प्रमाणपत्रों के जंगल में खोया जीवन : मेरी कार, मेरे विचार
प्रियंवदा ! जिंदगी प्रमाणपत्रो और पहचान पत्रों के अलावा है क्या? इनके अलावा तो जैसे कोई जीवित ही नहीं है? हैं न? देखो, जन्मते ही एक ठप्पा लग जाता है, जन्म-प्रमाणपत्र का। थोड़े बड़े हुए तो तुरंत यह आधार-कार्ड बन जाता है। स्कूल में दाखिला लिया, पढ़ लिया, कि स्कूल लिविंग सर्टिफिकेट चाहिए। अठारह के हो गए, तो ड्राइविंग लाइसेंस, और चुनाव पत्रक..! कहीं नौकरी के लिए चाहिए रिज्यूमे.. वह भी एक प्रमाणपत्र ही तो है। नौकरी लग गए, अब शादी.. तो मेरेज सर्टिफिकेट के बिना तो आप हो ही कंवारे..! अब परिवार हो गया, तो राशनकार्ड भी तो लगेगा। उसकी लाइन में लगो..! कमाने लग गए, इनकम के विषय में सरकार को भी तो पता होना चाहिए, पैन कार्ड बनवाओ..! अब सरकार को भी तो सूचित करना होगा, कि मेरी आय उतनी नहीं है कि आयकर भरूँ..! इस लिए 'नील' का इनकम टैक्स रिटर्न्स भी तो बनवाने पड़ेंगे प्रतिवर्ष..! क्योंकि यह नहीं होंगे तो लोन कौन देगा?
क्या प्रमाणपत्रों के बिना हम हैं ही नहीं?
कोई प्रॉपर्टी खरीदी.. फिर तो मामलतदार कचहरी के सामने अपना टेंट ही डाल लो..! क्योंकि वहां तो ढेरो प्रमाणपत्रो की रेल लगनी है। शादी टूट गयी? डिवोर्स का सर्टिफिकेट तो लेना पड़ेगा.. एलीमोनी भी, अगर पुरुष है तो..! क्योंकि स्त्री तो अपने पैरो पर खड़ी होती नहीं। मर गए तब भी डेथ सर्टिफिकेट लगेगा..! जब तक मृत्यु का प्रमाणपत्र नहीं मिला, आप यकीन मानो आप जीवित ही हो। कोई भी प्रमाणपत्र नहीं है, मतलब आपका कोई अस्तित्व ही नहीं है। और डेथ सर्टिफिकेट नहीं है, मतलब आप मरे ही नहीं हो.. बस अश्वत्थामा की तरह अमर होकर गायब हो चुके हो। वो पढाई लिखाई वाले प्रमाणपत्रो का जत्था तो अलग ही है..! और अब तो डिजिटल प्रमाणपत्र भी मिलने लगे है।
प्रियंवदा ! तुम्हे लग रहा होगा, आज यह प्रमाणपत्रों के पीछे क्यों पड़ गया? तो बात ऐसी है, कि मेरी कार का इन्शुरन्स ख़त्म होने वाला है। मुझे कार की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन मेरी बड़ी तमन्ना थी, कि मेरे पास भी एक कार होनी चाहिए। कार से मेरा मतलब था, बस चार पहिये। मेरे लिए तो स्कॉर्पियो और आल्टो में कोई अंतर नहीं है। दोनों ही एक स्थान से दूसरे स्थान, जाने के लिए उपयोग में आने वाला एक साधन मात्र है। मैंने जब कार लेने की सोची थी, तब का किस्सा बताता हूँ। हुकुम का कहना था, कि कार जीवन में एक बार लेनी होती है, तो अच्छी ले। थोड़ी बड़ी होनी चाहिए, और थोड़ी शानदार। वो दबदबा टाइप। जबकि मेरा मानना था कि लूंगा तो आल्टो ही.. या फिर उतनी ही साइज की। मेरा एक अंदाज था, कि उतनी उपयोगिता तो है नहीं, जितनी इन्वेस्टमेंट हो जाएगी? यहाँ की ट्रैफिक में बाइक ही निकलती है।
S-PRESSO: मेरी माचिस जैसी पटरानी
तो मैंने २०१९ में जन्माष्टमी के दिन S-PRESSO खरीदी। वही हुआ, हुकुम ने कहा, "यह संकड़ी ही लेनी थी तो नेनो लेकर जेब और बचा लेता..!" लेकिन दुनिया में यही निभाया जाता है, कि 'राजा को पसंद आए वो पटरानी'.. मेरे लिए S-PRESSO पटरानी थी। बिलकुल छोटी सी गाडी.. माचिस जैसी। कहीं से भी निकल जाए। और मैंने उसे भी कहाँ नहीं चलायी है? खेत में, नमक के क्यारो में, पहाड़ी की चोटी पर.. यह चुहिया जैसी कार कहीं भी चल जाती है। लेकिन तब भी, यह घर के बाहर खड़ी ही रहती है। ऑफिस आना-जाना मैं बाइक से करता हूँ। हुकुम को तो आती नहीं, क्लासेज करने के बावजूद। तो हाल ऐसा है, पांच वर्षों में पटरानी जी केवल १९००० किलोमीटर ही तय कर पायी है।
खर्चे जो खड़े-खड़े भी चलते हैं
यह पटरानी जी, खड़े खड़े भी खर्चे तो करवाती ही है। कार शायद इसी कारण से स्त्रीलिंग है। क्योंकि यह खर्चा करवाती है। साल में एक बार जनरल सर्विस होती है, लगभग पेंतीससो रूपये। और इन्शुरन्स लगभग दस हजार के आजुबाजु। और इस बार तो कुछ-कुछ रोड ट्रिप स्योर होती जा रही है, इस कारण से भी थोड़ा ज्यादा ध्यान दे रहा हूँ। यही अगर मैंने वो दबदबा वाली कार ली होती, तो यह खर्चा लगभग चालीस हजार के आसपास पहुँचता। जो मात्र घर के बाहर खड़ी रखने के लिए होता। हुकुम को जब यह केलकुलेशन समझाता हूँ, तो मुझे कहते है, 'यह चिन्दिगीरी मुझे मत समझाओ.. बाजुओं में बल होना चाहिए - पालनपोषण करने का।' अब उन्हें यह बात कैसे समझायी जाए कि उनका दौर अलग था, हमारा समय अलग है।
जंग, जज़्बात और जरा-सी coating
खेर, अपने यहाँ ठहरा खारा क्षेत्र.. लोहे को जंग से अनहद मुहब्बत है। कार का निचला हिस्सा जंग को पनाह दे चूका है। तो उसपर कोटिंग करवानी अनिवार्य है। आज सुबह गजे को सीधे सर्विस स्टेशन पर बुला लिया। ठीक नौ बजे ऑफिस के बजाए आज सर्विस स्टेशन पहुँच चूका था मैं। जनरल सर्विस और कोटिंग के लिए सौंपकर, ऑफिस आ गया। दिनभर आज भी खालीपन से भरा गुजरा है। दोपहर को फिर से ढाबे की और प्रयाण कर गया, दाल-फ्राई और जीरा-राइस का सेवन कर कुछ देर ऑफिस में ही टहलता रहा। फिर वज्रासन किया। हाँ ! आजकल घंटो तक कुर्सी पकडे बैठा नहीं रहता। प्रत्येक तिस मिनिट पर तिस फिट की दूरी पर तिस सेकण्ड तक देखता हूँ। और थोड़ी थोड़ी देर में कुर्सी छोड़कर ऑफिस में ही इधर-उधर टहल लेता हूँ। शायद यही कारण है कि बीते दो दिन की दिलायरी खाली रही।
अकेलेपन की दस्तक और मन की उलझनें
प्रियंवदा ! वैसे खालीपन का एक और कारण यह भी है, कि आजकल बहुत अकेलापन अनुभव हो रहा है। अकेला नहीं होता हूँ तब भी। पता नहीं मन किस निराशा की शरण जा पहुंचा है, जो उसे छोड़ ही नहीं रही। कहीं भी, किसी भी विषय में मन नहीं लगता है। कोई अनजान चिंता मन को कब्ज़ा चुकी है। न जाने क्यों? न जाने कब छूटेगा यह मन.. जो मेरा होते हुए भी मेरे नियंत्रण में नहीं। सतत कौनसी चिंताओं का बोझ लिए घूम रहा हूँ, यह मैं भी नहीं समझ पा रहा हूँ।
क्रेडिट कार्ड : मोहलत या मायाजाल?
खेर, कार का इन्शुरन्स तो अगले महीने है, लेकिन इसी महीने रिन्यू करवा लूंगा, ताकि अगले महीने भीड़ न लगे खर्चो की। काश खर्चो का भी कोई प्रमाणपत्र होता। आय के अनुसार.. उससे अधिक हो ही न पाए। लेकिन नहीं, इस मसले में तो क्रेडिट कार्ड नामक बहरूपिया बना रखा है व्यवस्था ने। जो बोलता है, 'अरे बाद में दे देना.. अभी तो तुम खर्चा करो..' मंथली एक्सपेंसिज़ को क्रेडिट कार्ड सॉल्व करने के बदले इधर-उधर कर देता है। और सीधा-सादा हिसाब भी गोल-मटोल हो जाता है। सीधा हिसाब तो यह है, की मेरे पास दस रुपए है, जिसे मुझे खर्च करने है। लेकिन तब यह क्रेडिट-कार्ड आ जाता है। जहाँ खर्च की व्यवस्था है, लेकिन असल में रूपये नहीं है। बस आपको पेंतालिस दिन की मोहलत दे देता है। और पेंतालिस दिन के बाद आपको दस के सिवा बारह रूपये और देने है। जो आपने क्रेडिट कार्ड से खर्च कर दिए।
कोई ऐसा प्रमाण पत्र भी होना चाहिए प्रियंवदा ! जिसमे धोखाधड़ी का लेसमात्र न हो। कितना जीवन सरल हो जाए? लेकिन सरल हो तो फिर जीवन कैसा? चलो फिर, आज कमेंट सेक्सन में मुझे भी कोई प्रमाणपत्र दे दो, जिसमे मेरे भी मन की निराशा उतरने की बात हो।
शुभरात्रि।
१८/०७/२०२५
|| अस्तु ||
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– दिलावरसिंह
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जीवन सिर्फ दस्तावेज़ों में ही क्यों सिमट गया है? जब कार भी भावनाओं की साथी बन जाए, तो दिलायरी कुछ और ही कहती है...
aapke posts ki nirantarta hi aapka pramadpatra hai !!
ReplyDeleteBahut Bahut Shkriya..!
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