कर्म, फल और कृष्ण : आत्मसंघर्ष की गहराई
प्रियंवदा ! कईं बार मन यूँ सोचकर मायूस हो जाता है, कि इतनी मेहनत की, किन्तु फल कहाँ है? जब दूर दूर तक फल या फल लगा हुआ वृक्ष भी न दिखाई पड़े, तब हमें याद आता है कृष्ण-वाक्य। 'तू कर्म कर, फल की चिंता मत कर।' हालाँकि मेरे पास ऑप्शन भी तो नहीं है, कुछ मेरे कर्मों के फल का। न फल मिल रहा है, न हल। वैसे कृष्ण ने तो असत्य भी खूब बोले है। कहीं मुझसे भी? नहीं नहीं.. उनके असत्यों में भी एक फल तो होता ही है। लगता है, मेरे वाला फल जो डिलीवरी कर रहा है, वह भी मेरी तरह आलसी है। यही कारण होगा, कि मेरे कर्मों का फल विलम्बित हुए जा रहा है। अच्छा कल वो जो मधुमालती के पुष्प के विषय में लिखा था न (आपने नहीं पढ़ा? यहाँ पढ़िए), एक पंखुड़ी खुली और श्वेत पुष्प खिला, वो आज श्वेत नहीं था, लाल हो चूका था। मैं तो इसका जेठ भी नहीं लगता, फिर काहे लज्जा से लाल हुई होगी?
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अँधेरे में तीर चलाओ..! |
ब्लॉगिंग की तन्हाई : पाठक की प्रतीक्षा
अब क्या करें प्रियंवदा ! नौकरी करता आदमी, नियत समय पर पहुंचना सीख ही जाता है। तो ठीक नौ बजे ऑफिस पर था मैं। वही नित्यक्रम, बीते कल की पब्लिश हो चुकी दिलायरी को दो-तीन जगह शेयर करो। लेकिन एक मनोकामना अधूरी ही रहती है। वह है भीड़ की। २-३ साल हो गए इस ब्लॉग को, लेकिन पाठक नहीं जुड़ रहे है। गिनती का एक स्नेही है। जिस दिन वह गैरहाजिर हो, ब्लॉग की दुकान पर मैं अकेला मख्खियां उडाता बैठा रहता हूँ। मैं बार बार यह भूल जाता हूँ, कि मैंने यह ब्लॉग सिर्फ मेरे अपने लिए बनाया है। समय समय पर मुझे याद दिलाते है वे स्टैटिक्स.. जो शून्यता से सजे है।
शौक का मूल्य : बगिया या महँगा सपना?
प्रियंवदा ! तुम्हे पता है, आदमी खाली न रहे, इस लिए तमाम प्रकार से शौख का व्यापारीकरण हो चूका है। ऐसी कौनसी क्रिया है, कौनसा कर्म है, जिसका मूल्य या किम्मत नहीं है? कुछ भी करो, सब की एक निश्चित कीमत चुकानी पड़ती है। यह भी अनुभव से ही लिख रहा हूँ। शिक्षा प्राप्त करनी है, तो मूल्य देना होगा। भोजन भी मूल्य मांगता है। अरे भोजन पाचन बाद मल है, वह भी कुछ लोगो के लिए मूल्य है। सीवेज-वर्क से जुड़े लोगो के लिए आय का साधन है मल। जिसे हम यूँही त्याग देते है। खेर, यह बागवानी का शौक पाला, तो फिर कुछ क्रिएटिव भी होना पड़ेगा न? तो पहले तो यूँही क्रिएटिविटी के नाम पर कबाड़ से गमले तैयार किए। मिट्टी खरीदी, और पौधे खरीदे।
शौख के लिए खर्चा हो रहा है, सोचना तुम प्रियंवदा। मिट्टी और पौधे में जितना खर्चा हुआ, उतने में एक बढ़िया होटल में एक टाइम का भोजन हो सकता है। गमले, मिट्टी और पौधे से बात पूरी नहीं हुई। क्योंकि यह तो आरम्भ है। खाद भी तो चाहिए पौधे को। जैसे हमें हफ्ते में एक बार पंजाबी खाना चाहिए होता है। खाद खरीदना पड़ता है। वो थोड़ा महंगा है। मतलब एक और टाइम का अच्छी होटल में खाने बराबर खाद की कीमत हुई। अब गमले, मिट्टी, पौधे और खाद हो गया, अब उन्हें ठीक से सजाना। गमले तो कबाड़ की प्लास्टिक के कैन है। वो तो भद्दे दीखते है। तो उन्हें रंगरोगन करना चाहिए। ऐसा-वैसा कलर तो चलेगा नहीं.. चाहिए एक प्लास्टिक पेंट। मतलब तीसरे वक्त के खाने की कीमत गयी कलरकाम में।
गार्डनिंग का नया बाज़ार
देख रही हो प्रियंवदा ! आदमी तीन समय के भोजन की किम्मतें मौजशौक में उड़ा रहा है। खेर, अब यह क्रिएटिविटी तो हो गयी। अब आगे? इंतजार.. फूल खिलने का। अब यह कबाड़ी वाले गमले अच्छे नहीं लग रहे। मिट्टी से बने गमले होने चाहिए। भला सुंदरता, सुघड़ता, और सुव्यवस्थितता नामकी भी कोई चीज होती है। जरुरी भी तो है, तभी तो वे अनिवार्य है। अब एक मिट्टी का गमला बराबर एक बढ़िया फेंसी रेस्टोरेंट का लंच। पांच गमले हो गए पांच दिन का खाना-खर्चा। या फिर एक फुल फेमिली डिनर। या फिर बिस की माइलेज से २०० किलोमीटर घूम आ सकते है, बाई-कार। यह कुछ कंजूसी वाला गणित नहीं हो गया प्रियंवदा?
बात हो रही थी मूल्य की.. तो यह फूलपौधे मैं लगा ही रहा था, तो सोचा गार्डनिंग के विषय में और जानकारियां ली जाए। तो कुछ सर्फिंग करते करते ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स तक पहुँच गया, बीज के पैकेट्स, खुरपी, ग्रो बैग्स, रेडी टू ग्रो प्लांट्स, गमले, तरह तरह के खाद, नीम की खली, कोकोपिट्स, ग्रीन डाइट्स, बोन, फिश, फंगस प्रोटेक्शन, ग्लव्स, गमला रखने के लिए स्टेण्ड, पानी देने का कैन, प्रूनिंग और कटिंग करने के लिए कटर, और गाइड बुक्स.. क्या क्या नहीं बेच रहे है लोग..! क्यों? क्योंकि कुछ लोगो ने शौक पाला है। जमीन नहीं है, तो छत पर फार्मिंग करने का। मैं मूर्ख हूँ, मेरे पास जमीन है, लेकिन पिछले ३० सालों में कभी सुध नहीं ली जमीन की। और चला हूँ शहरी घर में मिनी-गार्डन बनाने।
समाज और संबंध : मर्यादाएँ टूटती क्यों हैं?
प्रियंवदा ! एक बात और आज महसूस हुई। कईं बार हम बात करते करते सब कुछ भूलभाल कर ऐसी जगह पहुँच जाते है, जहाँ एक असहजता सामने खड़ी मिलती है। एक अलिखित नियम है। हमउम्र या एक से विचार वाले किसी भी टॉपिक से आरम्भ कर किसी भी टॉपिक तक पहुँच सकते है। जैसे ग्राउंड में जब हमारी तिकड़ी जमती है, तो फिर हम लोग सूर्य की उष्णता से लेकर शिलाजीत की गर्मी तक, ट्रंप के TACO से लेकर सरपंच ने निगले रोड तक, अंटार्टिका के पेंग्विन्स से लेकर हिमालय के YETI तक, समाधी की साधना से लेकर सम्भोग की एकाग्रता तक.. बिलकुल सहजता से सरलता से, और बिना झिझक के बातें कर जाते है। लेकिन वहीं अगर कोई और हो तो ध्यान रखना पड़ता है, और रखना चाहिए भी।
ऐसा ही हुआ, एक मित्र से बात करते हुए टॉपिक चल दिया असहजता की ओर..! और वहां से वापिस मुड़ना बड़ा दुस्वार हो गया। जैसे दौड़ती हुई कार में सड़न ब्रेक लगा.. सड़न ब्रेक ही नहीं, हैंडब्रेक भी। कईं बार ऐसा होता है, फ्लो फ्लो में इतना बह जाते है, कि किनारा बड़ा दूर रह जाता है। वहां डूब गए तो बस, खत्म। या फिर पुनर्जन्म। अपने यहाँ तो पुनर्जन्म की फेसेलिटी मिलती है। बात भी तो विचित्र थी, उदाहरण के तौर पर कहूं तो जैसे पुरुष कुछ बंधनो में रहकर भी बाहर मुँह मार ही लेता है। उसी तरह स्त्रियां भी करती है। बस पुरुष का मामला सहज हो चूका है, लेकिन स्त्री यदि कहीं और भी संबंध रखे तो अनर्थ हो जाता है। जैसे पुरुष बहु-पत्नीत्व कर लेता था, या कर पाता था। लेकिन स्त्री के लिए आज भी वर्ज्य माना जाता है। कुछ उदाहरण छोड़ देते है तो। पांचाली के पांच पति थे, उसके अलावा बहुत काम उदहारण मिलते है।
गाँव की संस्कृति और विषाणु
स्त्रियां भी विवाह उपरांत और संबंध रखती है, यह हमें अपने आसपास दृष्टि-विस्तारण करने से अनुभव होता है। शहरों में ख़ास, अब तो गांव भी वे संस्कारों से सिंचित नहीं रहे है। मैंने मित्राचारी में कुछ गाँवों का भ्रमण किया है। कुछ दिन रुकने पर पता चला, किसी की पत्नी किसी और पुरुष के साथ व्यस्त है। किसी का पति किसी और की पत्नी के साथ व्यस्त है। और बात तो यहाँ तक बिगड़ी हुई मुझे मालुम हुई, कि एक ही सरनेम के स्त्री पुरुष भी.. एक ही शाखा के दो लोग तो एक ही पूर्वज की संताने है। फिर भी वह मर्यादा त्याग दी गयी। यह एक विषाक्त किटक है, जो धीरे धीरे सामाजिक बंधनो को कुतर रहा है, और शेष रहेगा केवल व्यवस्थाओं का अस्थिपिंजर। इससे कोई अछूता नहीं है। पुरुषत्व तो कतई नहीं। क्योंकि पुरुषत्व को बहु-पत्नीत्व का अमर्यादित वरदान प्राप्त है। जैसे जंगल राज है, कईं सारी शेरनियां एक शेर के साथ रहती है।
प्रियंवदा ! समय रहते उन बातों पर ब्रेक लग गया। अन्यथा मैं तो हूँ ही मूर्ख। क्योंकि मेरे भाथे में हर प्रकार के बाण रहते है। जब आमने सामने तीर मारने की बात हो, तो मैं निःशस्त्र होता हूँ। लेकिन अँधेरे की आड़ में मेरा भाथा भी अक्षयपात्र सा है, कितने ही चला सकता हूँ। कितने ही शब्द अनियंत्रित होकर निकल पड़ते है। बेरोक। बेलगाम। अमर्यादित। बस मुक्त पवन के साथ उड़ता हुआ, कपास के फुल से निकला हुआ एक तंतु..!
शुभरात्रि।
२४/०७/२०२५
|| अस्तु ||
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मधुमालती के श्वेत से लाल होने की बात आपने वहाँ शुरू की थी — इसे यहां जोड़ना ज़रूरी है। - कनेर के फूल, जेड प्लांट और बागबान दिल
बागवानी और पौधों के प्रति आपके जुड़ाव का यह लेख भी सुंदर विस्तार है। - रील्स, गार्डनिंग और कुत्ते: प्रियंवदा डायरी
गार्डनिंग पर एक और संवादात्मक डायरी — जो इस लेख से सजीव रूप से जुड़ती है। - वीर शिला, पत्थर और साम्प्रदायिक विवाद – बसनपीर
"मर्यादाओं के पत्थर, कई बार दिलों से भी भारी होते हैं...!
प्रिय पाठक !
"क्या आपने कभी अपने शौक को गिनती के पैसों से तौला है? या किसी फूल के बदलते रंग से जीवन की पीड़ा को महसूस किया है? अगर हाँ, तो बताइए... आपकी दिलायरी क्या कहती है? अपनी कहानी मेरे साथ साझा करें — क्योंकि पढ़ना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है पढ़े जाना।"
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– दिलावरसिंह