शाम का बदलता मौसम और उमस
क्या ही मौसम चल रहा है प्रियंवदा ! शाम ढलने से पूर्व उमस का स्तर इतना बढ़ जाता है, कि जैसे कोई प्रेमिका अंतिम बार अपने प्रेमी को ताड़ रही हो। जैसे वियोग के पूर्व भर भर के निहार लेना हो। शाम ढलते ही वातावरण सौम्य हो जाता है, जो कुछ देर पूर्व ही प्रताड़ित कर रहा था। फ़िलहाल छह बज रहे है शाम के। और मौसम गर्मी का चोला उतार रहा है। आज दिनभर मैं थोथो में लगा रहा था। आजकल इंस्टाग्राम की रील्स मुझे रास नहीं आ रही। कुछ मित्र भेजते रहते है। मैं बस फनी इमोजी भेज देता हूँ। बातें कम हो चुकी है मेरी, ऐसा मुझे ही अनुभव हो रहा है। शायद अटेंशन चाहिए मुझे भी।
भूकंप का सपना और नींद में बड़बड़ाना
कल रात मेरी नींद टूटी, क्योंकि मैं नींद में बड़बड़ा रहा था, ऐसा मुझे लगा। हालाँकि मैं सच में ही बड़बड़ाया था, यह मुझे सुबह समाचार मिला। एक दुःस्वप्न था। मुझे याद नहीं मुझे आखरी स्वप्न क्या आया था जो याद रहा हो। स्वप्न नहीं आते शायद मुझे, या याद नहीं रहते। लेकिन कल जिसे देखकर बड़बड़ाया था वो मुझे याद है। भूकंप आया था स्वप्न में। और मैं चिंतामग्न हो चूका था। और बडबडाया। 'भले' कहते ही मैं निंद्रा से तन्द्रा में आ गया, आँखे खुल गयी, और पता चला स्वप्न देखा था। खेर, सवेरे मजाक का पात्र भी बना, कि इतना बड़ा होकर भी मैं नींद में बड़बड़ाता हूँ। मुझे याद है तब तक पहली बार ऐसा हुआ है।
सावन का अंतिम सोमवार और व्रत का अनुभव
सावन का अंतिम सोमवार है आज। वही, एक समय भरपेट खा लेने वाला व्रत मैंने भी रखा है। गुजराती में 'एकटाणु' कहते है। दिनभर थोथो में उलझा हुआ था, कि आज कोई विषय सोचने तक का समय नहीं मिला है। या फिर ऐसा कुछ घटित ही नहीं हुआ जिसे मैं यहाँ तुम्हे सम्बोधित कर लिखूं प्रियंवदा। दोपहर को एक जगह भोजन के लिए जाना था, लेकिन व्रत के चलते बस मुंहदिखाई ही करनी पड़ी। हम अक्सर कुछ फंक्शन में बस मुँह दिखाने ही जाते है, कि देखो मैं तुम्हारे वहां आया था। और जिसका फंक्शन हो, उससे मिलना तो अनिवार्य है। वरना उसे कैसे पता चलेगा? तो दोपहर को धूप-छाँव के बिच से होकर चल पड़ा बाइक लेकर।
धूप-छाँव, खेत और चरवाहे का दृश्य
दोनों तरह खेत, जहाँ सिर्फ लहलहाती घास ही थी। एक खेत में ड्रैगनफ्रूट्स की खेती थी। बाकी सब में सिर्फ घास। वैसे भी यह शहर उद्योगों पर निर्भर है। यहाँ खेती करते लोग कम ही है। जितनी जमीने खाली है, वे बस अपने ग्राहक का इंतजार करती पड़ी हुई है। यह तो वर्षा हो जाती है, तो हरी हो जाती है बस। एक चरवाहा अपनी कईं सारी भेड़-बकरियों के साथ धूप ओढ़कर निकला हुआ था। पूरा रोड ढंककर निचे देखती चलती भेड़ें न साइड देती है, न तेज चलती है। ऊपर से इतनी अकड़ू भेड़, कि चलती बाइक के आगे आकर अपनी दिशा बदलती। एक दो भेड़ को अपनी बाइक के टायर से धकेलने पर ही उन्होंने मुझे रास्ता दिया।
हंसी, करुणा और समाज की संवेदनाएँ
ऑफिस लौटकर भी मुझे थोथे ही निगलने थे। क्या करता, कानों में ब्लूटूथ लगाए बेध्यानी में ही बहुत कुछ सुनता रहा। क्या सुना वह भी याद नहीं, क्योंकि ध्यान तो थोथो की कलमों में था। कईं बार हम बेध्यानी में बहुत कुछ काम कर पाते है। मुझे काम करने के लिए अब कानो में कुछ बजता रहना चाहिए। फिर तो मैं शाम तक यही कर सकता हूँ। मैंने वरुण ग्रोवर को सुना, पता नहीं मुझे उसका मुँह देखकर ही चिढ होती है। लेकिन मैं सुनता रहा उसे। और उसकी वह लाइन बहुत फनी भी लगी, कि "मैं अगले पांच साल सिर्फ इस बात पर हँस सकता हूँ, कि वे अयोध्या हार गए।" हारना तो बनता ही था, क्योंकि राम मंदिर ने वहां कईं लोगो के घर ले लिए।
काशी में भी किसी दिन यह होगा। विकास ऐसे ही नहीं होता, बलिदान मांगता है, अनचाहे भी। किसानो की जमीनें जाती है, तब भारत माला बनता है। किसी के नुकसान पर भी हमें हँसी आती है। क्योंकि यह प्राकृतिक है। केले के छिलके पर लोग फिसलते थे, और हम हँसते थे। दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो वहां हँसी नहीं करुणा होनी चाहिए, कि अगला गिरा है। पर हम हँस सकते है। सर्कस में जोकर बनते थे, वे बौने होते थे/है। प्रकृति ने उनपर अन्याय किया है, फिर भी बौने पर हम हँसते है। या फिर हम छेड़ते है। जैसे नॉर्थईस्ट वालों को नेपाली या चीनी बोलकर।
सोशल मीडिया भक्ति और लाइक्स की साधना
प्रियंवदा ! यह प्रसिद्धि वाली भक्ति पर तो मैं पहले बता चूका हूँ। मैं भी मानता हूँ भक्ति के इस प्रकार में। इस भक्ति का फल तुरंत मिलता है लाइक्स के नाम पर। बड़ी सरल भक्ति है यह। कुछ नहीं करना है, एक कैमरामैन रखना है साथ में। माला फेरते हुए, या कृष्ण भक्ति में रास करते हुए, कपाल पर चन्दन का थपेड़ा चढ़ाकर फोटो-विडिओ बनानी है। और इंस्टाग्राम / स्नेपचैट पर अपलोड कर देनी है। लोगो की वाहवाही जरूर मिलती है। और मन को प्रसन्नता। कि लाइक्स आ रही है, अटेंशन मिल रहा है। कोई बात नहीं अगर केमरामेन हायर नहीं कर सकते, आजकल खुदखींचू (सेल्फी) भी उतना ही प्रभावशाली है।
आजकल प्रत्येक सोसियल मिडिया वाले बाबाओं के पास एक टीम है, जो यही देखती है, कि लाइक्स और प्रसिद्धि की फलप्राप्ति अविरत चालू रहे। ज्ञान तो बंटता रहेगा। वो फन्नीरुद्धाचार्य महाराज तो आजकल लपेटे में लिए जा चुके है। बड़ी जल्दी प्रसिद्धि पाएं है वे भी, अपने तीखे बोल के कारण। 'अचानक हमला कर देते है..' एक वो लाफिंग बुद्धा जैसे पिले चन्दन में लिप्त जटाधारी महाराज। वे अपने सौम्य प्रवचन के कारण प्रसिद्द है। लेकिन लपेटे तो वे भी गए थे, सुबह सुबह तामझाम के साथ परिक्रमा के करने से। एक अपने गुजराती कथा-वाचक है। बहुत महंगे है। करोड़ों में बजट रखना पड़ता है उनसे कथा करवाने के लिए। वे भी अलग प्रकार की भक्ति करवाते है, एक बार तो लाफा भी चख चुके है।
राधा बनाम रुक्मिणी – भक्ति की दृष्टि से
मुझे नहीं समझ आती यह सोसियल मिडिया पर चलती भक्ति। यहाँ एक बाबा कुछ बोलता है, दूसरा उससे विपरीत। मुझे यह राधा जी वाला कॉन्सेप्ट भी समझ नहीं आता। राधा जी के तो अस्तित्व पर भी दो धड़े बंटे हुए है। खेर, जो भी हो, मैं उस डिस्कसन में नहीं उतरना चाहता। हम बचपन से राधा-माधव कहते आए है। लेकिन मुझे बंसीधर से ज्यादा सुदर्शनधारी पसंद है। इस कारण मैं राधा से ज्यादा रुक्मिणी जी को मानता हूँ। और वैसे भी प्रेम, वियोग, दुःख, पीड़ा की कल्पना से ज्यादा रुक्मिणी जी के साथ द्वारिकाधीश का वैवाहिक जीवन मुझे भाता है।
पहले ऐसे महापंडितों के बिच वाद-विवाद होते थे, हारने वाले को क्षमायाचना करनी होती थी, या फिर विजेता का शिष्य बन जाना पड़ता था। आजकल अच्छा है, एक माफीनामा वाला विडिओ बना दो, फिर से गलतियां दोहराते रहो। एक वो पर्चे लिखनेवाले बाबा आजकल सिमित हो चुके है। उतनी लाइम-लाइट उन्हें मिल नहीं रही शायद। या फिर मुझ तक वे बाबा की रील्स को कोई अदृश्य शक्ति पहुँचने से रोक रही है। तुम्हे क्या लगता है प्रियंवदा? यह धंधा कैसा है? कोई इन्वेस्टमेंट नहीं चाहिए इसमें। बस कोई एक मंदिर ढूँढना है, ३-४ पहचान वालों से कुछ अलौकिक अनुभव के नाम का प्रचार करवाना है, और बस तारीख पर तारीख बांटनी है। कि रोज सवेरे सूर्य को लोटा चढ़ाओ, कभी गर्मी नहीं लगेगी।
दृष्टिदोष या दृष्टिकोण? जीवन पर विचार
खेर, मुझे वो संस्था भी बड़ी अजीब लगती है, जो नाक तक चन्दन का तिलक करती है। मुझे सब कुछ अजीब लगता है। मुझे दृष्टिदोष है। चश्मा आँखों पर चढ़ा है, विचारों पर चश्मा बनवाना बाकी है। ठीक है प्रियंवदा, तुम तो कभी मिलोगी नहीं, चाहे पश्चिम से पूर्व पलट जाए.. या उत्तर के हिमालय दक्षिण की और चल पड़े, या चंद्र की जल आकर्षण शक्ति ख़त्म हो जाए.. मैं चलता हूँ अब, कल यहीं तुमसे बात करने आऊंगा।
शुभरात्रि
१८/०८/२०२५
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