तोंदधारी योग और अंगूठों की दुश्वारियाँ
प्रियंवदा ! तुम्हारा पत्थरदिल पिघले न पिघले.. लेकिन आज मधुमालती ने अपना पहला फूल जरूर खिलाया है। वैसे प्लांट तो मैं कलियाँ लगी हुई ही लाया था। लेकिन वे कली में से एक खिली आज सवेरे। सुबह जब आज ग्राऊंड में पेस वाक करने के बाद सूर्य नमस्कार कर रहा था, तो एक पहचान वाला आया। बोला, 'घुटने सीधे रखकर हाथो की हथेलियां जमीन से सटाओ।' बताओ प्रियंवदा ! यहाँ मैंने बड़ी मुश्किल से शरीर को कंट्रोल में लाने के लिए महेनत शुरू की है, और लोग एक्सट्रीम करवाने पर तुले है। अरे मैं काफी महेनत के बाद अब बिना घुटने मोडे पैर के अंगूठे छू पा रहा हूँ, जमीन पर हथेलिया सटाना तो अभी काफी दूर है। हालाँकि मेरे कहने पर जब उन्होंने अपने पैर के अंगूठे पकडे, तब उनके घुटने मुड चुके थे। नहीं होता प्रियंवदा, तोंद-धारीयों के लिए अपने पैर के अंगूठे पकड़ना बड़ा जटिल काम है। लगभग पौने घंटे के इस तोंद-घटाओ-आंदोलन से घर वापिस लौटा, तब समय हो चूका था साढ़े सात।
मधुमालती का पहला फूल : एक नन्ही जीत
सवेरे सवेरे आजकल कुछ देर अपने नए नवेले शौख के कारण पौधों के पास बैठता हूँ। उन्हें देखता हूँ, हररोज उनमे कुछ बदलाव दीखते है। कुछ नयापन अनुभव होता है। तभी देखा कि मधुमालती में एक फूल आया है। सदाबहार के फूल से मिलता-जुलता, सफेद। चार पंखुड़ियां और केंद्र में परागदंड। इसने तो घुलनेमिलने का बहाना ढूंढ लिया है। वैसे भी बेल थोड़ी सरल ही होती है उगाना। गेंदा टस का मस नहीं हो रहा है लेकिन। नए पत्ते तो आ रहे है। लेकिन विस्तारण नहीं ले रहा। जैसा था वैसा ही मालुम होता है। बाकी वो कुछ नन्हे-मुन्हे गुलाब जैसे फूलों वाले अच्छा विकास साध लिए है। वे कुछ कुछ केंचुए से पड़ते है। कहीं से ही तोड़ कर जमीन में लगा दो, तुरंत उगने लगते है। दीवार पर टंगे वे सदाबहार भी फूल खिलाने लगे है। हालाँकि उनका तो नाम ही सदाबहार है।
गार्डनिंग और माताजी का गमबूट जुगाड़
मेरे घर पर एक गमबूट्स पड़े थे। वो घुटने तक पैर चले जाए वे वाले जूते, और तो कहीं काम आते नहीं, तो उसमे भी माताजी ने मिट्टी भर दी। घर के पास ही एक खाली प्लाट में चार-पांच आम उग आए थे। तो वे नन्हे पौधे बूट में बड़े हो रहे है अब। यह वाला जुगाड़ देख सुबह सुबह खूब हँसी आई। खैर, नौ बजे ऑफिस पहुँच गया। आज भी कुछ काम नहीं है। जब होता है, तो साँस लेना भूल जाए उतना काम होता है। और जब नहीं होता है, तो बिलकुल नहीं। खाली ही बैठा था, तो खाली दिमाग बस खर्चा करने की ही सोचता है। कुछ बुक्स ध्यान में है मेरे। जो पढ़नी है मुझे। प्रायोरिटी पर तो फ्री की पीडीऍफ़ ही रहती है। लेकिन जो पीडीऍफ़ मिली है, वह पढ़ने लायक है नहीं। तो मजबूरी है कि खरीदनी ही पड़ेगी।
किताबें और महंगे ज्ञान की विडंबना
गुजराती में एक कहावत है, "घाट करता घडामण मोंघु". अर्थात कोई चीज है, लेकिन उस चीज से ज्यादा भाव तो उस चीज को बनाने की प्रक्रिया का है। ऐसा ही कुछ इस बुक को आर्डर को करते समय हुआ। बुक की कीमत है ३५०, और बुक की डिलवरी की कीमत है १५०.. डेढ़ा भाव हो गया सीधा सीधा। तीन बुक मंगानी थी मुझे, लेकिन १०५० के बदले १५०० रुपए चुकाने के बोल रहे है। बताओ.. जबकि सेलर एक ही है.. फिर भी तीनो बुक पर अलग अलग डिलीवरी चार्ज वसूल रहा है। ऐसी लूट पहली बार देखी है। शायद बुक ओल्ड है, और डिमांड ज्यादा होगी, यही कारण होगा। खेर, इतना महंगा ज्ञान नहीं चाहिए मुझे। मैंने आर्डर किया ही नहीं। सच में कुछ चीजों में, बातों में कोई लॉजिक होता ही नहीं है। और कुछ व्यक्तियों में भी..! कईं बार नाक काटी हो, तब भी समझते नहीं। एक व्यापारी है, कईं बार मना किया है, की मेरे चैंबर में मत बैठिए। लेकिन च्युइंगगम की तरह चिपक जाता है। और मुझे यह लिखते-लिखते रुकना पड़ता है।
पत्ता, ग्राउंड और टेढ़े मोटिवेशन की कहानी
अकेलेपन से ग्रसित हो चला हूँ मैं प्रियंवदा ! फिर अब उसके तोड़ स्वरुप पत्ते को कॉल लगा लेता हूँ। उससे बात हो जाती है, थोड़ा मन शांत हो जाता है। कल रात जब ग्राऊंड में बैठे थे, तो पत्ते ने भी जोश जोश में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता दिखाई, और बोला, 'मैं भी सवेरे ग्राउंड में आऊंगा।' हालाँकि कुत्ते की दुम सीधी नहीं होती कभी भी। आज सुबह उसको फ़ोन करने के बावजूद नहीं आया। तो अभी कुछ देर पहले उससे बात की। कुछ लोगो को मोटिवेशन की बहुत जरुरत पड़ती है। और कुछ लोगो के लिए बस डर ही सबसे बड़ा मोटिवेशन होता है। मुझे डर का अनुभव हुआ तब, मैंने तुरंत ही अपनी दिनचर्या में ढेरों बदलाव कर लिए। लेकिन पत्ता नहीं कर पाएगा। उसे मोटिवेशन चाहिए होगा। और ग्राउंड में उसके लायक एक मोटिवेशन आता है। पुरुषत्व भी एक कुत्ते की दुम ही है। वैसे ऐसा कोई प्रतिबन्ध भी तो नहीं है। लेकिन बस मन बहलाने के लिए भी तो कुछ चाहिए। तो बस, हररोज सवेरे उस ग्राउंड में आती एक सुंदरी पत्ते के लिए मोटिवेशन बन जाएगी। कुछ टेढ़े लोगो के लिए मोटिवेशन भी टेढ़ा चाहिए होता है।
छिपकली का संसार : खिड़की की छोटी सी दुनिया
मौसम का तो तुम्हे क्या बताऊँ प्रियंवदा? शाम होते होते ऐसी ठंडक होने लगती है, कि जैसे भूखे को पिज़्ज़ा मिला। दिनभर कभी बादल, कभी धूप, और थोड़ी तेज हवाएं चली है। एक हाथ दूर खिड़की के पास दीवार पर दो छोटी छोटी छिपकलियां है.. मख्खियां, और मच्छरों का बड़े चाव से स्वाद ले रही है। है तो छोटी सी, लेकिन अभी देखा मैंने, एक पूरी मक्खी निगल गयी। मुझे लगा था, कोर करेगी, लेकिन नहीं। इसका मुँह काफी खुलता है। सच में प्रकृति सब कुछ संतुलित करती है। अरे प्रियंवदा ! छिपकली के पंजे में भी हमारी ही तरह पांच अंगुलियां होती है। वैसे इसका रंग कुछ अलग है। काले रंग के पट्टे बने हुए है। आम तौर पर लाइट खाखी रंग की होती है। हाँ ! आखिरकार इसे भी कोम्प्लेन नहीं मिला, वरना यह भी मगरमच्छ होती। नजदीक से देखने पर तो यही मालुम पड़ता है। पूरा दिन मेरी इसी खिड़की पर ही बैठी रहती है। या तो अपने शिकार पर ध्यानमग्न दिखाई पड़ती है, या फिर खिड़की से बहार दिखती दुनिया को देखने में मशगूल।
कभी कभी मुझे लगता है, इनका भी क्या ही संसार है। कुछ गज में ही उनकी सारी जीवनी सिमटी हुई है। उसके लिए तो हम हाथी से भी बड़े है। कईं बार यह मेरी कंप्यूटर स्क्रीन पर अचानक से आ जाती है। शायद सामने से हाल-चाल जानने आती है। जो तुमने कभी नहीं पूछा प्रियंवदा। कभी तो सामने से पूछ लो.. कुछ भी..!
शुभरात्रि।
२३/०७/२०२५
|| अस्तु ||
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– दिलावरसिंह
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