"जब ‘वाक़िफ़’ ने दिला दी जीत और बॉस ने तोड़ी झुंझलाहट"
प्रियंवदा ! कमाल हो गया। मुझ से तुकबंदी की दो लाइन पूरी नहीं हो रही है। इतना विचारशून्य तो मैं कभी भी नहीं हुआ.. उससे भी बड़ी बात, तुकांत ही नहीं मिल पा रहा है। हालाँकि इतना गहन विचार और महेनत भी नहीं की है मैंने। लेकिन फिर भी, यदि दो लाइन लिखने के लिए भी सोचना पड़े, मतलब कमाल ही है। वैसे भी कठिनाई न हो उसमे मजा किस बात का? चलो फिर वह लाइन यहां भी लिख ही देता हूँ,
मैं भारत की इकनॉमी सा, तुम अमरीकन टैरिफ प्रिये,
मैं धीरज धर बढ़ता रहता, taco से हूँ वाक़िफ़ प्रिये...!
अरे यह तो हो गया। बताओ, सवेरे से पूरा नहीं हो रहा था। और अभी टाइप करते-करते अंतिम चरण पूरा हो गया। ऐसा ही है प्रियंवदा। तुकांत का 'वाक़िफ़' शब्द नहीं मिल रह था। टेरिफ से साथ तुकांत लायक कोई शब्द ही नहीं याद आ रहा था। बहुत फेर बदल की, सोचा आखिर में टेरिफ हटाकर अमरिकन कर देता हूँ, तो अमरिकन के तो बहुत सारे तुकांत शब्द मिल सकते थे। खेर, दिलायरी ही सही, यहीं शब्दों को समेट पाया।
"मैदान की सैर, मोबाइल नेटवर्क की मार और गालियों का बाज़ार"
आज तो सवेरे जाग गया था, लगभग साढ़े सात तक मैदान को नापता रहा। और घर आया, तब कुंवरुभा भी स्कूल के लिए तैयार हो चुके थे। तबियत नरम थी, फिर भी स्कूल तो जरूर से गए। और फिर मैं ऑफिस आ गया। आज काम तो कुछ ख़ास था भी, और नहीं भी। दिनभर गूगल मैप्स पर अपने रूट को निहारता रहा। दोपहर हो गयी, घर नहीं गया। यहीं ऑफिस पर ही नाश्ता कर लिया। लेकिन तीन बजे घर से फोन आया, कि नारियल चाहिए। कुँवरुभा तप रहे थे।
कभी कभी यह मोबाइल नेटवर्क बड़ा परेशान करते है। आज दोपहर तक किसी को भी फोन मिले ही नहीं। अगर मिल भी जाए तो आवाज न जाए। और आज तो ज्यादातर काम फोन पर ही होने थे। अच्छा है, कि व्हाट्सप्प वाला कॉल की सुविधा देता है। लेकिन उसकी भी मुख्य समस्या है, नंबर सेव करना पड़ता है पहले। काफी फ़ालतू नंबर सेव करने पड़े। प्रियंवदा ! इस मामले में मैं बड़ा झूठ बोलता हूँ। नंबर सेव न करना पड़े, इस लिए सामने वाले से ही कह देता हूँ कि 'Hi' का मेसज भेजना, मेरे में आपका नम्बर शो नहीं हो रहा है। और अगला भी फालतू झमेले में पड़े बिना तुरंत hi लिखकर भेज देता है। लेकिन आज तो बात कॉल की थी, इस लिए मुझे ही सेव करने पड़े।
ऐसी दिनभर में कईं सारी छोटी-छोटी आलस मैं कर लेता हूँ। एक और गन्दी आदत पाल ली है मैंने भी। नोटिफिकेशन बार में से मेसेज पढ़ लेने की। लेकिन लोग भी शातिर हो चले है, मेसेज करने के बाद फोन भी करते है, कि फलां फलां बात मेसेज में लिखकर भेज दी है। अरे जब मेसेज कर ही दिया है, तो फोन करके भी क्यों इन्फॉर्म करना है? ओवर सिक्योर हो जाते है लोग भी। अपनी और से कोई कमी नहीं रखना चाहते। ऐसे ही कुछ लोग होते है, जो कम्पनी चलाते है। और बॉस कहे जाते है। कुछ बॉस लोग सोचते है, सारी ही दुनिया मेरी स्टाफ है। मैं अपने स्टाफ से जैसे बर्ताव करता हूँ, वैसा ही बर्ताव मुझे किसी और के स्टाफ के साथ भी करने का अधिकार है।
व्यापारियों का जमाल और कर्मचारियों का धमाल
ऐसे कईं सारे मुझ से अपना मानभंग करवा चुके है। एक अलग तौर में बात करते है, जैसे मैं भी उनके पास नौकरी करता होऊं। एक बार क्या हुआ, कि एक व्यापारी की गाडी लोड हो रही थी। किसी कारणवश गाडी लोडिंग में देरी हो गयी। अब अगला राशन पानी लेकर चढ़ दिया, "पैसे दे रहा हूँ, मुफ्त में माल नहीं खरीद रहा, लेट क्यों करते हो, आगे से आर्डर नहीं दूंगा, वगैरह वगैरह.." यही बात वो चाहता तो शालीनता से कर सकता था, कि भाईसाहब, देर मत कीजिए, मुझे भी आगे माल सप्लाय करना होता है.. लेकिन नहीं। अब उसके इसी बर्ताव के कारण मेरे बिलिंग सॉफ्टवेयर का सर्वर डाउन हो गया, और एक दिन फ़ालतू गाडी खड़ी रह गयी। नरम लहजे से बात करता तो सर्वर डाउन न होता।
कुछ व्यापारियों को देखा है मैंने, अपने पास नौकरी करते कर्मचारी को कुछ समझते ही नहीं। जैसे उसकी कोई इज्जत ही न हो। एक बार एक ऐसा ही व्यापारी आया, उसके लेजर में कोई फर्क था। उसके अनुसार उसके अकाउंटेंट ने मुझे आ रहे डिफ्रेंस की सुचना का कॉल किया था, जबकि मेरे पास कोई कॉल आया न था। अगले ने पहले तो अलग ही तौर में मुझसे पूछा, कि "आपको बताया गया था, तब भी आपने डिफ़रेंस पर कोई ध्यान नहीं दिया?" मुझे तो पता था कि मेरे पास ऐसी कोई सूचना का कॉल आया न था। तो मैंने सीधे ही पूछ लिया, "कौनसा डिफ़रेंस? कैसा डिफ़रेंस?" इस बात को उसने ईगो पर ले लिया, और एक अलग ही ऐटिटूड में बोला, "अभी पता कर लेते है।" उसने अपने कर्मचारी को फोन मिलाया तो उसे पता चला, कि उस व्यक्ति ने मुझे फोन किया ही नहीं है। उसने अपने कर्मचारी को खूब खरी-खोटी सुनाई। लेकिन मेरे आगे अब उसका लहजा बिलकुल हो नरम हो गया।
कुछ कर्मचारी भी अलग मिट्टी के बने होते है। लगता है, जैसे कि वे लोग नौकरी ही गाली खाने के लिए करते हो। मैं पहले जहाँ काम करता था, वहां एक आदमी दिनभर में दस गालियां न सुने तो शायद उसे खाना ही हजम नहीं होता था। और हम सब आपस में मजे लेते थे कि कोई गाली खाने का पगार कैसे ले सकता है? कम से कम गालियां तो मुफ्त में, फोकट में होनी चाहिए। वैसे कुछ कर्मचारी होते भी ऐसे है। जैसे हमारे यहाँ है एक, अगर उसे एक काम दिया कि यह एक नट-बोल्ट खोलना है। तो मुझे पूरा विश्वास है, कि वह रात के आठ बजे छुट्टी होती है, तब तक वह नट से बोल्ट खोल सकता है। अपने यहाँ एक आदमी ऐसा भी है, कि वह आधी बात सुनकर ही काम करने दौड़ पड़ता है। और एक आदमी ऐसा भी है, जो बहुत ज्यादा डिटेलिंग में अपने कार्य का वर्णन करता है। एक आदमी ऐसा भी है, जो बस मार्किट जाने के बहाने ढूंढते रहता है।
खेर, आज शायद यह नौकरी-पुराण खुल गया था। फ़िलहाल आठ बजने को आए है। ऑफिस से बिछड़न का समय नजदीक आ रहा है। और अभी अभी गजे ने कहा, रात साढ़े दस को मैं उसे रेलवे स्टेशन उठाने जाऊं। चल पड़ेंगे, कुछ काम न आया तो।
शुभरात्रि।
१२/०८/२०२५
|| अस्तु ||
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