अकेलापन या आत्मचिंतन? ऑफिस और कमरों के बीच उलझा मन
लो प्रियंवदा ! फिर से अकेलेपन का आराधक हाजिर है, तुमसे कुछ कहने..! अब क्या बताऊँ? अब मुझे कईं बार अकेलापन अनुभव होता है, प्रियंवदा। कईं बार ऑफिस में जब कुछ काम नहीं होता, तब इस २ BHK की कैद में फंसा हुआ सा अनुभव करता हूँ। बिलकुल ही अकेला। और फिर यह अकेलापन दिमाग में चढ़ बैठता है। मोबाइल को तो छूने का मन नहीं करता। कंप्यूटर स्क्रीन के सामने बैठकर भी किस विषय में छानबीन की जाए, यह तक समझ नहीं आता। क्या पढ़ा जाए, क्या देखा जाए, क्या सुना जाए... कुछ समझ आता नहीं, बस सुन्न पड़ जाता है दिमाग। पहले तो उल्टा मजा आता, जब अकेला होऊं.. अब जैसे किसी का साथ चाहिए। तुम्हारा प्रियंवदा... और कौन..
सवेरे देर से उठने के कारण मैदानी कसरतों का सिलसिला काफी कम हुआ..! और ऑफिस पहुँच आया। आज दुकान पर रुका ही नहीं मैं। न ही सिगरेट, न ही मावा। एक ब्रेक लिया है। देखते है, कितने दिन खिंच पाता हूँ। यह सीधा सीधा डर के कारण ब्रेक बैठा है। जबकि दोपहर को तो फिर से एक बार निर्भीकता और एक बेदरकार मन हुआ था, कि वैसे भी क्या रखा है इस फानी संसार में। लेकिन नियंत्रण रख पाया। दोपहर तक ऑफिस का अकेलापन मन को भारी करता रहा। फिर कुछ देर बहुत पुरानी इ-बुक के पन्ने पलटता रहा। आखिरकार एक बज गया। एक बजे मार्किट जाना था।
राखियों का मौसम और मेलों की स्मृतियाँ
रक्षाबंधन आने वाली है प्रियंवदा ! राखियां कुरियर में आती है। अभी तक दो कुरियर आ चुके है। खर्चालु महीना है यह सावन। रक्षाबंधन, फिर सातम-आठम, फिर गणेश चतुर्थी.. लगातार त्यौहार, और खर्चे..! जन्माष्टमी पर गुजरात में लगभग हर जगह मेला लगता है। मुझे याद नहीं आखरी बार कब मेलें में गया था। मेला मतलब काफी सारे लोग। काफी सारे लोग मतलब लड़ाई-झगड़ा। हाँ ! हर मेले में छोटे-मोठे पंगे हो ही जाते है। खेर, मेले में बचपन के बाद कभी भी जाना हुआ नहीं। वहां बड़ा सा गोल झूला होता है, चकडौल कहते है। एक बार उसमे बैठा था। काफी मजेदार रहा था। लेकिन एक कटोरे छाप राइड थी कोई, एक तो वह पूरी घूम रही थी, ऊपर से जिसमे बैठे थे, वह कटोरी खुद भी अपनी धुरा पर गोल गोल घूमती रही। उस दिन अनुभव हुआ की, शरीर में आतंरिक अंग भी होते है।
डोपामाइन, एडिक्शन और भावनाओं की रसायनशास्त्र
मजा आता है, उस राइड की समाप्ति के बाद। एक अनुभव होता है, डर पर विजय का। या जैसे कुछ बड़ा कर दिखाने का अनुभव। जैसे दिमाग में डोपामाइन की बाढ़ आ गयी हो। अरे हाँ ! यह शब्द 'डोपामाइन' पहली बार गजे से सुना था। जब हमे अच्छा महसूस होता है, तब दिमाग में डोपामाइन रिलीज़ होता है। किसी का मेसेज आए, और लगें की किसी ख़ास का है, बस वहीँ डोपामाइन बूस्ट हो गया। कभी कभी पूरा एक सेटअप बनता है, जैसे कोई लंबी प्रक्रिया हो, किताब लिखना, या कोई सपना पूरा करना हो.. वहां धीरे धीरे यह डोपामाइन बिल्डअप होता है। तुम्हे पता है प्रियंवदा? डोपामाइन और एडिक्शन में एक गहरा नाता है। एडिक्शन से डोपामाइन रिलीज़ होता है, और डोपामाइन के कारण एडिक्शन..! काश तुम भी डोपामाइन होती, और मुझे तुम्हारा एडिक्शन..!
टेरिफ्स, नोबेल और वैश्विक व्यंग्य के रंग
हम जो चाहे वही हो, यह भी एक तुक्का ही है प्रियंवदा। जैसे, यह वैश्विक राजतन्त्र में उछलते हुए मक्केदाने से जगत-जमादार साहब। पृथ्वी अपनी धुरा पर घूम सकती है, यह परमिशन इन साहब ने ही दी है। पहले अपने वाले कहते थे, वॉर रुकवा दी.. वॉर रुकवा दी.. अब यह जगत जमादार। वो भी अपनी जगह ठीक है। आत्मश्लाघा सुननी किसे पसंद नहीं होगी? मुझे भी बड़ी प्रिय है, तुम और मेरी तारीफ़। खेर, उन साहब को चाहिए नोबेल का शांति पुरस्कार। नोबेल वाले भी पता नहीं क्यों देरी कर रहे है। इन्हे दे देना चाहिए। ताकि शान्ति की स्थापना हो सकें। क्योंकि यह साहब खुद ही टेरिफ्स लगा कर अशांति फैला रहे है।
खबरों में सुनता हूँ, कि आज साहब ने इतने प्रतिशत टेर्रिफ्स लगा दिए भारत पर। और इतने प्रतिशत पेनल्टी लगाएंगे। पेनल्टी माने दंड या जुरमाना..! किस बात का? और तुम्हे यह अधिकार देता कौन है? नहीं, मतलब खुदने ही अपराधी मानकर खुद ही दंड लगा दोगे? फलाने देश पर २०%, ढिमकाने देश पर ५०%.. पेंग्विन भी नहीं बक्शे है महोदय में। पेंग्विन बसते है उस द्वीप पर भी कुछ प्रतिशत लगा दिया। शांति समझौते करवाने का बड़ा चस्का चढ़ा है। फिर अभी तक इजराइल-ग़ज़ा के बिच क्या होली की पिचकारियां चल रही है? नहीं मतलब कुछ सेन्स तो होना चाहिए आदमी है। यह नहीं कि कैमरा देखा नहीं की मुंह उठाकर लगे बड़बड़ने। लगता है, उम्र और जेलनिवास का गहरा असर पड़ा है। पहले वाले दद्दा चलते चलते दिशा भूल जाते थे। अभी वाले जुबान..!
प्रियंवदा! तुम होती तो शायद डोपामाइन नहीं, आदत होती…
पौने सात बज गए। पूरा दिन बस अकेलेपन के आगे अड़ने में व्यतीत हुआ है। प्रियंवदा ! आजकल रातें ठंडी हो जाती है। उन सर्द रातों को लौटने का समय करीब आ रहा है। जिन रातों पर विरही अपनी कलम चलाते शब्दों को गूंथते है। उन रातों में उल्लू शाख पर बैठकर डराते है। हवाएं भी कपकपाती है। लेकिन अभी तो आड़े दो महीने पड़े है। साठ दिन.. सर्दियाँ मुझे सदैव से पसंद है। क्योंकि गर्मियां मुझसे सहन नहीं होती। जैसे सहन नहीं होता प्रेम। विरह में ज्यादा आनंद है, जितनी दूरियां अधिक, उतना ही संबंध और संवाद मजबूत। शब्दों की निखारने की ताकत विरह में है। विरह का श्याम अति सुन्दर है, प्रेम की धवलता से। हैं न? तभी तो प्रतिदिन तुमसे यह संवाद करने दिलायरी में लौट आता हूँ प्रियंवदा।
शुभरात्रि।
०५/०८/२०२५
|| अस्तु ||
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