उम्र और नियमों का रिश्ता – क्यों ज़रूरी है दिनचर्या?
प्रियंवदा ! जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है, वैसे वैसे शरीर को कुछ चुस्त नियमों में बांध लेना पड़ता है। क्योंकि यह नियम हमें एक मजबूती देते है। एक निश्चितता। यह बहुत जरूरी भी है। यदि यही क्रम, प्रेरणा का काम कर जाए तो फिर जीवन लंबा और सुदृढ गति से बढ़ता है। लेकिन मन कहता है, कि छोड़ यह सब, इसमें कोई मजा नही.. रोज ही तो भागता है, आज एक दिन नही भागेगा तो क्या ही हो जाएगा? और मैं तो मन का गुलाम हूँ, या मनमौजी.. नही स्वीकार कर पाता एक नियम के आधीन चलना। हररोज जैसे सूर्य उगता तो एक ही है, लेकिन उस सूर्योदय के साथ साथ जो घटनाएं होती है वह अलग होती है। कदापि एक सी नहीं होती। कोई भी दिन एक जैसे नही होते। कुछ तो बदलाव उसमे भी होते है। कोई भावना बदलती है, कोई प्रसंग, तो कोई काम, या कोई रस - स्वाद..! हर दिन कुछ नया होता है, बस नजरिया नएपन वाला होना चाहिए।
सुबह की शुरुआत और ऑफिस की कहानियाँ
उपदेशात्मक अनुच्छेद मैं लिख लेता हूँ, कि नही, यही चेक करना था मुझे, इसी कारण से पहला अनुच्छेद ऐसा लिखा। हवा थम गई है प्रियंवदा। वृक्षों से एक पत्ता भी नही हिल रहा है। आज आसमान में चमकीली दरारें बनती रही थी। बारबार दरारें होती, चमकती और अदृश्य हो जाती। फिलहाल भी इस वायुशून्य मैदान में बैठा हूँ, और आसमान में बैठा कोई कैमरामैन बार बार फ़्लैश कर रहा है। जगन्नाथ के मंदिर से उठते ओड़िया भजनों के मधुर स्वर को कलुषित करता कोई कारपेंटर के ड्रिलिंग का घोंघाट भी यहां मैदान तक आ रहा है। बादल ने घेरा डाला है, लेकिन शायद कोई अभिमन्यु उस घेरे को तोड़कर निकला हो, वैसा ही उन बादलों के बीच से आसमान भी दिख रहा है। गर्मी और उमस ने तो जैसे प्राणहरण की होड़ लगाई हो। कुदरत चाहे वो कर सकती है।
सवेरे आज साढ़े सात उठकर तैयार होकर ऑफिस के लिए ही निकल पड़ा। बीते कल की दिलायरी पोस्ट कर, रोकड़ वगेरेह मिला रहा था, तो पता चला कुछ रकम कम पड़ गयी.. सर खुजाने से कभी भी कुछ याद नही आता, फिर भी पतां नही क्यों लोजी कुछ याद करते हुए अक्सर सर खुजाते है, या कपाल पर हाथ फेरते है। मैं भी उन्हीं लोगों में शामिल हूँ, जो याद करते करते बहुत टेंशन ले लेते है। काफी देर तक जब कुछ याद न आया, तो उसे मैं misc exps में डाल देता हूँ। कंपनी में पुराने आदमियों को थोड़ी बहुत छूट मिलती है। लेकिन ज्यादतर पुराने लोग इस छूट का दुरुपयोग कुतरने में करते है। किसी कम्पनीमें जब कोई व्यक्ति बहुत पुराना हो जाता है, तो उसे देखकर, दूसरे लोग बड़ी शान से कहते है कि इतने समय मे तो मैं अपनी खुद की कम्पनी खड़ी कर लेता। ऐसे लोग आठ-दस महीने में किसी और कंपनी में कोई भी कंडीशन पर नौकरी का आवेदन देते पाए जाते है। बहुत कम लोग सफल होते है।
बीच दिन की थकान और छोटी-छोटी यादें
खेर, तीन बजे घर लौटकर भोजनादि से निवृत होकर तारक मेहता देखते देखते आंख लग गयी। खाने के तुरंत बाद सो जाने से शरीर विद्रोह करता है अब। चार बजे उठा, और मार्किट चल पड़ा। कईं महीनों से दाढ़ी धीरे धीरे बढ़ाये जा रहा था, उतनी बढ़ गयी थी कि अब तो घर वाले भी बोलने लगे थे, कि यह क्या साधु-बाबा जैसी बढ़ाये जा रहे हो। तो रास्ते मे ही पड़ते अपने हमेशा वाले नाई के पास रुक गया। नाई तो कहीं बाहर गया हुआ था, उसका लड़का था। आधे पौने घण्टे में नम्बर आया। मैं चेयर पर बैठा, उसने हेयर कट के लिए मुझे कपड़े में लपेट ही था, कि पसीने छूटने लगे। पूरा भीग गया मैं। शरीर खाली खाली लगने लगा, और घबराहट होने लगी। यह भी अब बार बार होने लगा है। इसके पीछे अभी तक मुझे दो ही कारण लगते है। एक तो गैस, या फिर ac..! बगैर ac के, गर्मी के कारण शरीर जैसे शक्तिहीन होने लगता है।
नाई की दुकान और खुले आसमान का सुख
नाइ के लड़के को आधी कटिंग पर रोककर ही मैने कहा, तू a.c. लगवा ले दुकान में। एक बार मैंने आधी कटिंग पर ही उससे कह दिया था कि रुक जा.. मुझे ठीक नही लग रहा। लेकिन आधी कटिंग में कोई ग्राहक चेयर से उठे वो उसे भी अच्छा नही लगता। उसने दिलासा देते देते अपनी गति बढाई। कुछ ही देर में हेअरकट तो कर दिया। मैं तुरंत उसके लपेटे कपड़े फ़ेंकफाक कर दुकान से बाहर निकल गया। खुले में भले ही हवा नही चल रही थी, लेकिन काफी अच्छा लगा। दुकान के बाहर निकलते ही जैसे सांस में सांस आयी हो.. कुछ देर टहला, और दुकान के बाहर खुली हवा में बैठा। कुछ बूढ़े बतिया रहे थे। एक नेपाली आदमी से बातें करते हुए उससे कह रहे थे, कि मैं सालों पहले जनक राजा के शहर में गया था। तब तो ऐसी सड़के भी नही थी.. तुम्हारे वहां से कितना दूर है? यहां तू क्या काम करता है? आज छुट्टी है? मैं तो ट्रक लेकर गया था, तब मेरी गाड़ियां थी, और एक मैं भी चलाता था.. शायद वह बूढ़े की आंखों के आगे से एक युवानी का जोर गुजर गया।
चश्मे की तलाश – चेहरे और फैशन का संगम
अब मुझे ठीक लग रहा था। मैं वापिस दुकान में गया। अधूरी हजामत पूरी करवाने। उसने फोम पोतकर कुछ ही देर में महीनों से बगैर खाद के उगी दाढ़ी उस्तरे से उड़ा दी। और मैं सोच रहा था, पहले शायद इसी कारण से लोग पेड़ के नीचे ही हजामत करवाते होंगे.. खुली हवाओं में घबराहट का नामोनिशान नही होता है। खेर, नाई से विदा लेकर मार्किट पहुंचा, गैस के चूल्हे का रेगुलेटर और पाइप लेना था। लेकिन रास्ते मे चश्मा की दुकान दिख गयी.. लगभग पौना घण्टा मैंने भी स्त्रियों की तरह अलग अलग डिज़ाइन try की, लेकिन एक भी सटीक नही बैठी। शायद चहेरा ही ठीक करवाना पड़ेगा। चश्मा की दुकान वाला भी दोस्त हो गया है, उसने कहा, 'बापु! खाने-पीने पर कंट्रोल करो, सारे चश्मा छोटे पड़ रहे है आपके चेहरे पर। बताओ.. यह भी कोई बात हुई भला? वैसे आंशिक सही भी है। क्योंकि जितनी फ्रेम मैंने try की वे सारी ही मुझे टाइट पड़ रही थी, कान के ऊपर से आंखों तक एक सीधी रेखा में निशान छोड़ रही थी।
बाज़ार की भागदौड़ और बारिश का आशीर्वाद
एक फ्रेम पड़ी है आज भी, जो कभी पहनी ही नही गयी। ली थी तब शायद चहेरे पर चर्बी के थपेड़े नही चढ़े थे। अब पहनता हूँ, तो लगता है किसी बच्चे का चश्मा चढ़ा लिया है। वहां से निकलकर दो और दुकान घुमा। मेरी चश्मा में पसंद है 'एविएटर' डिज़ाइन। फैशन की फैशन, और नम्बर का नम्बर। लेकिन दुकानदारों के सारे हौंसले पस्त हो जाते रहे जब रैबन की लार्ज साइज भी मेरे चेहरे पर छोटी लगती। सोचा लेंसकार्ट try किया जाए। लेकिन वो तो अपना शहर ही छोड़ चुका है शायद। क्योंकि वह जहां हुआ करता था, वहां आज जूते बिकते देखे। टाइटन में गया, उसके पास एविएटर के सिवा सारे डिज़ाइन थे। अब तो आसमान भी रोने लगा मेरी इतनी भागदौड़ देखकर। उसे रोता देख, मुझे लगा यह और बड़े बड़े आंसू बिखेरे उससे पहले घर पहुंच जाना सबसे उत्तम रहेगा।
यही था आज का दिन प्रियंवदा।
शुभरात्रि।
१७/०८/२०२५
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