पत्थर, छतरी और स्मृति : वीरगाथा से कौमी संघर्ष तक || दिलायरी : 22/07/2025

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पत्थर पर लिखी वीरगाथाएं और छत से बरसे पत्थर – एक विरोधाभास की कथा



पाषाण : प्रकृति का मौन साक्षी

    प्रियंवदा ! सदियों से कोई एक मूक साक्षी बना हुआ मौजूद है, हमारे बिच.. जिसने सब कुछ देखा होगा। मानव उत्क्रांति से लेकर, विश्वयुद्धों तक। इस पृथ्वी पर पलटते वातावरणों को उन्होंने अनुभव किया होगा। कभी वे राम के भी काम आए थे, तो कभी उन्हें कोसा भी गया। कभी उन्हें पूजा भी गया, तो कभी उसे शस्त्र बनाकर किसी को हताहत भी किया गया। उन्होंने अपना रूप बदला, तो कभी वे अकाट्य भी रहे। वे पत्थर है। शायद पृथ्वी के आरम्भ से लेकर आज तक.. अपना एक अस्तित्व लिए। वे पत्थर जो कभी पानी पर तैर गए, तो कभी किसी दीवाने पर बरसे भी। वे पत्थर जो कभी मार्ग के अड़चन बने, तो कभी कहीं सिन्दूर के रंग में स्थापित भी हुए। वे पत्थर, जो बाड़ भी बने, महल भी। 


    विज्ञान की दृष्टि से पत्थर के तीन प्रकार है, ज्वालामुखी की राख तथा लावा से बने वे 'आग्नेय' .. जैसे कि ग्रेनाइट। समय के साथ साथ मिट्टी, रेत और जीवाश्म जमकर बने वे 'अवसादी'.. जैसे कि सैंडस्टोन। और तीसरा प्रकार 'रूपांतरित' - जो पहले से बने पत्थरो पर ताप और दबाव से रूपांतरित हुए वे, जैसे कि संगमरमर। कुछने इतनी कठोरता प्राप्त की, कि लोहे को काट दे, तो कुछ इतने कोमल भी बने की नाखून से खरोंचे जाए। भारतवर्ष के तमाम प्राचीन मंदिरों की आत्मा यह पत्थर ही तो है, खजुराहो का कैलाशमंदिर। कभी कभी लगता है, पृथ्वी पर सबसे सहनशील कोई है तो वह पत्थर ही है। शिल्पकार चाहे तो उससे मूर्ति बना ले। वर्ना धोबीघाट पर भी तो एक पत्थर पड़ा ही रहता है। 


स्मृति शिलाएं : परंपरा और श्रद्धा के प्रतीक

    पत्थर के नाम पर पूरा एक युग माना गया है, पाषाणयुग। मानव-उत्क्रांति का एक अहम भाग। अशोक ने इन पत्थरो पर ही तो आदेश लिखवाए थे। एक ऐसा ही पत्थर है, जिसे वीरों की याद में खड़ा किया जाता है। बदलते युग में, शहरों के व्यस्त जीवन में, बिना किसी ख्याल-खबर के, वे पत्थर आज भी कहीं न कहीं खड़े है। आसपास घास उग चुकी है, झाड़ियो ने घेर लिया है। या फिर टूटकर बिखर पड़े है। क्योंकि उनकी खबर लेने वाला कोई नहीं है। कुछ कुछ पत्थर भाग्यशाली रहे, जिनके वंशजो ने पीढ़ी दर पीढ़ी उस वीरगाथा के साक्ष्य को, आज पर्यन्त अस्तित्व में रखा। लेकिन कुछ इतने भाग्यशाली, या जरुरत के न रहे। कईं जगहों पर उन्हें विकास की भेंट चढ़ाए गए। तो कईं जगहों पर उनका स्थानांतरण किया गया। कुछ शिलाएं छतरी से ढंकी गयी, तो कुछ को बस कुदरत ने रक्षा।


    शूरवीरों के बलिदानों पर, उनकी स्मृति में एक शिला खड़ी करनी, हमारी सभ्यता का एक पुराना रिवाज है। समस्त भारतवर्ष में यह किया जाता रहा है। दक्षिण भारत में उस स्मृति स्तंभ की शिला को 'वीरगाल' कहते है, गुजरात में 'पाळिया या खांभी', राजस्थान में 'देवली या सति शिला'..! परंपरा यह है, कि उस वीरवर की एक निश्चित तिथि पर, उसका कोई वारिस उस शिला के पास जाता है। उस पर घी-मिश्रित सिन्दूर का आवरण चढ़ाते है। धुप, दिप, अगरबत्ती से पूजन होता है, और कसुम्बो (अफीम) अर्पण करते है। यह एक परंपरा है, विरासत है, धरोहर है। और एक कहानी है, वीरगाथा है, कवित है। उससे भी अधिक कहूं तो, यह एक प्रेरणा है। अधिकार, स्वतंत्रता, या निति की हानि पर मर-मिटने की प्रेरणा। गौ, भूमि, और स्त्री के संरक्षण हेतु लड़ने की प्रेरणा।


    प्रियंवदा ! आज मैं बात कहाँ ले जा रहा हूँ, कुछ दिशा मिली? चलो मैं ही बता देता हूँ। कल रात भोजनादि से निवृत हो कर ग्राऊंड में चला गया था। योगानुयोग गजा भी आया, और पत्ता भी..! तिकड़ी लग गयी। और फिर तो हमने किसे बख्शा? ट्रंप से लेकर तहसीलदार तक को लपेट लिया। पत्ता एक हाथ में सिगरेट और दूसरी हाथ में सोडा में कोई लाल मिश्रण का सेवन करते हुए वह जब भी बोलता था, तो हमें 'हैं' करना ही पड़ता था। फिर जब वह लड़खड़ाती जिह्वा को थोड़ी मंद गति से चलाता, तब हमें स्पष्टता मिलती। वहीँ दूसरी और गजा भी गुटखा और तम्बाकू की अलग अलग पुड़िया के बिच की दूरियां मिटाते हुए दोनों एक करते हुए, पत्तें की लड़खड़ाती जिह्वा पर तंज पे तंज कसे जा रहा था। 


    मैं.. मैं तो बस बारी बारी उन दोनों के वाक्युद्धों में भूमिकाएं अलग अलग पक्षों में बदल रहा था। कभी गजे के पक्ष से लड़ता, तो कभी पत्ते के। धीरे धीरे हमारी बातें मंद चौताल से द्रुत कहरवा में तब्दील हो रही थी। पत्ता नया नया रेस में उतरा है, विवाह वाली रेस..! मैं और गजा थोड़े पुराने चावल है। तो बात चल पड़ी, 'पत्नी को कोई नौकरी करने देनी चाहिए या नहीं?' गजा तुरंत कूद पड़ा, 'अरे भाई ! पत्नी कमाएगी, तो हमारे उस अधिकार का हनन हो जाएगा।' मैं और पत्ता ताकते रहे.. गजे ने जारी रखा, 'तुम लोग कैसे भूल सकते हो? हमें महीने में एक दिन चाहिए होता है, पत्नी पर रौब ज़माने का। पैसे कमाकर उसे घरखर्च देने का। उससे चिल्लाते हुए हिसाब-किताब लेने का। अगर पत्नी भी आय रखेगी, तो हम उसे यूँही खरी-खोटी कैसे सुना पाएंगे? बड़े बड़े सर्वे कहते है, एकाध दिन का झगड़ा हो जाए, तो वह सम्बन्ध लंबा टिकता है।' 


    तो मैंने भी उसके सूर में सूर मिलाते कहा, 'हाँ ! बात तो सही है। और आजकल तो नौकरी करती पत्नी घातक भी सिद्ध हो रही है।' इतने में पत्ता बोला, 'हट ! पिछड़ी सोच वाले लोग हो तुम। मैंने तो मेरी धर्मपत्नी जी से सलाह कर ली है, यदि वे चाहे तो वकालत करें।' बस मुझे और गजे को मिल गया तुरुप का इक्का.. फिर तो हमने उसे क्या चिढ़ाया है, कि देखना, तुझ पर ही केस चलेगा। घेरलू हिंसा का, दहेज़ का, किसी दिन पीकर पहुंचा तो खाना भी नहीं देगी, और तुझे टंकी की मोटर चालू करने बोले तो गलती से मना मत करना, क्या पता उसकी भी कोई धारा लगा दे। और वो एलीमोनी वाली तलवार की धार तो तू ही निकलवाएगा, वकील बनाकर। वगैरह.. वगैरह.. करते करते ग्यारह बज गए। 


बासनपीर का विवाद : जब वीरता की छतरी को पत्थरों से घेरा गया

    लेकिन जाने से पूर्व गजे ने बात को गंभीर मोड़ पर ला खड़ा कर दिया था। वह बात है, जैसलमेर के पास एक गाँव है, 'बासनपीर' नामक। २०१९ में उस गाँव के तालाब के पास खड़ी छतरी को गांववालोने हटा दी। और मुद्दा विवाद में आ गया। दरअसल वहां दोसो वर्ष पुरानी छतरी खड़ी थी। जब जैसलमेर एक देशी राज्य था, उस काल में जैसलमेर और बीकानेर का युद्ध हुआ था। तो उस युद्ध में विजयगति को प्राप्त रामचन्द्रसिंह सोढा और हडोट जी पालीवाल नामक वीरों की छतरियां, इस बासनपीर गाँव के पास बनायीं गयी थी। गांववालों द्वारा छतरी हटाने पर विवाद बढ़ा। मामला प्रशासन तक पहुंचा, और छतरी के पुनःनिर्माण तक बात पहुंची।


    कुछ दिन पूर्व वहां अधिकारीयों की हाजरी में पुनःनिर्माण का कार्य शुरू किया गया, तभी गाँव की औरतें पत्थर चलाने लगी। बच्चों और औरतों को आगे कर गांववालों ने खूब पत्थर बरसाए। निर्माण कार्य करने आए लोगो को भागना पड़ा। पुलिस को भी। मामला खबरों में चलने लगा। लेकिन न्यूज़ वाले भी पता नहीं क्यों उन गाँव वालो को 'समुदाय विशेष' के लोग कह रहे थे। सीधा सीधा 'मुस्लिम' लोग थे ऐसा नहीं कह पाए। सीधी बात है, कि जिस जगह स्मृति स्तम्भ खड़ा किया जाता है, वह वहीँ रहता है। और मुझे तो यह समझ नहीं आ रहा है, कि उन मुस्लिमों को वह छतरी से क्या दिक्कत हुई? पत्थर बरसाने के लिए गाँव की मस्जिद से एलान तक किया गया। हालाँकि बाद में पुलिस ने गिरफ्तारियां की।


राजनीति, जातिवाद और मीडिया की चुप्पी

    बात है एक कौमी नफरत की। सारे मुस्लिम बुरे नहीं होते, उसी तर्ज पर सारे अच्छे भी नहीं होते। वह छतरी किसी धर्म का प्रतिक नहीं है। वह वीरता व शौर्य का प्रतिक है। उन मुस्लिमों ने किसी धर्म का अपमान नहीं किया है, बल्कि एक शहादत का अपमान किया है। वीरगति का अपमान है वह। छत पर से पत्थर चलाने वाला ट्रेंड रुकना चाहिए। ऐसे घरों को जमीनदोस्त क्यों नहीं किए जाए? लेकिन जब अपने यहाँ ऐसा कोई काण्ड होता है, तो तुरंत ही राजनेता दौड़ लगा देते है। सारे बड़े बड़े विधायक और MP लोग पहुंच गए। और सारे विवाद का राजनीतिकरण कर दिया। वीरगति का अपमान करने वाले पक्ष में भी देश की एक बड़ी राजनैतिक पार्टी खड़ी गयी। राजपूत, मुस्लिम और मेघवाल.. यह तीन प्रमुख जातियों की वोटबेंक के कटघरे में सारे राजनेता फंस गए।


    मुझे लगता है, इन राजनेताओं को इस मामले में कम से कम मुस्लिम का पक्ष नहीं लेना चाहिए। यह तो सीधा सीधा मामला है, वीरों की छतरी पुनः खड़ी होनी ही चाहिए। दूसरे कोई मुद्दों में तुम लोग राजनीती कर लो। यहाँ हिन्दू-मुस्लिम एंगल था ही नहीं। राजनेताओं ने कर दिया। यह विवाद मात्र उस जगह के लिए था। एक तरफ थे उस छतरी के वारिसदार, दूसरी तरफ थे उस गाँव के मुस्लिम। छतरी ज्यादा से ज्यादा बिस फ़ीट की जगह लेती है। उतनी जगह उस गाँव वाले एक वीर की स्मृति को नहीं दे सकते? जबकि वह जमीन ही जैसलमेर महारावल की दी हुई है। और बच्चे तक पत्थर फेंकते है, इतनी घृणा उनमे कैसे पनपी? कम से कम बच्चो में शिक्षा होनी चाहिए, सदभावना होनी चाहिए। फिर जब वो ब्रिगेडियर रूद्रप्रताप कुछ टाइम-बम वाली बात कहे तो वह गलत क्यों? छतरी का नवनिर्माण होना चाहिए, उस जगह पर उस गाँव के उन 'समुदाय विशेष' वाले 'मुस्लिमों' का कोई हक़ नहीं बनता। 


    एक तो जब से यह योगी आदित्यनाथ जी मुख्यमंत्री बने है। तब से बहुत सारे महंत या आश्रम के गादीपति, राजनीती में उतरने की जगह खोजने लगे है। योगी जी की ही तरह भगवा धारण कर बहुत से महंत राजनीती करने लगे है। आत्म-कल्याण के मार्ग से सीधा समाज-कल्याण की बातें करने लगे है। सनातन की रक्षा का बीड़ा किसी ने दिया नहीं, लेकिन तब भी इन लोगो ने कहीं से ले लिया है। यह लोग भी सौहार्द की बातें नहीं करते। फिर उस ओवैसी और तुममे क्या फर्क रह गया भला? वो अपने पक्ष का मुद्दा लिए है, तुम अपने। भला तो तब हो, जब मिलबांटकर रहने की कोई बात करे। आज बीजेपी माने हिन्दुओं की पार्टी, कांग्रेस माने मुस्लिम की तुष्टिकरण पार्टी। ओवैसी की तो पार्टी ही मुस्लिमों के लिए है। आम आदमी के नाम पर बने आम रहे नहीं। कोई समाजवाद कर रहा है, कोई बहुजन। एक देश की बात कौन कर रहा है? एक नागरिक की बात कौन सुन रहा है?


    खेर, सुबह ऑफिस पहुंचकर और कोई काम नहीं था, तो यही मुद्दे पर काफी सर्च किया। और सीधी और स्पष्ट बात यही है, कि जब प्रशासनिक मंजूरी है, तब भी मुस्लिम लोग छतरी निर्माण में अवरोध उत्पन्न कर रहे हो, तो इलाज यही है, कि छतरी वहीँ बने, और मुस्लिमों को वहां से हटा दिया जाए। फोड़ा दर्द करने लगे तो उसे फोड़ देना चाहिए। तभी इलाज होता है। बाकी यह भाटी, वो चौधरी, और एक वो महंत, इन सब को अपने घर बिठा देना चाहिए। कुछ हुआ नहीं, कि तुरंत पहुँच जाते है। 


पत्थरदिल प्रियंवदा और मेरा एकतरफा संवाद

    वैसे प्रियंवदा ! यह गजा ऐसे ही तड़कते-भड़कते मुद्दे मुझे टिका जाता है। जहाँ मिडिया जैसे लोग चुन-चुनकर शब्द प्रयोग करते है। वहां मैं सीधा और स्पष्ट लिख जाता हूँ। फिर सोचना पड़ता है, कि कल को किसी वाक्य पर मेरा 'गुस्ताख-ए-रसूल की एक ही सजा..' न हो जाए। शायद मिडिया भी सौहार्द के चक्करों में फंसी हुई है। क्योंकि सजा का भय तो उन्हें भी होना लाजमी है। आज कुछ ज्यादा ही बातें नहीं लिख दी तुम्हे प्रियंवदा? पत्थर से पत्थर तक पहुंचाई है बातों को। एक पत्थर वो है, जो वीरगति की स्मृति में खड़ा है, और एक पत्थर वो है, जो छत से चला है। लेकिन पत्थर तुम्हारा दिल भी है प्रियंवदा ! जो शायद मेरे लिए धड़का ही न होगा। हाँ ! तुम्हे ही पत्थरदिल कह रहा हूँ आज प्रियंवदा। 


    मेरी तो शायद पत्थर पर लकीर है, कि बन पड़ा वहां तक तुम्हे यूँही अपने मन की लिखता रहूंगा। उसी आशा में, कि कभी पत्थर में भी फूल खिलेंगे। या पत्थर भी पिघलेंगे। लगातार जब पानी की बूँद गिरती है, तब पत्थर में भी एक छेद बन जाता है। एक आरपार का मार्ग बन जाता है। उसी क्षण का इंतजार है प्रियंवदा ! तुम्हारे पत्थरदिल में मेरे शब्दों से अपनी एक जगह बनानी है मुझे। अविचल जगह। क्योंकि पत्थर पर उकेरा हुआ लंबे समय तक रहता है। 


    चलो फिर, विदा दो। कल फिर मिलूंगा, तुम्हारे पत्थरदिल को पिघलाने की कोशिश में, किसी नए पन्ने पर। 

    शुभरात्रि। 

    (२२/०७/२०२५)

|| अस्तु ||


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