मौसम और मन की उलझनें
प्रियंवदा ! मौसम को पलटते देर कहाँ लगती है? वो भी तुम्हारी ही तरह पहले कुछ और था, अब कुछ और..! सवेरे से आसमान से पानी टपके न टपके, लेकिन सबके शरीर जरूर पिघल रहे थे। हालत तो यह थी कि गर्मी के कारण लोग वोमिटिंग करने लगे थे। कुदरत ही ऐसी है प्रियंवदा। और हमारा यह शहरी शरीर। सर्दियाँ तो खूब झेल ले, लेकिन गर्मियों का कोई इलाज है?
सवेरे आज तो जल्दी उठकर मैदान नापा है मैंने। सारी कसरतें की है। और फिर आ गया ऑफिस। काम तो काफी था, लेकिन समस्या यह थी कि गर्मी से बेहाल थे। मुंबई की रील्स खूब आ रही थी। गेट वे ऑफ़ इंडिया को समंदर नहला रहा था। लेकिन हमारे यहाँ पिछले कईं दिनों से इतनी ज्यादा गर्मी थी। अभी शाम के छह बज रहे है। कच्छ कलेक्टर की सुचना प्रसारित हुई है कि अगले तीन घंटे अति-भारी वर्षा की सम्भावना है। यहाँ तो जरुरत ही है, पास ही समंदर है। जलभराव तो होगा नहीं। गर्मी जरूर ख़त्म हो जाएगी।
दोपहर को बैंक का जरुरी काम था। लेकिन गर्मी को देखते हुए मैंने टाल दिया। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है, जब देखता हूँ, यह लेबर किस मिट्टी की बनी है, जो इतनी गर्मी के बावजूद वजन उठाने जैसा काम भी कर पाते है। लेकिन फिर खुद को दिलासा दे सकता हूँ, कि यह लोग बारह महीने यही काम करते है, तो इनके शरीर भी ऐसी स्थिति के आदी हो चुके है। सवेरे ऑफिस आते हुए मैं ज्यादातर PD या राजवीरसिंह के लेक्चर्स सुनते हुए आता हूँ। आज गलती से किसी और को सुन लिया। वो भी एक बाबा ही थे..! कुछ लोगो ने उन्हें भगवान की उपाधि भी दी है। मैं अब कुछ भी सुन सकता हूँ। ऐसा कुछ जरुरी नहीं है की क्या जानने लायक है, क्या नहीं। अरे कल रात, यूट्यूब पर मैं सुन्नी VS वहाबी सुन रहा था। कुछ भी समझ नहीं आ रहा था फिर भी।
वहाबी आंदोलन की असलियत
वैसे वाजिब कारण है मेरे पास। मैंने राजवीरसिंह के लेक्चर में सुना कि कोई वहाबी आंदोलन हुआ था, अंग्रेजो के काल में। जो समाज सुधार का आंदोलन भी माना जाता है। मैंने कभी नहीं सुना था ऐसे किसी आंदोलन के विषय में। तो रसप्रद लगा। राजवीरसिंह ने बड़ी सही बात बतायी, कि हमारे इतिहासकारों ने जिन जिन लोगों ने अंग्रेजो से लड़ाइयां लड़ी उन्हें देशभक्त का तमगा दे दिया है। हमारे यहाँ एक जाति है। नाम लिखकर बात करूँगा तो विवाद हो जाएगा। उनका पेशा था लोगो को लूटना। राह चलते को लूट लिया करते थे। स्त्री, पुरुष, बालक किसी को नहीं बक्शते थे। अब उनकी लूट के चलते अंग्रेजो ने उन्हें दण्डित करने की कोशिश की। तो उन लोगो ने अंग्रेजो के सामने मोर्चा खोल दिया।
हालाँकि अंग्रेजो के दल के सामने टिक न पाए, और सरेंडर करना पड़ा उन लोगो को। उन लोगो पर घोड़े रखने पर, और हथियार रखने पर भी पाबंदियां डाली गयी थी। तब जाकर वे लोग काबू में आए थे। लेकिन आज उनकी कहानियां चलती है, कि अंग्रेजो से लड़े थे। अरे आततायी थे आम लोगो के लिए। जैसे पिंडारी लोग, ठग लोग.. लेकिन अपने यहाँ चलन बन गया, अंग्रेजो से लड़े मतलब देशभक्त थे। वहाबी भी कुछ ऐसे ही थे। वे तो निकले ही थे लोगो का बलपूर्वक धर्म परिवर्तन करवाने। उनका तो एजेंडा ही था, अंग्रेजो के स्थान पर इस्लामिक राज्य की स्थापना करनी। तमाम गैर-इस्लामी लोगो को इस्लाम में शामिल करना था उन्हें। अब जिनका आरम्भ ही इस बुनियाद पर हुआ हो कि गैर मुस्लमान लोगो को धर्म परिवर्तन करवाना है, वे देशभक्त कैसे हुए? और वह आंदोलन स्वातंत्र्य आंदोलन कैसे हुआ?
संदेह : आस्था और अनुभव के बीच
खेर, ऐसा तो और भी बहुत कुछ है, होगा, जो मुझे, हमें ज्ञात नहीं होता है। तो मैं ऑफिस आते हुए वे भगवान् की उपाधि धारी के प्रवचन सुन रहा था। उसकी बोली में एक जादू तो अनुभव होता है मुझे भी। लगता है जैसे वह अपनी बातों से वशीकरण कर सकता है। उस प्रवचन में एक बात आयी, कि अगर किसी को संदेह उत्पन्न ही नहीं होता है, तो वह अधूरा है। यह बात मुझे बड़ी सही लगी। क्योंकि मैं भी अपने आप को एक बड़ा ही शंकाशील व्यक्ति मानता हूँ। और वैसे भी मैंने अपने भोलेपन में या अपनी मूर्खता के कारण खूब दगे सहे है। या मैं बड़ा मूर्ख हूँ, या अंधविश्वासी। लोग आसानी से ठग लेते है मुझे। मैं संदेह करता हूँ अब हर किसी पर।
कोई कुछ बात बता रहा हो, तो मैं यह तक सोच लेता हूँ, कि जरूर यह इसी के साथ हुआ होगा, और अब वह किसी और के नाम पर मुझे बता रहा है। कोई मेरे फायदे की बात बता रहा हो, तो मैं यह सोचता हूँ, कि इसमें उसका क्या फायदा छिपा है? और मुझे अब उसका फायदा भी दिख जाता है। संदेह करने के साइड इफेक्ट्स भी बहुत है। किसी से निकटता नहीं पनपती। और घमंडी छवि बन जाती है वह अलग। मुझे संदेह होता है ईश्वर पर भी। क्योंकि मेरी माताजी अपनी नाजुक तबियत के बावजूद दवाई खाकर भी उस ईश्वर का व्रत निभाती है। मुझे संदेह है, पृथ्वी के अवकाश में तैरने पर। मुझे संदेह है स्वयं पर, कि कैसे कोई किसी अपने से विश्वासघात खा सकता है? मुझे संदेह है उस कथित भगवान पर भी.. जो अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से संदेहों का कद बढ़ा रहा था।
दोपहर तीन बजे हम बैंक गए, और लौटे चार बजे। रस्ते में बढ़िया सा बादामशेक का सेवन किया। लेकिन गर्मी के प्रभाव में आकर गजे ने वह ऑफिस पहुँचते ही उगल दिया। मेरे ऑफिस पर लौटते ही काफी सारे काम थे, जिन्हे एक के बाद एक मैं निपटाता गया, और साथ में मोबाइल में चलता रहा तारक मेहता का उल्टा चश्मा। उसमे वो गांधीगिरी वाले एपिसोड्स चल रहे थे। टपुसेना का कॉलेज में एडमिशन वाले। लेकिन बात गांधीगिरी की आयी, तो मेरा रस कुछ कम हुआ। मैं साथ ही कमेंट्स पढ़ने लगा। एक कमेंट था, कि गांधीगिरी उस दिन भी काम नहीं कर पायी थी, न ही आज कर सकती है।
गांधीगिरी और स्वदेशी की ताक़त
मुझे लगा यह भी एक ज्ञान की बात है। एक दृष्टिकोण की बात है। मुझे खुद को भी महात्मा गांधी उतने पसंद नहीं है। लेकिन यह जरुरी तो नहीं कि मुझे बैंगन पसंद न हो तो वह किसी को भी पसंद न आए। गांधी सौ बात में मेरे लिए बुरे हो सकते है, लेकिन मुझे उनका अटैक करने का तरीका रसप्रद लगा। जड़ों में घाव दिया था उन्होंने। अंग्रेज भारत में व्यापार-वाणिज्य के लिए ही पड़े हुए थे? गांधी तो खुद बनिये थे। उनके पिता दीवान थे पोरबंदर के। राजतन्त्र को समझते थे। व्यापार और राजतन्त्र की समझ हो वह बदलाव जरूर ला सकता है। उन्होंने सत्याग्रह, हड़ताल करवा करवा कर अंग्रेजो की आय पर घाव दिया था। साथ ही भारतियों के लिए हक भी।
अब वो बात अलग है, कि भगतसिंह की फांसी रुकवाना उनके हाथ में था, या नहीं था। मुझे नहीं उतरना। लेकिन उन्हें पता था, स्वदेशी में कितनी ताकत है? आज भी लागू होती है यह बात। अमरीका लाख टेर्रिफ लगा ले, यदि हम स्वदेशी वस्तुओं पर निर्भर हो सकते है तो किसी की मजाल नहीं हमारे अर्थतंत्र को देख भी सकें। लेकिन हम मोबाइल से लेकर मोटर सायकल तक विदेशी कंपनियों पर निर्भर है। मैं जो यह ब्लॉग लिख रहा हूँ, वह प्लेटफॉर्म भी तो विदेशी है। न हमारा अपना सोसियल मिडिया है, न हमारे अपने फाइटर जेट्स का अपना इंजिन। क्योंकि हमने सोचा था, कि हमें पैसे कमाने पर प्राधान्य देना चाहिए। पैसे देकर खरीद लेंगे। लेकिन क्या हो अगर विक्रेता बेचने से मना करे, या देरी करें?
आसमान में शिवधनुष का भंग हो रहा है शायद। बड़ी जोर से बिजली कड़की अभी अभी। खिड़कियां भी काँप उठी। कुछ देर तो लगा भूकंप हो गया हो। प्रियंवदा ! मौसम एकदम से ठंडा हो गया। जैसे हिमालय की हवाएं यहाँ पहुँच गयी। आज एक बात और हो गयी, सवेरे मैंने सटोरी का गुजराती रिव्यू पोस्ट किया था, और पोस्ट्स के मुकाबले उस पर काफी अच्छा ट्रैफिक आया। आजकल फिर से बुक्स पढ़ने का कीड़ा काट रहा है। सोच रहा हूँ, यह नशा चढ़ा है, तो लगे हाथ एकाध और पढ़ लू। आजकल उस रोडट्रिप के लिए भी मन बड़ा उत्सुक होने लगा है। पता नहीं क्यों? जबकि मैं तो मानता हूँ, जानता हूँ, अति-उत्साह नहीं करना चाहिए। लेकिन मैं भी वही हूँ, जिनके वश में मन नहीं, मन के वश में वे रहते है।
चलो फिर, आज भी विदा दो, जैसे प्रतिदिन तुमसे विदा लेता हूँ, कम्प्यूटर स्क्रीन पर। श्वेत स्क्रीन पर छपते काले शब्दों से।
शुभरात्रि।
१९/०८/२०२५
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