है। 


हक़ की परतें – अधिकार और पात्रता का द्वंद्व

    खेर, इस बार तो हाथीराम ठेठ नागालैंड पहुँच गया। वहां की छोटे से छोटी समस्या से लेकर, नक्सलवाद के ग्रुप तक इस सीरीज़ में समाहित किया गया है। आधी सीरीज़ मुझे बोरिंग लगने का एक कारण यह भी था, कि मुझे मुद्दा ही समझ नहीं आ रहा था। क्योंकि कुछ बातें नागामीज़ में हो रही थी, और मेरे सब-टाइटल्स चल नहीं रहे थे। लेकिन जैसे जैसे गुत्थी सुलझने लगी, सीरीज़ मजेदार लगने लगी। सच कहूं तो अंत तक आते आते मैं शुरूआती प्रश्न भूल चूका था, लेकिन हाथीराम को याद थे। उसने अंसारी के हत्यारे को खत्म कर देने के बाद वापिस लौटकर अपने शुरुआती केस को भी सॉल्व किया। जिस लापता को वह खोज रहा था, उसकी लाश मिलने पर उसने फिर से उस नागालैंड वाले केस से कड़ियाँ मिलाई।


    और अंत में उसके हक़ के इतने ही थे, यह लाइन जब आयी, तब मुझे कहानी का सार हक़ ही लगा। इस कहानी में बहुतों के हक़ अटके थे। सबको अपने हक़ का मिला, बस उन दो जनो को छोड़कर, एक अंसारी, दूसरी वो बरवा मेडम। उन दोनों को शहादत के सिवा कुछ न मिला। कहानी में जुड़े लगभग नए पात्र कहानी के साथ साथ खत्म होते गए। और हाथीराम की क्या कहूँ? उसको तो दिमाग में अचानक से ट्युबलाइट जल उठती है, और वो दौड़ पड़ता है, केस सॉल्व करने की दिशा में। मजेदार सिन वो भी था, जब हरयाणा का जाट - हाथीराम चौधरी -  उन नागा प्रदर्शनकियों से अकेला भीड़ जाता है। तब लगता है, कि हाथी बड़ा सही नाम है उसके लिए।


    हाँ ! आज तो साढ़े छह इसी में बजा दिए। सुबह से काम कुछ भी नहीं था। और आजकल लिखना थोड़ा मुश्किल हो चूका है। कल शाम को पोस्ट लिखने बैठा था, तो बात किसी और दिशा में मुड़ गयी, तो उसे उसी ड्राफ्ट में छोड़कर घर चला गया था। रात के ग्यारह बजे फिर से नए सिरे से दिलायरी लिखी। वैसे इस ब्लॉग में भी लेबल्स/केटेगरी में भी काफी बदलाव कर दिए। बहुत सारे ऐसे लेबल्स बन चुके थे, जिन्हे गुजराती में लिखता था तब काम आते थे। हिंदी में उनसे कोई वास्ता न था। तो इस कारण कल उन्हें भी ठीक कर दिया था। फिर भी कुछ कुछ हिंदी लेबल में गुजराती पोस्ट्स रह ही गयी। इतिहास और पत्र का नया हिंदी लेबल बना दिया। इन्ही चक्करों में फंस कर नया कुछ पढ़ नहीं पाता। और आजकल तो रील्स वैसे ही नहीं देखता। इस कारण से बहुत सी बाते या विचार उद्भवते ही नहीं। और फिर लिखना खाली खाली दिनचर्या सा रह जाता है। 


पाताल लोक क्यों देखें?

    हाँ, अब एक बुक है, फिर से पढ़नी शुरू करूँगा, क्योंकि अब फिल्मों से थक लिया। बुक का टाइटल है..  ... अरे प्रियंवदा ! मैं भी कभी कभी बह जाता हूँ। अब क्या बताऊँ, यह लिखते लिखते मैं उस बुक का नाम सही वर्तनी में लिखने के लिए अन्य टैब में खोला, और यहाँ का लिखना रह गया। लगभग आध-पौने घंटा उसे पढ़ने में बीता आया। यह तो अचानक ध्यान गया, कि पहली टैब में क्या खुला पड़ा है, तब जाकर याद आया, कि मैं तो दिलायरी लिख रहा था, और दिलायरी में पाताललोक का रिव्यू। खेर, मेरे हिसाब से तो पाताल लोक देखनी चाहिए। ताकि एक उम्रदराज पुलिसवाले का रोल किये हुए जयदीप अहलावत की अभिनय क्षमता को अपने मापदंडो से जान पाओ। अंत में जब सारे रहस्यों से पर्दा उठ जाता है, तब काफी रोमांच का अनुभव होता है। 


    फ़िलहाल जो पुस्तक हाथ में ली है, दरअसल हाथ में नहीं है। pdf स्वरुप में आर्काइव्ज में मिली। वह है, ईस्वीसन 1936 में, लद्दाख में लेखक ने की हुई शिकार यात्रा पर। हाँ ! यह लद्दाख यात्रा है, लेकिन लद्दाख जाने का उद्देश्य शिकार खेलना था। लेखक एक देशी राज्य के दीवान थे। और उन्हें एक अंग्रेजन द्वारा मिले ताने के कारण उन्होंने लद्दाख में शिकार करने के लिए यात्रा की। बहुत जल्द इसे पढ़कर इस कुछ चर्चाएं लिखेंगे। तब तक के लिए, 

शुभरात्रि। 

(०४/०७/२०२५)


|| अस्तु ||


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प्रिय पाठक,
अगर यह समीक्षा और हक़ की तलाश की यह अनकही कहानी तुम्हारे मन के किसी कोने में दस्तक दे गई हो—
तो अपने विचार ज़रूर बाँटिए।
कभी तुम भी पाताल लोक की गलियों में भटके हो?
या हाथीराम जैसी जिद देखी है कहीं?

नीचे कमेंट में लिखो… मैं इंतज़ार करूँगा।

www.dilawarsinh.com | @manmojiiii

– दिलावरसिंह


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