हठ का मूल्य और घमंड की हानि
प्रियंवदा ! हम लोग कईं बार खुद का घाटा मंजूर कर लेते है, लेकिन एक हठ नहीं छोड़ पाते। इसी दौर से मैं भी गुजर रहा हूँ। कईं बार हम कुछ सीधे मुँह नहीं कहते। लेकिन इशारा छोड़ देते है। कि अगला समझ जाए। या फिर जैसे किसी का महत्त्व क्या है, वह बहुत बाद में समझ आता है। दुनिया में किसी के बिना कोई काम रुकता नहीं है प्रियंवदा। थोड़ा समय लेता है, लेकिन कभी भी, कुछ भी, किसी के लिए अटकता नहीं। जब मैं शुरू शुरू में नौकरी चढ़ा, तब मेरी फिल्ड में जिन्हे कंप्यूटर चलाना आता है, उनका एक अलग दबदबा हुआ करता था। मैं भी घमंड में था, कि मैंने अगर नौकरी छोड़ दी, तो उसका काम फंस जाएगा। और हकीकत में फंस गया। लेकिन एक सप्ताह बाद, पुनः पटरी पर चढ़ गया। और मैं नौकरी छोड़कर छह महीने इधर उधर भटकता रहा।
तीन सीखें जो जीवन बदल दें
दो बातें तब सीखी थी मैंने, दो नहीं वैसे तीन। पहली, घमंड मत करो, कि तुम्हारे बिना दुनिया रुक जाएगी। दूसरी पहले से कहीं नौकरी ढूंढकर रखनी चाहिए, उसके बाद ही यह नौकरी छोड़नी चाहिए। तीसरी बात मुझे घरवालों ने सिखाई, वह थी घर का एकमात्र बेटा - घर पर नहीं बैठा रह सकता। एक समय पर लाड से पुचकारती माँ भी ताने मारने लगती है। तब युवानी का तौर था, फूटती युवानी या, लड़कपन.. क्या कहूं.. उन दिनों में हर पुरुष जो उम्र के उस पड़ाव पर होता है, उसमे अतुलित बल होता है। या वह एक अमर्यादित बल का अनुभव करता है। उसी समय यदि उसे कोई राह मिल गयी, फिर वह बेरोक आगे बढ़ जाता है। बशर्ते राह अच्छी होनी चाहिए। क्योंकि वही उम्र में बुरी और अच्छी दोनों आदतें बनती है।
बेवड़े की महफ़िल और गजे की खबर
खेर, आज सावन का दूसरा सोमवार है प्रियंवदा। सवेरे उठकर नहाधोकर शिव मंदिर तो नहीं, जगन्नाथ जी के वहां जरूर गया। और ऑफिस जाते हुए रास्ते में गजे ने रोक लिया। कल रात जब हम बैठे थे, तो एक बेवड़े ने हमारी बातों में भंग किया था। उसी बेवड़े ने कल रात, तीन खड़ी कार के कांच फोड़ दिए। प्रियंवदा ! कभी कभी लगता है, जितना मजा मुझे मेरी तारीफ़ सुनने में नहीं आया होगा, उतना मजा किसी बेवड़े की बातें सुनने में आता है। कल रात ग्राउंड में जब वह बेवड़ा आया, हमें पहचान गया, बापु ! बापु ! करने लगा। और खुद को ही गाली निकालने लगा। खुद पीकर टल्ली था, लेकिन दूसरों की महफ़िल खराब करने निकला था। बेवड़ा खुद दारु को कोस रहा था। इससे मजेदार क्या हो सकता है?
तो हमने उसे कुछ देर बातों में उलझाया, उसकी लड़खड़ाती जुबान से निकलते शब्द जैसे संगीत का कोई अलौकिक राग हो.. कुछ देर बाद उसे कुछ याद आया, वो चल पड़ा। आगे कुछ और लोग बैठे थे। उन्हें हमारी तरह मजे लेने नहीं आता होगा। तो उन लोगो ने इस बेवड़े को गालीगलौज कर भगा दिया। तो सवेरे मुझे गजे ने रोककर बताया की रात को उस बेवड़े ने आसपास खड़ी तीन-चार कार के कांच फोड़ दिए। बताओ, पचीस हजार का कांच लगता है, एक SUV कार का। खेर, मैं ऑफिस आते हुए, रास्ते में एक मंदिर है। वहां शिवलिंग पर जलाभिषेक कर ऑफिस पहुंच गया। गजे की कल रात की बात पर मैंने निर्धारित किया था, कि आज से मावा बंद। लेकिन ऑफिस वाले ओफ्फिसिया गजा दो मावा ले आया। पलभर में मैं फिर से भूल गया कि मैंने मावा छोड़ने का निर्णय लिया था।
व्यसन की मनोवैज्ञानिक गहराई
व्यसन छोड़ना आसान है। व्यसन छूट तो सकता है। बस एक डर बैठ जाना चाहिए भीतर। या फिर घृणा हो जानी चाहिए। वो जो बात है न, इच्छाशक्ति.. या फलाना-ढिमकाना.. वो सब तुक्के है। कुछ वर्ष पूर्व मैंने छह महीने के लिए सब कुछ छोड़ दिया था। डर बैठ गया था। छह महीने में निकल गया। और सब फिर से चालु हो गया। इच्छाशक्ति की बात नहीं थी, बेख़ौफ़ हो गया था। और कुछ महीने तो ऐसे बीते थे, की मन चाहता था की कुछ हो जाए, और तमाम समस्याओं का समाधान हो जाए। और तो कुछ नहीं हुआ, व्यसन घर कर गया। खेर, पुरुषों का मन वैसे भी बड़ा कमजोर होता है। पलभर में भीरु हो जाता है, तो दूसरे क्षण निर्भीक।
सावन सोमवार और क्षुधा पर नियंत्रण
दोपहर को पडोसी के वहां टेक्स वगैरह भरने थे। तो वहां चला गया। धीरे धीरे वह काम मुझे बंद करना है, इस कारण वहां एक लड़के को सब सिस्टम सीखा दिया। सोमवार के चलते भयंकर भूख लगी थी। लेकिन क्या हो सकता है? हम लोग भूख रहने के लिए ही तो ऐसा कुछ व्रत करते है। एक दिन के लिए क्षुधा पर नियंत्रण स्थापित हो पाए। बहुत मुश्किल काम है। क्योंकि भूख के कारण स्वाभाव में भी भारी बदलाव होते है। खेर, घड़ी फ़िलहाल शाम के छह बजने का इशारा कर रही है। सेकण्ड वाली सुई सदैव भागती रहती है। औरो के मुकाबले ज्यादा मेहनत करती है, लेकिन उसकी अवधि औरो के मुकाबले काफी छोटी है। जहाँ एक घंटे की समयसूचक सुई, आलसी की भाँती बहुत धीरे आगे बढ़ती है, फिर भी उसका मूल्य ज्यादा है, ३६०० सेकंड्स।
समय : अवधारणा या यथार्थ?
आज यूँही कुछ सर्फिंग करते करते याद आया, समय मात्र एक अवधारणा है। कोई सजीव या भौतिक वस्तु नहीं। समय स्वयं मानव-निर्मित है। घटना के क्रम को समझने के लिए मनुष्यों ने ही समय बनाया। भारत में कुछ और समय चल रहा है, तो उत्तर अमेरिका में कुछ और। पृथ्वी पर अलग समय चल रहा होता है, तो ठीक उसी समय अंतरिक्ष में अलग..! अजीब है न? इसी ब्रह्माण्ड में भूत, वर्तमान तथा भविष्य तीनो एक साथ उपस्थित है। जो हमें अभी लग रहा है, वह किसी और के लिए भूत या भविष्य हो सकता है। यह हम ही स्वीकारते है, कि समय सिर्फ आगे बढ़ता है। लेकिन वास्तव में हम आगे बढ़ रहे होते है, उम्र से, अनुभव से, शरीर से.. भूत, भविष्य, या वर्तमान हमारे अनुभव मात्र है, ब्रह्माण्ड के लिए वह घटना मात्र है। कोई समयखण्ड नहीं। हम अतीत को याद कर सकते है, लेकिन भविष्य का अनुमान नहीं कर सकते इस लिए हमें लगता है, समय आगे बढ़ रहा है।
यह सब धारणा-अवधारणा की बातें है प्रियंवदा ! वास्तविकता से परे। मुझे इतना पता है, कि जो घडी अभी तक छह बजने का समय बता रही थी, वह अब कह रही है, कि समय हुआ सवा छह। मतलब पन्द्र मिनिट का समय अभी अभी भूतकाल हो गया। पाठक ! आप भी सोचिये, आपने यह पढ़ने में कितना समय खर्च किया? या यह पढ़ने में समय लगा, या फिर यह एक घटना हुई?
शुभरात्रि।
०४/०८/२०२५
|| अस्तु ||
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– दिलावरसिंह