Google Maps पर पालनपुर से मथुरा – वर्चुअल सफ़र का अनुभव
आज क्या लिखूंगा प्रियंवदा? पूरा ही दिन मैंने गूगल मैप्स पर गुजार दिया। पालनपुर से चला था, और मथुरा पहुँच गया। यह गूगल स्ट्रीट वाकई मतिभ्रम कर देता है। और बहुत अच्छा टाइम का साधन भी। खेर, कल तो रात ग्यारह बजे तक अपने वाछटीये वछेरे से मुहब्बत कर ने के बाद घर आकर सोया गया। और परिणाम स्वरुप सवेरे छ बजे जाग भी गया। कुँवरुभा को बुखार के कारण स्कूल से छुट्टी तय थी, तो लगभग पौने आठ तक आज तो ग्राउंड में पसीना बहाया है। ऑफिस पहुंचकर बीते कल की दिलायरी पोस्ट की, और फिर लग गया कंप्यूटर पर गूगल मैप्स में।
दीपावली रोड ट्रिप की प्लानिंग और उत्साह
कुछ तो दिवाली रोडट्रिप की प्लानिंग भी की। वैसे तो पूरा रोड मैप और नाईट-स्टे वगैरह सब पहले से तय है। लेकिन रोड्स का कोई भरोसा नहीं होता है, कहाँ कौन सा स्टॉप ले लेना पड़े। अभी तो वैसे पुरे दो महीने बिच में पड़े है। लेकिन उत्साह इतना है कि अभी ही निकल पडूँ। प्रियंवदा ! कुछ प्लान्स की इतनी ज्यादा पूर्वतैयारियाँ कर तो लेते है, लेकिन उस प्लान को आचरण में उतारने में उससे अधिक महेनत लगती है। मैं सोच रहा हूँ, कि इस बार तो दीपावली पर मजे ही मजे है, घूमने के, लेकिन क्या पता ऑफिस का कोई काम आ चढ़े, या घर पर कुछ काम आ जाए? यही सब कारण से मैं अति उत्साही होने से घबराता हूँ। मैं वो वाला आदमी हूँ, जो कोई भी कार्य के पूर्ण होने पर खुश होता है। कार्यवाही के दौरान हो गंभीर और सडु सा मुँह लिए खड़ा होता है वही हूँ मैं।
किताबों की दुनिया में ‘सटोरी’ और अमित ओझा
अरे हाँ ! आज एक और सजेशन मिला है, एक बुक पढ़ने के लिए मुझे प्रेरित किया गया है। बुक है 'डॉक्टर अमित ओझा' की 'सटोरी'.. अमित ओझा का नाम भी कुछ दिन पूर्व ही सुनने में आया था मुझे। अच्छे लेखक और स्पीकर है। मैं फ़िलहाल पुस्तकों की दुनिया से कटा हुआ था, फिर भी पिछले सप्ताह विषैले गजे ने ही मुझसे कहा था, कि 'तू लिखता तो ठीकठाक है, लेकिन कोशिस कर अमित ओझा जैसा लिखने की।' मैं नहीं जानता था, अमित ओझा कौन है। अभी भी नहीं जानता हूँ। यह बुक अगर पढ़ लूंगा तो जानने की कोशिश करूँगा। उस दिन गजे के कहने पर अमित ओझा के कुछ यूट्यूब शॉर्ट्स देखे। थोड़े दार्शनिक अंदाज़, और उदहारण वालीं बाते थी उनमे। और काफी अध्यतन लेखनी लगी मुझे, जितना मैंने सैंपल पढ़ा है।
बुक तो काफी सारी सजेशन में मिल जाती है। लेकिन सिर्फ बुक्स के नाम। बुक तक पहुँचने का रास्ता तय करने में बहुतें अड़चन आती है। एक तो जब किसी बड़े खर्चे में हाथ डाल दिया हो तो आदमी यह २००-३०० खर्चने में भी सोचता है। लेकिन जिन्होंने बुक सजेस्ट की थी उन्होंने उस बुक तक मुफ्त में पहुँचने का रास्ता भी दिखाया। वे तमाम मनोरंजन.. जो व्हाट्सप्प की क्षमता से बाहर है, वे सारे ही मिलते है टेलीग्राम पर। पूरी की पूरी फिल्म्स यहाँ से डाउनलोड हो सकती है। तो इ-बुक तो होती ही छोटी सी चीज है। ढेरों इ-बुक्स मिली एक चैनल पर। अब बस समय निकालना है। राहुल सांकृत्यायन की भी कुछ पुस्तकें मेरे पास पीडीऍफ़ में पड़ी है। लेकिन उसे २०-३० पन्ने पलटने के बाद, बात आगे बढ़ी नहीं। और यह सटोरी तो है भी गुजराती में। मातृभाषा तो सदा से रसप्रद रहती है।
राजधानी में आवारा कुत्तों पर बैन – डाघीया से संवाद
प्रियंवदा ! महा पंचो ने कहा है कि राजधानी में एक भी कुत्ता दिखना नहीं चाहिए। अच्छा निर्णय है। मुझे काफी पसंद आया। और मैं चल पड़ा अपने पुराने साथी डाघीया के पास। बड़ा ही ज्ञानी और वाचाधारी श्वान है। उसने तो मुझे दूर से आते देखकर ही, पूर्ण हतोत्साही होकर उच्छ्वास निकाला। जैसे मेरे आने पर उसे ज़रा भी ख़ुशी न हुई हो। एक तो किसी से लंबे अंतराल के बाद मिलने जाओ, और वो भी इस तरह गर्मजोशी के बदले नर्मजोशी दिखाए तो कैसे चलेगा? वही चारपाई लगी हुई थी खेत पर, वहां पहुँचने पर मुझे वे सारी कहानियां याद आने लगी। कि कैसे उसने YQ के मोटाभाई को एक बार दौड़ा दिया था। बेकरीवाल को भी काट लिया था उसने, क्योंकि बेकरीवाल राजधानी में फ्री की रेवड़ियां बाँट रहा था।
मैंने ही संवाद की शुरुआत करने के इरादे से कहा : "और वाचाधारी, क्या हाल चाल है तेरे?"
उसने बड़ी ही नरमी से मुंह मेरी ओर करते कहा : "हूँह, आदमजात आज इस ओर का रास्ता कैसे नापने लगी?"
उसका वही रवैया रहता है। "सुना है, तुम्हारी बिरादरी को तड़ीपार कर रहे है राजधानी से।"
"हाँ ! तुम लोगों को और आता क्या है? सब कुछ ही हम पशुओं से सीखे हो, लेकिन पशुओं का उपयोग कर छोड़ देते हो उनके हाल पर।"
बात तो उसकी सही है, लेकिन मैं ठहरा विवाद को खिंचने वाला। "वो मनुष्यों के पास अधिकार है, मनुष्यों के पास बुद्धि है, तो वह उपयोग करेगा ही।"
उसने अपने तीक्ष्ण दांत दिखाते कहा, "तुमने श्वान को समझा क्या है? जब तुम इंसान गुफाओं में रहते थे, शिकार करते थे, तब तुम्हारा जोड़ीदार सदा से श्वान रहा है। आज भी पशुपालक हमारे बिना अधूरे है।"
"लेकिन हम लोग धीरे धीरे उत्क्रांति कर गए। तुम वहीँ के वहीँ चार पैर वाले रह गए।"
"देखो, तुम इंसान किसी के न हुए। श्वान आज गली गली भटकते तुम पर निर्भर रहे। तुमने खेती में उन्नति की, आज बैलों की दशा तो हमसे भी ज्यादा दयनीय है। तुमने परिवहन में बदलाव किये, आज अश्वों के पास बस शादियों में नाचने का, और ज्यादा से ज्यादा रेस में दौड़ने का काम रह गया है।"
"वो सब मुझे मत बता। तुम श्वान लोग भी कुछ कम कहाँ हो? राह चलते बच्चे तक को नहीं बक्शते। काटकर ऐसा जहर छोड़ देते हो, कि वह रोगी हो जाता है, और पानी तक नहीं मांगता।"
"तो हमने कहा था कि हमें इस तरह निराधार छोड़ दो? पाल लेते। या फिर हमें जंगल में रहने देते। तुम्ही इंसानो ने रोटियां डाल-डाल कर हमें तुम्हारा आश्रित किया है। तुमने तो अपनी शिकारवृति बदल ली, लेकिन हम तो पशु है, हमे आज भी अपना इलाका संरक्षित करना होता है। कोई दौड़ता है, तो हमें लगता है कि शिकार है। इसमें हमारा कोई दोष नहीं। फैक्ट्री डिफ़ॉल्ट सेटिंग्स कभी नहीं बदलते।"
"अच्छा यह बताओ, कार के पीछे क्यों भागते हो?"
"वो अलग अलग मूड पर डिपेंड करता है। कभी तो टायरों से होते घर्षण की आवाज से हमारीं शिकारवृत्ति जाग जाती है। कभी चेलेंज लगता है, और हम मतिभ्रम हो जाते है कि हम उस लोहे के डिब्बे को अपने इलाके से भगा रहे है।"
"बस यही कारण है। तुम बेफालतू में इंसानों को तंग करते हो इसी कारण से तुम्हे राजधानी से तड़ीपार किया जा रहा है।"
पशु-मानव रिश्तों की सच्चाई
"रहने दे इंसान ! झूठी दलीलें देनी बंद कर। चल मान लिया कि हम तो काट भी लेते है। फिर तुमने आर्थिक महानगर में कबूतरों का दाना-पानी क्यों बंद करवा दिया?"
यह डाघीया जब भी विवाद में उतरता है, हरतरफ की बातें ले आता है.. "वो कबूतर भी तुम्हारी ही तरह अपनी तादात खूब बढ़ा चुके है। तुम काट लेते हो, और वे चिरक जाते है। यहाँ-वहाँ कुछ भी देखे सोचे बिना मर्जी पड़े वहां मल त्याग देते है।"
"वो तो तुम लोग भी खड़े खड़े दिवार भीगाते हो।"
"अरे लेकिन शहर इंसानों के लिए है न?"
"देख उगलवा लिए न तुझसे। कि तुमलोग जीवदया का नाटक करते हो। तुम्हे इंसानी बस्ती में और कोई जिव चाहिए ही नहीं। फिर यह हमे पालने का नाटक बंद करो। तुम्हारी चौकीदारी भी करें, और तुम्हारे कहने पर तड़ीपार भी हो जाएं? और तुम क्या सोचते हो? कबूतरों को चड्डी पहननी चालू कर लेनी चाहिए?"
"अरे कबूतर तो मंदिर, मस्जिद, कुछ नहीं बक्शते। घर की बालकनी भी बिगाड़ देते है।"
"तो तुम लोग उसके दाने पर प्रतिबन्ध लगा दोगे?"
"हमारा शहर, हमारी मर्जी।" मुझे पछतावा होने लगा, कि कहाँ मैंने आ बैल मुझे मार वाला काम लार लिया।
"अरे तुमसे तुम्हारा शहर तक साफ़ रखा जाता नहीं, खुद ही कितना कूड़ा फैलाते हो.. और फिर नाम देते हो कबूतरों का। तुम लोगों ने फैसला ले लिया की कुत्ते नहीं रहेंगे राजधानी में। लेकिन तुम चाहते तो हमारी जनसँख्या पर नियंत्रण पा लेते। लेकिन नहीं, भ्रष्टाचार तो वहां से भी कर पाने का चांस है न।"
"ठीक है, तुझ से तो बात करना ही गलत है।"
"मैंने तो सुना था, इंसानों के पास बुद्धि होती है। तुम्हे तो भोजन तक हम पशुओं के बिना नहीं मिल पाता। बड़ी चाव जो पिज़्ज़ा के रेसे खींचते हुए खाते हो न, उस चीज़ के लिए दूध एक पशु से ही लेते हो।"
प्रियंवदा ! मुझे इंसान होकर भी दुम दबाकर भागना पडा। डाघीया सदा से मुझे इसी तरह अपने शब्दजाल में फंसा लेता है। और हमेशा ही मैं, इसी तरह भागकर उससे पीछा छुड़ा लेता हूँ। खेर, अभी आठ बज गए। और वैसे भी घर जाने का समय हो गया। तो तुमसे भी विदा लेता हूँ।
शुभरात्रि।
१३/०८/२०२५
|| अस्तु ||
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