कृष्ण – आदर्श क्यों?
प्रियंवदा ! कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं..! कृष्ण आदर्श क्यों है पता है तुम्हे? क्योंकि वे सदा ही रिवाजो से अलग चले..! जो अलग चलता है, वह सदा ही ध्यान में पहले आता है। हमारा दृष्टिकोण ही ऐसा होता है, हमें धवल दीवार पर एक छोटी सी काली बिंदी होती है तो वह पहले दिखाई पड़ती है। सामान्य से अलग प्रदर्शन करता है, वह अचूक एक स्थान प्राप्त करता है। कृष्णने जगतगुरु की पदवी प्राप्त की। उनके बारे में तो क्या ही लिख सकता हूँ, वैसे भी इंटरनेट की दुनिया में कृष्ण के अनेकों पराक्रम वर्णित है।
जन्माष्टमी की छुट्टी और घर का आराम
आज ऑफिस तो आना था, लेकिन मैंने छुट्टी रख ली। सरदार तो पूछ रहा था, वह भी विश्वास के साथ, कि कल आओगे न? लेकिन मैंने मना किया। एक दिन आराम कर लेना चाहिए। और मैंने भरपूर आराम किया। पंद्रह अगस्त की शाम को ही कुँवरुभा को हमारे शहर में लगा बड़ा मेला दिखा चूका था। भाईसाहब, कुँवरुभा की अभी वो उम्र चल रही है, जहाँ वे समस्त बातों में विद्रोही होते है, और अपनी मनमानी चलाने को उतारू। बचपन में जिसे हम बुढ़िया के गुलाबी बाल कहते थे, वो गुलाबी रंग की कॉटन कैंडी उन्हें बड़ी प्रिय है। गाल तक गुलाबी कर लेते है उससे। लेकिन ताजे ताजे बुखार से मुक्त हुए थे, और यह निरि चीनी से बनी आइटम देकर और मुसीबत कौन मोल लेता?
मेला – रोशनी, खिलौने और बचपन की यादें
मेले में एफिल टावर, बुर्ज खलीफा और दुबई फ्रेम, लंदन ब्रिज, और भी कुछ मोनुमेंट्स की प्रतिकृति थी, जिनके मुझे नाम तक याद नहीं रहे। बाकी खाने-पिने की बहुत सारी आइटम्स, और खेलने के लिए भी। एक चीज है प्रियंवदा, मेलों में आज भी वो एयर-गन से बलून्स फोड़ने वाला खेल जारी है। बचपन में कभी मेले में मुझसे वो चली नहीं, लेकिन बड़े होने के बाद तो एयर-गन मैंने बहुत चलायी है। वो एक स्टील का छर्रा फोड़ने में कोई उत्साह नहीं होता। कुँवरुभा को एक भी राइड में बैठने का मन नहीं होता। सिवा वो घोड़े वाले चकडौल के। जो गोल गोल घूमता है, वो भी हाथ से। ड्रैगन ट्रैन में उनके साथ मैं भी बैठना चाहता था, लेकिन वे माने ही नहीं। बाकी खिलौने तो उतने बढ़िया-बढ़िया थे प्रियंवदा, कि मुझे खुद भी उनसे खेलने की इच्छा हो उठी थी। शायद बचपना जाग जाता है मेरा भी।
जुए की ताश और घर का मनोरंजन
तो आज तो सुबह जल्दी जागने की कोई जल्दी नहीं थी। आराम से साढ़े सात बजे उठा। नहाधोकर मंदिर गया। जगन्नाथ जी व्यस्त थे, क्योंकि जन्माष्टमी के दिन और भी बहुत से ऐसे भक्त आते है, जो कुछ निश्चित तिथियों पर ही भक्ति करते है। खेर, मैं तो दर्शन कर दूकान पर चला गया। एकाध मावा, और धुम्रदण्डिका का सेवन कर, घर आ गया। धूप और उमस इतनी थी कि क्या ही करें इसका। जन्माष्टमी मतलब जुआ। गुजरात में तो यही अर्थ है। या तो मेला, या तो जुआ। मेला तो देख आया था, अब बचा जुआ। मुझे जुए से परहेज है। लेकिन घर में ही टाइम-पास के लिए पत्ते तो खेल ही सकते है।
तीन पट्टी खेलने बैठो यदि टाइम-पास के लिए, फिर तो वह जुए में परिणामित होती ही होती है। मैं, माताजी और कुँवरुभा के माताजी। मेरे पास काफी सारी चिल्लर पड़ी थी। लगभग तीनसौ रूपये। पंद्रह रूपये का मावा खा-खाकर बिस की नॉट से बचे पांच रूपये मैंने अपने पास एक बैग में डालते गया था। वो लगभग तिनसों रूपये की चिल्लर इकट्ठी हो गयी। तो तीन पत्ती को इंटरेस्टिंग करने के लिए हमने आपस में ही जुआ चालू कर दिया। बताओ.. भक्ति करने के बजाए हम लोग पाप कर रहे थे.. शायद? पता नहीं क्यों? हमारे यहाँ ऐसा मानते है कि कृष्ण ने भी खूब जुआ खेला था, और मथुरा में वे कालिया नाग का सर हारे थे। फिर वे कालिया-मर्दन के लिए कालिंदी में उतरे।
मंदिर, आरती और बारिश की रात
तो घर में ही मैं लगभग जितना जीता उतना ही सारा का सारा हार भी गया। शाम हो गयी..! आसमान में बादल घिरने लगे। अँधेरा दोनों तरिके से होने लगा था। बादलों का भी, और सूर्यास्त का भी। थोड़ी थोड़ी बूंदाबांदी हो रही थी। और मैं चल पड़ा जगन्नाथ। पैदल ही। बाइक निकालने की आलस में आदमी चल लेता है, ऐसा मेरे साथ पहली बार हुआ। जगन्नाथ जी के संध्या आरती की तैयारी हो रही थी। कुछ देर मंदिर के बाहर खड़ा रहा। बारिश में थोड़ा थोड़ा भीगता रहा। पता नहीं क्यों? मैंने मन ही मन मंत्र जाप किया। जिन्होंने गुरु दीक्षा ली हो, उन्हें एक गुरु मन्त्र मिलता है। मैंने कईं साल पहले गुरु दीक्षा ली थी। शुरू शुरू में मैंने काफी जाप किए, लेकिन समय के साथ साथ शायद जीवन की व्यस्तताओं में, या उतरती आस्था में मैंने वह सब छोड़ दिया।
जगन्नाथ मंदिर के बाहर मंडप लगा हुआ था, नन्हे बालकृष्ण का पालना भी। मैंने वहीँ खड़े खड़े कई बार मन्त्र जपे। बचपन के बाद पहली बार मैं मंदिर में कितनी ही देर तक बैठा रहा। आरती में अभी समय था। श्रद्धालु धीरे धीरे मंदिर में बढ़ रहे थे। मैं भी मंदिर के भीतर आ गया, और एक कोने में बैठकर आँखे बंद कर मंत्रजाप करता रहा। कुछ देर बाद पंडित ने आरती के लिए इशारा किया। मैं खड़ा हुआ, नगाड़ा चालू किया। मेरे पास खड़े एक व्यक्ति ने झालर उठायी। आरती के संगीत वाद्य के नादों ने वातावरण को भर दिया। थोड़ी लम्बी आरती चलती है। आधी आरती के बाद मेरे पास खड़े व्यक्ति के झालर का ताल बदल गया। वो बार बार हाथ बदलता, और ताल चूक जाता।
दूसरे लोग जो झालर बजा रहे थे, और घंटनाद से अलग ही वह चल रहा था। मैंने उससे पूछा मैं बजाऊं? उसने तुरंत मुझे दे दी। वजनी झालर बजानी भी आसान नहीं है। एक हाथ से झालर को स्थिर पकडे रहना और दूसरे हाथ से उस पर डंडी से बजाते रहना, वो भी ताल में। लेकिन मैंने बचपन में आरती खूब की है। नगाड़ा भी बजा लेता था, वो भी आरती के ताल में ही। लिंबडी के पास राज-राजेश्वरधाम है। मुझे याद है, मैं किशोरावस्था में वहां गया था। वहां बड़ा नगाड़ा था। पूरी आरती के दौरान मैंने बजाया था, और पंडित जी ने मेरी तारीफ़ की थी। बचपन में आरती समय पर मैं मंदिरों में अवश्य ही पहुँच जाता, क्योंकि तब चॉकलेट मिलती थी प्रसादी में। वो भी आज की यह रेपर वाली चॉकलेट्स नहीं। दस-पंद्रह मिनिट तक उससे रस आता ही रहता, वो वाली ऑरेंज की हार्ड चॉकलेट।
पहली बार शंख बजाने की कोशिस..
पहली बार शंख बजाने की कोशिस की थी, तब काफी परेशानी हुई। क्योंकि जोर से, या धीरे से भी फूंक मारने पर भी शंख बजा ही नहीं। रुक रुक के फूंक मारी, एक लम्बी सांस खींचकर एक ही साथ फूंक मारी तब भी नहीं बजा। बड़ा आश्चर्य हुआ, कि और लोग तो ऐसा ही फूंक मारते थे, और शंख बज उठता था। फिर मुझसे क्यों नहीं बज रहा? फिर किसी ने सिखाया, कि सिर्फ फूंक मत मारो, होठ बंद रखकर फूंक मारते हुए, होठो को फड़फड़ाओ.. तब पता चला की शंख तो होठो से होती आवाज को बढाकर बजता है। मुझे लगा था उसमे सिटी जैसा कुछ होगा, जो फूंक मारने पर आवाज करता है।
भाग्य नहीं, मेहनत ही सब कुछ
खेर, आरती के बाद भीगते हुए घर पहुंचा, बादल बरस भी रहे थे, और बड़ी जोरो से गरज भी। रात को बारह बजे तक हम लोग पत्ते खेलते रहे। मैं कुल-मिलाकर जहाँ था, वहीँ पहुंचा, जितने रूपये लेकर बैठा था वहीँ..! एक बार फिर मुझे पता चला, कि भाग्य मुझे कभी कुछ नहीं देगा, समय व्यर्थ न करते हुए मुझे आप-महेनत पर ही भरोसा करते हुए, महेनत ही करनी होगी।
शुभरात्रि।
१६/०८/२०२५
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