"डायरी, बारिश और ग्रो बैग्स: एक लेखक की दिनचर्या" || दिलायरी : 08/07/2025

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आज की दिलायरी – दिनभर की बेतरतीब यात्राएं



किताबें, कंप्यूटर और कंट्रोल – एक रचनात्मक संघर्ष

    कल की पोस्ट लिखने के बाद से आज दिनभर कुछ न कुछ लिखता ही रहा हूँ, कुछ पूर्व तैयारियों सा। कुछ अपने दिल के पुराने पन्नो में झांकते हुए। हाँ ! कुछ दिन यदि लिख न पाऊं तो एक नियमितता बनाने के लिए कुछ तो पोस्ट्स ऐसी होनी चाहिए, जिनसे एक नियमितता बनी रहे। प्रतिदिन एक पोस्ट पब्लिश करने का कोई प्रण तो नहीं है। लेकिन जहाँ तक हो सके, कोशिश जारी है इस ब्लॉग पर। यूँ तो २०२४ की इक्कीस अक्टूबर से सतत यह शब्द प्रवाह बहता ही जा रहा है, लेकिन कुछ दिन ऐसे भी तो आएंगे, जिस दिन मैं इस कमालुद्दीन कंप्यूटर के आगे नहीं बैठ पाउँगा, किसी अन्य जीवनी में व्यस्त हो जाऊं, तो वे ड्राफ्ट्स की हुई पोस्ट उस दिन काम आएंगी।


    हाँ ! आज भी मौसम बादल-छांया वाला ही रहा। सुबह आते ही वह बुक रिव्यू वाली पोस्ट पब्लिश की। (वह पोस्ट यहाँ पढ़िए।) और फिर पूरा दिन आराम। और क्या करता? काम वैसे ही इस बारिश की ऋतु में ठंडा ही रहता है। अरे फिर भी, नौकरी, नौकरी होती है। ऑफिस आएं है, तो कुछ न कुछ काम निकल ही आता है। तो सुबह दो बिल्लिंग्स थी, वे निपटा दी। फिर लगा कुछ नया सिखने के चक्कर में। सोचा ms word में कुछ नया एडिटिंग किया जाए। थोड़ी देर बाद उससे ऊब गया। तो सोचा, कल की ही तरह कुछ पढ़ा जाए, ताकि शाम को लिखने के लिए कह तो सकूँ, कि मैं भी पढ़ाकू हूँ। यह पढ़ाकू और डाकू दोनों कितने मिलते-झूलते शब्द है न? तुकबंदी हो सकती है। 


तुम रोज नए पन्नो को पलटो, बड़ी पढ़ाकू लगती हो,

मैं तुमको पढ़ने बैठु तब तो बाघी-डाकू लगती हो..!


बारिश, ग्रो बैग्स और राहुल सांकृत्यायन की यादें

    हाँ, आजकल तुकबंदी ऐसी ही हो पा रही है, बेताल या बेमेल। खेर, उसके बाद जब कुछ पढ़ने के लिए खोज करने लगा, तो राहुल सांकृत्यायन की 'मेरी जीवन यात्रा' हाथ लगी। कुछ पांचसौ पन्ने की है। होंसले तो हमेशा की तरह डगमगा रहे है। क्योंकि वो कागज की किताब स्वरुप में हो, तब तो थोड़ा ठीक भी लगे। सच कहूं तो पीडीऍफ़ पढ़नी थोड़ी मुश्किल तो है। क्योंकि यह दूषण स्वरूपी मोबाइल जैसे जिन्दा हो जाता है। जब भी इसमें कुछ पढ़ने बैठता हूँ, तो यह आँखों आगे इशारे करता है, कहता है, "देख तो जरा, किसीने इंस्टा स्टोरी लाइक की?" मैं इग्नोर मारता हूँ, लेकिन यह मोया छेड़ते ही रहता है। है तो मेरा ही, इस लिए पटक भी नहीं सकता। तो उसकी आँखे(इंटरनेट) बंद कर देता हूँ। तब भी वह रुकता नहीं। कहीं गलती से ऊँगली छूते ही, डाकखाने (मेलबॉक्स) के बगल वाले बंगले (व्हाट्सएप्प) में पटक देता है। वहां तो फिर मन भी ले चलता है, कि लगे हाथ खुल ही गया है तो स्नेही के हाल चल पूछ लूँ?


'मेरी जीवन यात्रा' और आज की अधूरी पढ़ाई

    कंट्रोल उदय कंट्रोल वाली मुठी भींचकर वापिस लौट आता हूँ पीडीऍफ़ पर। पढ़ते- पढ़ते एकाध शब्द तो ऐसा आता ही है, जब उसे गूगल करना पड़े। तभी मुस्काते हुए फिर से मोबाइल कहता है, "मेरे प्रज्ञाचक्षु से जान लो उस शब्द का अर्थ।" उसकी आँखों की पट्टी हटाते ही, फिर तो वो मुझे अर्थ बताने के साथ साथ और भी तरह तरह के लुभावने सन्देश देने लगता है। "गमले महंगे लग रहे है? तो यह सस्ते ग्रो बैग्स खरीदो, और अपनी छत को अर्बन जंगल बनाओ.. पर्यावरण बचाओ.." अब यह ग्रो बैग्स कौनसी बला है? यह जानना भी तो जरुरी है। क्योंकि ताज़ा ताज़ा याद आ जाता है, कि अपने घर के बाहर कुँवरुभा के पहले जन्मदिन पर लगवाया, बिल्वपत्र का पौधा भी बड़ा हो गया है। और उसके बाजू में कोई जंगली पुष्प भी उग आया है। अरे गूगल ने ही तो उस फूल का नाम बताया था, क्या था वो.. क्रीनुम लिली.. पता नहीं, कैसे उग आया। विकिपीडिया के अनुसार तो जहरीला है।


DIY ग्रो बैग्स और पर्यावरणीय जिम्मेदारी

    फिर याद आया, मैं तो ग्रो बैग्स देख रहा था। अपनी छत पर कुछ पौधे-वौधे लगाएंगे। आखिरकार पर्यावरण को बचाने की हमारी भी तो कुछ जिम्मेदारी है। लेकिन यह क्या, यह ग्रो बैग्स के लिए खर्चा क्यों करना? यह तो कट्टे है, बोरे.. वो जो धान भरा जाता है, या वो खाद वाले कट्टे। फिर इनमे क्यों पैसा लगाना.. यह तो घर पर पड़े ही होंगे। तो आज तय रहा। घर पर ही DIY ग्रो बैग्स बना लूंगा। तभी किसी रील की नोटिफिकेशन आयी। फिर तो आधा घंटा कब निकल गया? लंच ब्रेक। मोबाइल रखा जेब में, और गजे के साथ चल पड़ा, मार्किट की और। लेकिन बारिश को भी यही समय एलोकेट हुआ होगा। बरस पड़ी। हम वापिस लौटे। उलटी दिशा में वो बिहारी के समोसे आरोगने। ऑफिस आया, पूरा भीग कर।


    याद आया, तीन-चार दिन हो गए, कसरत तो की ही नहीं है। ऑफिस में ही चक्कर मार लिए जाए। ताकि हजम भी हो जाए, और चलना भी। चलते चलते विचार भी तो आते है, सोचा इन्हे कागज पर उतार लिए जाए। कागज़ माने डिजिटल पन्ना। कंप्यूटर का। फिर ३-४ पोस्ट्स लिख दी। उनसे फारिख हुआ तो याद आया, आज की दिलायरी भी अभी से लिख ही लेता हूँ। ताकि बाद में गजा भी परेशां न कर पाए, और घर पर कुंवरुभा भी। तो जब यह लिखने बैठा तब जाकर याद आया, मैंने तो मोबाइल वो बुक पढ़ने के लिए उठाया था। 


चश्मे पर बूँदें और आंखों में विचार – एक लेखक की शाम

    बहाना जिंदाबाद, अब तो साढ़े सात बज गए। अब तो बुक पढ़ने से रहा। दिनभर निकल गया, ऐसे ही। इधर उधर की बातों में, कामों में। वैसे अभी आसमान के बादल छंट गए है। लेकिन ये भी कुछ ही देर में रीइंफोर्स्मेंट लेकर कभी भी हमला कर देते है। ख़ास कर शाम के समय। आज तो अभी तक शांति-समझौते का पालन कर रहे है। लेकिन कोई भरोसा नहीं। अपनी और से पूर्वतैयारियाँ रखनी चाहिए। अभी अभी याद आया। मैंने आजतक कभी भी रेनकोट लिया ही नहीं। पता नहीं, शायद भीगकर पहुँचना पसंद है। भीगने से याद आया। चालू बारिश में घर जाने में सबसे बड़ी समस्या मुझ से चश्मा वालों को होती है। एक तो यह चश्मा पर पानी की बुँदे लगातार बहती रहती है। ऊपर से सामने वाले वाहनों की लाइट जब लगती है, तब तो चौंधियाने पर चार चाँद ही लग जाते है।


    खेर, यही था आज का दिन। अभी तक उस 'मेरी जीवन यात्रा' का पहला पेज भी पूरा नहीं कर पाया।

    शुभरात्रि।

    (०८/०७/२०२५)

|| अस्तु ||


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– दिलावरसिंह


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