महाराजा जयसिंह अलवर: सम्मान, विद्रोह और ब्रिटिश भारत की कहानी || दिलायरी : 21/11/2025

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सम्मान, विद्रोह और ब्रिटिश भारत की कहानी

    प्रियम्वदा !

    बीते कल दिलायरी इतिहास से उठायी थी, तो सोच रहा हूँ आज भी कुछ ऐसा ही लिख दू। लोकमानस में, खासकर आज के समय में इतिहास से अनजान युवा यही सोचते है, कि राजा महाराजाओं ने बस ऐश ही किया है। लेकिन भारतीय राजा, खासकर ब्रिटिश भारत में जो भी राजा सिंहासन पर आरूढ़ थे, उन्होंने भले ही युद्ध न किये हो, लेकिन युद्ध से भी विशेष युद्धों के प्रसंग जरूर से निर्माण किये है। 


कार्टून लेखक-चरित्र डायरी लिखते हुए, पीछे महाराजा जयसिंह अलवर की शाही छवि और ब्रिटिश भारत के ऐतिहासिक वातावरण की हल्की झलक।

अंग्रेजों और रियासतों का संबंध

    अंग्रेजकालीन भारत में प्रत्येक राजाओं पर नियंत्रण रखने के लिए राजाओं के उनका विदेश मंत्रालय अंग्रेजों ने अपने हाथ में रख लिया था, और प्रत्येक राज्य में एक अंग्रेज अधिकारी पोलिटिकल एजेंट बनकर बैठा करता। राजा को बाहरी मामले वही संभालता था। कुछ पोलिटिकल एजेंट अच्छे भी थे, कुछ बुरे भी। कुछ को बस दौलत दिखती थी, कुछ को यहाँ की ऐतिहासिक संपदा। 


    राजा भी वीर और धीर हुए है। आजकल शब्द है, न HESITATE न करना..! वैसे ही एक राजा थे, जिन्होंने अंग्रेजो के सामने कभी हेजिटेट माने संकोच नहीं किया। और मुँह पर यहाँ तक कह दिया था, कि "अब आप (अंग्रेज) लोग ससम्मान भारत को छोड़कर वापिस चले जाइये।"


महाराजा जयसिंह का साहस और स्वाभिमान

    भारत भूमि पर राज करते राजा केवल युद्ध में हारजीत के लिए ही मशहूर नहीं थे। बल्कि खेल-कूद, संस्कृति, धर्म, शिकार, आदतें, और अपने प्रेम प्रसंगों के लिए भी विख्यात है। और ऐसी अनेकों कहानियां बड़े चाव से कही-सुनाई जाती आयी है। ऐसी ही एक कहानी है, अलवर के राजा की। जो दो युगों में फंसे हुए थे, परंपरा और आधुनिकता। राजशाही समय में अलवर एक राज्य हुआ करता था। और जयपुर के कछवाहा वंश की नरुका शाखा का अलवर में शासन था। 


    14 जून 1882 में जन्मे जयसिंह अपनी राजपरम्परा के पालक और पोषक थे। उन्होंने अजमेर के मेयो कॉलेज में राजनीती और इतिहास की गहन शिक्षा प्राप्त की थी। लेकिन साथ ही अपनी परम्परा और संस्कृति को उन्होंने नहीं त्यागा था। अंग्रेजी भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी। जयसिंह अपने पौराणिक वंश पर खूब गर्व रखते थे। कछवाहा राजवंश मानता आया है, कि वे भगवन राम के पुत्र कुश के वंशज है। वर्ष 1930-31 में वे दो गोलमेज सम्मेलनों में हिस्सा लेने लंदन भी गए थे। 


गोलमेज सम्मेलन और अंग्रेजों को दिया संदेश

    3 जून 1892 में वे राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए थे। और प्रजा कल्याण तथा स्वतंत्र शासन के कामों में लग चुके थे। उन्होंने गांधी के भारत छोडो आंदोलन के कईं वर्ष पहले ही अंग्रेजो को साफ़ साफ़ कह दिया था, कि अब भारत छोड़ दीजिये। उनकी बहादुरी समय से आगे थी। दरअसल दूसरे सम्मेलन में अंग्रेज सरकार को उम्मीद थी कि जयसिंह, गाँधी और जिन्ना जैसे नेताओं का विरोध करेंगे। लेकिन मंच पर पहुंचकर उन्होंने कहा था, 


“हवा पूरब से पश्चिम की ओर चल पड़ी है।
यह हवा अंग्रेज़ों को उखाड़ फेंकेगी।
मेरी ब्रिटिश मित्रों से विनती है — अब भारत सम्मानपूर्वक छोड़ दीजिए।”


वह प्रसिद्ध "Rolls Royce Garbage Story"

    यह शब्द सुनकर पूरा हॉल स्तबध रह गया था। यह वही जयसिंह है, जिनके नगर निगम में कचरा उठाने वाली रोल्स रॉयस कार वाला प्रसंग आज भी लोग गर्व से सुनाते है। 


    वह वाकिया भी काफी मजेदार है। जब उन्हें न्यौता मिला था गोलमेज परिषद का, तब उन्होंने न्यौते के प्रत्युत्तर में लिखा था, कि 


"मैं भगवान राम के वंश से हूँ। 
मैं उन लोगों से बिना दस्ताने हाथ मिलाना उचित नहीं समझता जो विधर्मी है।"


    यह सुनकर किंग जॉर्ज पंचम और उनके अधिकार आग बबूला हो चुके थे। लेकिन फिर भी वे उस सम्मलेन में पहुंचे थे, हाथ में चमकदार सफ़ेद दस्ताने पहने थे। और उन्हीं दस्तानों में ही उन्होंने सबसे हाथ मिलाया था। 


    एक और किस्सा था, कि एक बार वायसरॉय लार्ड विलिंग्डन ने शिमला में उन्हें भोज पर बुलाया। बड़ी सी डाइनिंग टेबल पर अलवर के राजा, वायसरॉय, और उनकी पत्नी तथा और भी अंग्रेज अधिकारी बैठे थे। वायसरॉय की पत्नी की गोद में उनका प्यारा कुत्ता भी बैठा था। कुत्ता अचानक गोद से उतरा और महाराजा के पास आया। और महाराजा के पैरों को चाटने लगा। महाराजा जयसिंह के लिए यह अपशगुन और धार्मिक रूप के अशुद्ध था। 


    वे तुरंत टेबल से उठ खड़े हुए। भोजन छोड़कर वे चले गए। अपने निवास पर लौटे, नहाए, कपडे बदले, और फिर वापिस आए, अपने टेबल पर स्थान ग्रहण किया। यह घटना अंग्रेजो को बहुत अपमानजनक लगी थी। 


    ऐसी ही एक घटना मैंने Freedom at Midnight में पढ़ी थी। वहां भी भोज का ही प्रसंग था। और अलवर महाराजा अपने ठाठबाठ वाले पोशाक में सज्ज थे। उनके हाथ की अंगुली में एक बहुत सुंदर अंगूठी थी। राजा थे, तो अंगूठी अजायब होगी ही। एक अंग्रेज महिला को उस अंगूठी में रस हुआ, उन्होंने नजदीक से देखने के लिए मांगी। महाराजा ने अविलंब अंगूठी उतारी और उन्हें दी। अंग्रेज महिला ने अंगूठी देखि, तारीफ़ की, और वापिस लौटा दी। 


    महाराजा ने बेझिझक अपने नौकर से एक कटोरे में पानी भरवाया। और सबके सामने ही उस पानी भरे कटोरे में अंगूठी डुबो दी। अंगूठी धूल जाने के बाद ही उन्होंने फिर से पहनी। भरी सभा में अंग्रेजो के प्रति इतनी घृणा, और उनका यह तिरस्कृतिपूर्ण वर्त्तन अंग्रेजो को जरा पसंद नहीं आता था। 


विवाद, संघर्ष और विद्रोह

    हर व्यक्ति के दो पक्ष होते है, अच्छा और बुरा.. महाराजा का यह अंग्रेजो का विरोधपक्ष अंग्रेजी सत्ता को जरा पसंद नहीं था। महाराजा का बुरा पक्ष यह था, कि उन्हें शिकार तथा स्थापत्य निर्माण का बड़ा शौक था। अलवर में उन्होंने बड़ा सा हॉस्पिटल बनवाया था। प्रजा के लिए इरिगेशन सिस्टम लागू करवाई थी, ताकि अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न न हो। पर फिर भी उनके राज में किसानो द्वारा बड़े आंदोलन उठने लगे थे। 


    1924 में निम्बूचाना में एक बड़ा विद्रोह हुआ था, जिसपर बल प्रयोग करने की नौबत आन पड़ी थी। महाराजा की सेना ने गोलीबारी कर दी, विद्रोह तो थम गया, लेकिन अपनी ही प्रजा पर यह अत्याचार के समान घटना थी। उस समय के राजनेताओं ने इस घटना का पुरजोर विरोध किया। और धीरे धीरे आंदोलन बढ़ते गए। सांप्रदायिक रूप लेते गए आंदोलन, और सत्ता अस्थिर होने लगी। 


निर्वासन, मृत्यु और अंतिम यात्रा

    किसानो पर नियंत्रण न रख पाने की स्थिति में महाराजा जयसिंह को मजबूर होकर ब्रिटिश सरकार से सहायता मांगनी पड़ी। लेकिन यह मदद उनके लिए बहुत महंगी साबित हुई। उन्हें प्रशासन लार्ड वाइली के हाथ में सौंपना पड़ा। पोलिटिकल विभाग ने ब्रिटिश अफसर वाइली को राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त किया। धीरे धीरे वाइली ने सारे अधिकार अपने हाथों में ले लिए। और अंततः 1933 में जयसिंह को निर्वासन के लिए मजबूर कर दिया। 


    योजना यह थी, कि यह निर्वासन (exile) 17 साल तक चलेगा, और 1950 में पुनः अलवर लौट पाएंगे। परन्तु किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। इस निर्वासन के दौरान उन्होंने भारत के कईं हिस्सों और यूरोप के कईं स्थानों में जीवन बिताया। वर्ष 1937 में उनका पेरिस में निधन हो गया। उनके निधन की सुचना मिलते ही ब्रिटिश सरकार ने अत्यंत औपचारिकता और सम्मानपूर्वक वापिस लाने की व्यवस्था की। उनकी अंतिम इच्छा अनुसार उनका पार्थिव शरीर अलवर लाया गया। उसी शाही रेलवे प्लेटफॉर्म पर, जहाँ से वे चार साल पहले निर्वासन में विदा हुए थे। 


महाराजा जयसिंह की विरासत और असर

    जब उनका शव स्टेशन पर पहुंचा तो राजसी मर्यादा और गहरी श्रद्धा का वातावरण था। अलवर के ब्रिटिश प्रधानमंत्री मेजर प्रायर, और वही एफ. वी. वाइली — जिन्होंने उन्हें चार वर्ष पहले विदा किया था, अब सफेद वर्दी, परों वाली टोपी और काले रेशमी बांह-पट्टी पहनकरशोक जुलूस के प्रमुख के रूप में खड़े थे।


ज़रा ख़ामोशी रख—शोर और हलचल मत कर,
क्योंकि अलवर का स्वामी गहरी नींद में सो रहा है।

जिन दुश्मनों ने उसे मिटाने की कोशिश की थी,
आज वही उस मिट्टी को देखकर आँखों में आँसू लिए खड़े हैं।

 

Hon Colonel. HH Raj Rajeshwar Bharat Dharma Prabhakar Maharaja Shri Sawai Sir Jai Singhji Veerendra Shiromani Dev Bahadur GCSI GCIE

    महाराजा जय सिंह की कहानी सिर्फ़ एक राजा की नहीं, बल्कि आत्मसम्मान, संस्कृति, और राष्ट्रभक्ति की कहानी है। वो आवाज़ — जो सत्ता के सामने भी नहीं झुकी।


    कथा सन्दर्भ : इंडिया ऑफ़ द पास्ट


5 FAQ


Q1: महाराजा जयसिंह अलवर कौन थे?
महाराजा जयसिंह अलवर रियासत के 20वीं सदी के राजा थे, जो अपने स्वाभिमान, ब्रिटिश विरोध और साहसिक व्यक्तित्व के लिए जाने जाते हैं।

Q2: क्या महाराजा जयसिंह ने गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया था?
हाँ, उन्होंने 1930–31 के गोलमेज सम्मेलनों में हिस्सा लिया था और वहाँ अंग्रेजों को भारत छोड़ने की खुली चेतावनी दी थी।

Q3: Rolls Royce Garbage Story क्या है?
कहा जाता है कि उन्हें अंग्रेजों द्वारा अपमानित किए जाने पर उन्होंने अलवर में Rolls Royce कारों को नगर निगम में कचरा उठाने के लिए इस्तेमाल करवाया।

Q4: उनका निर्वासन कितने समय तक रहा?
उन्हें लगभग 17 वर्षों के लिए निर्वासित किया गया था। उसी दौरान 1937 में पेरिस में उनका निधन हो गया।

Q5: महाराजा जयसिंह की मृत्यु कहाँ हुई?
उनका निधन पेरिस में हुआ और बाद में उनका पार्थिव शरीर सम्मानपूर्वक अलवर लाया गया।


आज की दिलायरी.. 

    प्रियम्वदा ! आजका दिन यही सब बातें खंगालने में व्यतीत हो गया। मैं जब भी ऐसी किसी ऐतिहासिक पात्र की बातों में इंटरनेट की गलियां खंगालता हूँ, मुझे और भी कईं सारे बातें मिलती है। मन करता है, यह भी लिख दू, वह भी लिख दू.. लेकिन फिर सोचता हूँ, यदि कोई यह लेख पढ़कर प्रभावित होगा तो आगे की बातें वह खुद से खंगालने की जहमत जरूर से उठाएगा। 


    यूँ तो सवेरे से काफी काम था, लेकिन खाली समय भी उतना अवश्य मिला, कि मैं यह पोस्ट लिख सकूँ.. और इंटरनेट खंगाल सकूँ। दोपहर को कुछ देर आराम का जो समय मिला था, वही समय इस पोस्ट में खर्च हो गया था। एक दो और पात्र भी मिले, अगर कल समय मिला तो फिर से कल किसी और ऐतिहासिक पात्र को दिलायरी में उतार लाएंगे। फ़िलहाल तो साढ़े सात बज चुके है। 


    घर जाना है, रात को ग्यारह बजे तक वॉलीबोल खेलना है।

    शुभरात्रि। 

    २१/११/२०२५

|| अस्तु ||


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