जुआ, विश्वास और शंका – बाबा स्नेहानन्द से दिलचस्प सोमवार का संवाद || दिलायरी : 11/08/2025

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सोमवार की सुबह और नित्यक्रम से मिली छूट


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    कोई कोई दिन ऐसे भी होते है प्रियंवदा, जब एक ही दिन में दो-दो दिलायरियाँ लिखनी पड़ जाए। आज का दिन भी वैसा ही था। दोपहर से पूर्व बीते कल की लिखी थी, और दोपहर बाद आज की लिखने बैठा हूँ। कभी कभी ऐसा दिन भी होता है, कि आप एक नित्यक्रम से छुट्टी ले लो, या फिर किसी नियम से थोड़ी सी छूट ले लो। सोमवार ऐसा ही है। सावन का तीसरा सोमवार, और बहुत सारे बदलावों भरा सोमवार। सप्ताह की शुरुआत ही दिलायरी लिखने से हुई। 

    आज सवेरे घरवालों के अनेकों प्रयासों के बावजूद, मैं छह बजे नहीं उठा। ठीक पौने सात पर आँखे मलते हुए उठा, और स्वयं को ही कहा, कि इसी तरह दैनिक कसरतों में फिर कभी छुट्टी नहीं लेनी है। जैसे कोई मोटा क्षुधा से परहेज करने की चेष्टा करे। मैं जानता हूँ, मेरा नूतनता के प्रति का उत्साह। कुछ ही दिनों में मेरे अच्छे अच्छे नित्यक्रम धराशायी हो जाते है, यह तो शारीरिक परिश्रम का मामला है। किसे पसंद होती है महेनत? सब चाहते है, आराम पूर्ण जीवन हो। कौन चाहता है, सवेरे जल्दी उठना, मैदान में कसरतें करना, और दिनभर मानसिक श्रम पूर्ण नौकरी भी करना। कोई नहीं चाहता होगा। 

    खेर, सोमवार का व्रत तो करवाते ही घरवाले। और उनकी आस्था अनुसार मैं कर भी लेता हूँ। लेकिन एक समय पर भोजन के साथ वाला व्रत। यूँ तो दिनभर भूखा रहकर जैसे मैं अपने आप पर ही उपकार कर रहा होऊं। खेर, सवेरे ऑफिस आया, तो काम तो कईं सारे थे। लेकिन सबसे पहले कल की दिलायरी पूर्ण की। और पब्लिश कर दी। साथ ही साथ ऑफिस के अन्य काम भी निपटा दिए। कब दोपहर का एक बजा है, पता ही न चला। वैसे समय का पता न चलने का एक और कारण है। स्नेही से चली एक छोटी किन्तु वैचारिक चर्चा। 

जुए पर बाबा स्नेहानन्द का दृष्टिकोण

    जुए के विषय पर जब स्नेही ने कहा, कि यूँ तो तुमने महाभारत और धर्मराज को जुए के नाम पर घसीट लिया, लेकिन यह सोचा है, कि जुआ कहाँ नहीं है? एक ही वाक्य में कहूं तो यह जीवन ही जुआ है। आज स्नेही के स्वरुप में साक्षात उन्हें बाबा स्नेहानन्द कहना चाहिए। किसी दार्शनिक की तरह, उन्होंने जुआ, विश्वास, शंका पर अपने मत रखे, लेकिन मैं ठहरा अश्रद्धालु.. तो मैंने उनके मत के समूल खंडन करते तर्क धर दिए। जिसपर बाबा स्नेहानन्द ने दो शब्दों में कहा, तुम अविश्वासी हो। मुझे चाहिए, सम्पूर्ण समर्पण। चलो फिर बाबा से हुए इस संवाद को थोड़ा सविस्तार लिख देता हूँ, ताकि आज की दिलायरी की विस्तृति का भी जुगाड़ हो जाए। 

    इस अखिल ब्रह्माण्ड में, वैवस्वत मन्वन्तर में, अठाइसवे महायुग के कलियुग में, शतभिषा नक्षत्र में, विक्रम सम्वत २०८२ की, अमान्ता माह श्रावण की कृष्णपक्ष की द्वितीया तिथि पर, जम्बूद्वीपे भरतखण्डे, पश्चिम स्थान मैंने लिया, और पूर्व में बैठे बाबा स्नेहानन्द। इस महाविचार सभा में कोई तृतीय प्रेक्षक था नहीं। बाबा स्नेहानन्द ने उपदेश देते हुए कहा, ""है वत्स, तुमने जो कल अपनी लेखनी से जुए को उजागर किया, वह हमें प्रसन्नचित्त लगा। लेकिन तुम्हे क्या लगता है, यह जो ट्रेडिंग कही जाती है, क्या वह भी एक जुआ है?"

    "बाबा ! आपका दृष्टिकोण तो निराला है। आप तो सर्वज्ञ होकर भी मुझसे पूछ रहे हैं, तो जरूर इसमें कोई गूढ़ ज्ञान की बात होगी। मैं अपनी क्षमतानुसार यदि कहूँ तो, यदि पूरा ज्ञान हो इस विषय का, तथा सारी गणनाएं यदि सटीकता से संपन्न होती है, तो यह जुआ नही है। लेकिन यदि मात्र और केवल भाग्य को नींव मानकर चिनाई करते हुए दाव खेला जाए तो यह निःशंक एक जुआ ही है। क्या मैं सही हूँ?"

    "हाँ! कुछ अंश तक, लेकिन यहां तुमने इंट्राडे का जिक्र नही किया। क्या वह शत प्रतिशत जुआ ही नही है?"

    "बाबा जरूर से मेरी परीक्षा ले रहे है। पर मैं भी अपनी समस्त क्षमताओं से उत्तर दूंगा। मुझे यह लगता है, कि जिन्हे इस इंट्राडे की कलाबाजियां आ चुकी है, वे ही इस भूगर्भ में उतरते है। मुझ जैसे अज्ञानी तो ज्ञानप्राप्ति के तुरंत बाद पीछेहठ कर लेते है।"

    "सत्यवचन ! साधो ! यही सही विकल्प है। अन्यथा संपदा के साथ सुख भी चला जाता है।"

    "बाबा ! अपना ही अनुभव यदि कहूं तो, टाटा स्टील पर मैंने अपना भाग्य दाव पर लगाते हुए एकसौ उनसत्तर पर खरीदी की थी, लेकिन वह एकसौ अठारह तक भूगर्भ की और प्रस्थान कर गया। उसके बाद वह एकसौ अट्ठावन के बाद आगे ही नहीं बढ़ पाया।"

    "तो वत्स ! तुम्हे क्या लगता है? विश्वास है?"

    "विश्वास.. वह क्या होता है बाबा?"

    "तो वत्स ! सब कुछ ही जुआ है फिर तो। जीवन भी, शिक्षा भी। हम बस भाग्य के भरोसे ही तो है। कोई भी कदम उठाते है, यह सोचकर कि ऊपरवाला देख लेगा। यहां हम हमारी अपनी महेनत ही हमारी इन्वेस्टमेंट हुई।"

    "फिर तो बाबा, हम सब जुआरी है।"

    "निःसंदेह।"

    "बाबा ! शर्त लगाना भी जुआ ही हुआ?"

विश्वास बनाम शंका – किसका पलड़ा भारी?

    "शर्त में विजय चाहिए यदि, तो एक दृढ विश्वास होना चाहिए।"

    "लेकिन बाबा ! विश्वास तो कमजोर है। उसका तो कोई भी घात कर जाता है।"

    "वत्स ! भाग्य कुछ भी नहीं। सब कुछ विश्वास ही होता है। जितना अँधा विश्वास, उतना तगड़ा नसीब।"

    "तो क्या दृढ विश्वास के दम पर हम परिणाम बदल सकते है?"

    बाबा ने अपना मुँह और गंभीर करते हुए कहा : "विश्वास हो तो चेतना प्रकटती है। और चेतना में किये हुए किसी भी कार्य का परिणाम अनुचित नहीं होता।"

    अब मुझे थोड़ी खुराफात सूझी। "तो बाबा, एक उदहारण से समझते है। मैंने टाटा स्टील ख़रीदा था १६९ पर। मुझे विश्वास था वह २०० + जाएगा। लेकिन वह तो उल्टा ११८ चल गया। अब इसमें क्या गलत है? मैं, मेरा विश्वास, या टाटा स्टील स्वयं?"

    बाबा अपना वही अंदाज़ बरक़रार रखते बोले, "पूरा विश्वास था तुम्हे वत्स? क्या तुम्हे संदेह का लेशमात्र भी विचार नहीं था?"

    "बाबा, हर ट्रेड में बेकफायर का डर तो होता ही है।"

    "बस तो विश्वास अधूरा था तुम्हारा।"

    "लेकिन बाबा ! कुछ ट्रेड ऐसे भी तो हुए थे, जहाँ विश्वास का नाम मात्र न था, केवल और एकमात्र भय था। फिर भी प्रॉफिट हुआ था।"

    "अरे वत्स ! वहां तुम्हारे डर का विश्वास था। विश्वास के साथ किन्तु-परन्तु नहीं होता है। तुम्हारे डर को पता था तुम्हारी सहन शक्ति कितनी है।"

जुआ, रिश्ते और जीवन की सबसे बड़ी बाज़ी

    "बाबा, आप तो द्वितरफी बातें कर रहे है। मेरी समझ से परे है। मैं उदहारण बदलना चाहूंगा। मान लीजिए कोई लड़का-लड़की एक सच्चे प्रेम में है। फिर भी उन दोनों के मध्य एकाध बार तो ऐसा विचार पनपता ही होगा, कि मेरा पार्टनर मुझसे चीट कर रहा है। बस अगर उस ख्याल को नजरअंदाज कर दिया, तो बात लम्बी चलेगी। अन्यथा झगड़ा होकर सारा मामला फिट्टूस हो जाएगा। बात का केंद्रबिंदु यही विश्वास है।"

    "वत्स ! तुम कुछ ज्यादा ही बातें बना रहे हो। विश्वास होता है, वहां ऐसे ख्याल/विचार नहीं पनपते।"

    "बाबा ! आप तो जानते ही है। विश्वास अकेला नहीं रह सकता। शंका उसके साथ बसती है।"

    "असंभव ! शंका कभी भी विश्वास के साथ नहीं रह सकती। बल्कि शंका से तो विश्वास गभराता है। शंका के आते ही विश्वास चला जाता है।"

    "आपका ज्ञान तो अपार है बाबा ! मैं तो अज्ञानी आपसे कहाँ विवाद कर पाउँगा। मेरी मति अनुसार तो शंका तथा विश्वास दोनों ही अपनी चेतना में एक तराजू में बैठे रहते है। किसी घटना, प्रक्रिया पर जो पलड़ा झुकता है, वह अपना प्रभाव बनाता है।"

    "वत्स ! अनुभव के आधार पर ही दृष्टिकोण बनता है। तुम्हारे अनुभव को तुमने सही बयां किया है।"

    "धन्यवाद बाबा इस तारिफ के लिए। लेकिन मैने अपने अनुभव से यही देखा हैं, कि इस संसार में तो कोई भी ऐसा नहीं है, जो किसी पर पूर्ण विश्वास करता हो।"

    "वत्स ! बात चली थी जुए से, विषयांतर हो चला विश्वास पर। तुम बहुत बकैती करते हो।"

    "बाबा ! सबसे बड़ा जुआ मुझे लगता है 'रिलेशनशिप'.. क्योंकि यही सबसे बड़ा फायदा है, और सबसे बड़ा नुकसान भी।"

    "तुम नहीं रुकोगे ! बकैती पर विश्वास मत किया करो इतना। यह भी जुआ है। चलो अब हमारी साधना का समय हो गया है। तुम्हे तुम्हारी नकारात्मकता मुबारक।"

    और बाबा इस तरह अंतर्ध्यान हो गए अचानक से। अब मेरे पास कोई विकल्प न था। कौन सही है? विश्वास के साथ शंका, या शंका से डरता विश्वास? या फिर जुआ? मैं अपने मनोमंथन में नीरक्षीर करने का विवेक खो चूका हूँ। मैं नहीं जानता हूँ, किस पर कितना विश्वास करना चाहिए? या किस क्षेत्र में शंका को स्थान ही नहीं देना चाहिए? जुआ खेलना हो तो उसकी सीमा क्या है? क्या वो लप्पू सा कहा गया सचिन सही है सीमा के साथ? मैं नहीं जानता हूँ। अज्ञानसागर में गोते लगाने में मजा बड़ा आता है मुझे। तुम्हे भी आता होगा पाठक, यदि तुम पढ़ रहे हो।

अतीत की गलियों में – वड़ोदरा के हॉस्टल दिन

    इन सब मनोमंथनो को छांटते हुए मैं दोपहर को घर चला गया। सोमवार के व्रत में एक समय के भोजन का विकल्प का मैंने दोपहर को ही उपयोग कर लिया। मस्त खीरपुरी को गले तक ठूंस कर, वापिस ऑफिस लौट आया। दोपहर बाद एक लेख पढ़ रहा था। काफी पुरानी यादों को जगा गया वह लेख। उन यादों को, जिन्हे मैं अमूल्य मानता हूँ। जब मैं वड़ोदरा गया था पहली बार। मुझे वो सारा वाकिया नजर समक्ष हो आया। दसवीं कक्षा के तुरंत बाद डिप्लोमा करने वड़ोदरा पहुंचा था। पहली बार घर से इतना दूर, परिवार से भी। 

    लड़के है तब भी, मन में एक ख्याल तो बनता ही है। ऊपर से मैं ठहरा आलसी जीव। कपडे भी खुद से धोने पड़ेंगे हॉस्टल में तो। बड़ा बेचेन हो गया था। सोच रहा था कि कैसे चलेगा यह नया जीवन। जब मेरा दाखिला वगैरह सारी प्रोसेस हो जाने के बाद हुकुम विदा लेकर घर जा रहे थे, तो मुझे याद है, मैं काफी देर तक उन्हें जाते हुए, उनकी पीठ देख रहा था। भले ही वे जाहिर न करते, पर उनका भी मन शायद न था इस तरह मुझे छोड़कर जाने में। भले ही मैं पंद्रह-सोलह वर्ष का हो चूका था। शायद इसी लीये उन्होंने रेलवे स्टेशन के भीतर सिगरेट पीकर दंड भरा था। 

    उस लेख में वे तमाम भागदौड़ पढ़ी मैंने, और मैं भी अपने उन हॉस्टल डेज की यादों में खो गया था... हम सब कहीं न कहीं उन घर से दूर वाली भावनाओं को सदा समेटे रखते है, अपने मन के किसी बक्शे में, सदा के लिए। लो, आठ बज गए। चार बजे लिखने बैठा था। बिच बिच में काम, और फिर से सारी टूटी लिंक को सांधते हुए यह लिखा। चलो फिर, अब विदा दो।

    शुभरात्रि।
    ११/०८/२०२५

|| अस्तु ||


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