सर्दियों की हल्की दस्तक और दिनचर्या की थकान
प्रियम्वदा !
आज तो ठण्ड भी लग रही है, और नींद भी आ रही है। दोपहर बाद से पंखे को आज छुट्टी दी है। आज से जैकेट भी निकालना पड़ गया। रात को जब घर जाता हूँ, तो एक काफी झाड़ीदार जगह आती है। वहां बहुत ज्यादा ठण्ड महसूस होती है। हाँ ! वैसे अभी इतनी ज्यादा ठण्ड नहीं है कि दिन में भी ठण्ड लगे। खेर, एक दो दिन पूर्व पता चला, अमेज़न किंडल पर तो बुक खरीदने या पढ़ने का ऑप्शन कहीं गायब हो चूका है। मुझे एक YQ वाली मित्र ने ही बताया, कि इसे पढ़े तो पढ़े कैसे?
अमेज़न की उलझनें और खुद की राह बनाने की कोशिश
मैंने देखा, अपने फोन में, कंप्यूटर में, लेकिन हाँ ! सच में ऑप्शन मिला ही नहीं कहीं। आखिरकार पता चला कि अमेज़न पर कोई गूगल पॉलिसी के चलते ईबुक डाउनलोड या रीड नहीं हो सकती। अब इस चक्कर में मेरा प्रचार भी फ्लॉप ही रहा। क्योंकि कोई पढ़ तो सकता नहीं है। फिर सोचा मैं इन झमेले में क्यों पड़ता हूँ? अपनी खुद की वेबसाइट है, और खुद का ही ब्लॉग, खुद की ही ईबुक.. और वैसे भी खरीददार है कौन? तो इसे क्यों न अपने ही ब्लॉग से डायरेक्ट सेल करने की कोशिश की जाए?
खाली ही समय था, तो सारी सिस्टम समझ ली। थोड़ा बहुत सेटअप तैयार भी कर लिया। बस उस सेटअप को अपनी इस वेबसाइट पर इम्प्लीमेंट करना बाकी है। चाहता तो वह भी पूरा कर सकता था। लेकिन नहीं.. दिलफेंक दिलावरसिंह तो आज रील्स देखने में व्यस्त हो गए थे। कितने ही दिनों का कोटा पूरा कर लिया आज तो.. कितनी सारी रील्स देख ली मैंने। लेकिन पता नहीं, कैसी रील्स आने लगी है मेरी फीड में। बिलकुल नए रीलियों की रील.. वायरल रील्स नहीं आती।
गुजरात का मौसम, फसलें और किसान सहाय की हलचल
सवेरे ऑफिस पहुंचा था लगभग साढ़े नौ बजे। फ़िलहाल तो गुजरात भर में एक ही मुद्दा छाया हुआ है। किसान सहाय। पंद्रह बीस दिन पहले मौसम अचानक से बदल गया था, और सर्दियों की जगह वर्षाऋतु छा गयी थी। लोगों की खड़ी फसल बर्बाद हो गयी। कपास पीले पड़ गए और मूंगफलियां डूबकर मर गयी। यही दोनों गुजरात की मुख्य फसल है। बाकी तो जीरा से लेकर चना तक इस सर्दियों में उगाया जाएगा। लेकिन वह वर्षा की फसल बर्बाद होने के कारण गुजरात सरकार ने किसान सहाय का एलान किया है।
प्रति हेक्टर 22000 की सहाय। और गाँवों में सचिव के ऊपर अतिशय बोझ बढ़ गया काम का। और कुछ गाँवों से खबर भी आती है, कि फॉर्म भरने के पैसे भी लिए जा रहे है। आज भी कितने किसान ऐसे है, जिन्हे इन कागज़ी कार्यवाहिओं की समझ नहीं है। पढ़े-लिखे तो है, लेकिन विश्वास नहीं है उन्हें, कि नाम वाली खाली जगह में पूरा नाम लिखना है, या सिर्फ नाम..! क्योंकि अनुभव नहीं है। सचिव, VCA और VCE कर कर के कितने लोगो के फॉर्म में सहाय करे? कुछ जगहों पर प्रति फॉर्म सौ रूपये लेने शुरू किये। क्योंकि फॉर्म भर जाए, तो किसान सहाय वाली वेबसाइट का सर्वर डाउन हो जाता है।
असमय फॉर्म्स अपलोड करने के लिए टेम्पररी स्टाफ भी भर्ती किया गया है। क्योंकि काम करने वाला आदमी एक, और फॉर्म्स की संख्या हजारों में है। फिर लोकल सचिव कंप्यूटर की बेसिक जानकारी वाले व्यक्ति को पकड़ कर बिठा देता है, फॉर्म्स अपलोड करने। यही एक इलाज है। एक साथ गुजरात भर से फॉर्म जब एक ही साइट पर अपलोड हो रहे हो, तो साइट का सर्वर डाउन होना तय ही है।
वे जगहें जहाँ हम लौटते नहीं, पर दिल में बसाए रखते हैं
प्रियम्वदा ! आज ऐसे ही एक ख्याल आया.. हमारे आसपास या, हमारी पहचान में ऐसी कितनी ही जगह होती है, जहाँ हम कभी दोबारा नहीं लौटते। अगर लौटना भी हुआ, तो वह कितने ही वर्षों के उपरांत होगा। जैसे कि स्कूल.. या फिर हॉस्टल.. या फिर वो पुराना घर - जहाँ से हमारे शिफ्ट होने के बाद किसी और का बसेरा बन चूका हो। या वह सड़क, जिसे हम अपने मन में तो बसाये हुए है, लेकिन कभी दोबारा जा नहीं सकते। या फिर किसी कैफे की एक चुनिंदा कुर्सी..!
A307 का कमरा और वे रातें जो कभी खत्म नहीं हुईं
वे जगहे तो आज भी वहीँ मौजूद है। उन जगहों से जुडी हमारी यादे भी। लेकिन हमारी वास्तविकता अब उस जगह तक हमें ले नहीं जाती। यह जब लिख रहा हूँ, तो मुझे याद आ गया, A307.. A विंग, 3rd फ्लोर, 7 नंबर कमरा.. जहाँ कभी भी रात हुई ही नहीं.. वहां उल्लू बस्ते थे। बिना पंख के उड़ने की चाहत वाले उल्लू.. एक अफ्रीका से आया हुआ उल्लू था, एक चारसौ किलोमीटर दूर से आया हुआ। एक दो और भी थे, उनकी भी रात नहीं होती थी। मजेदार बात तो यह भी थी, कि उल्लू जानते थे, समझते थे, अपना भविष्य.. फिर भी उल्लू के उल्लू ही रहे।
एक सड़क का कोना और एक स्मृति की आख़िरी ध्वनि
मुझे याद आती है एक सड़क का एक कोना.. वहां मैं फिर कभी नहीं लौटा.. दूर से देखता हूँ, तो एक दृश्य आँखों में उतर आता है। भले ही वह सड़क का एक कोना था, पर वहां से कितने सारे अलग अलग अदृश्य रास्ते जाते थे। उस कोने पर एक लड़का अपनी साइकिल पर खड़ा था, किसी को जाते हुए देख रहा था.. एक आखरी बार की झलक आंखो में भरते हुए, एक आखरी बार की ध्वनि को अपने भीतर उतारते हुए..! वह दृश्य तो उसे सदैव के लिए याद रहने वाला था, लेकिन ध्वनि..
आखिर हमने अपने कितने version मिटाकर यह रूप पाया?
छोडो.. एक बात बताओ प्रियम्वदा ! आज तुम जो हो, सच बताना, तुम्हारा आज का यह रूप, तुम्हारे पिछले कितने version को मिटाकर मिला है..? सिर्फ सांप ही अपनी केंचुली नहीं उतारते, इंसान भी यह कर सकते है। हर कोई समय समय पर अपने में कुछ न कुछ बढ़ा-घटाकर बदलाव करते है। फिर चाहे शारीरिक बदलाव हो, या व्यावहारिक। हम अपने ही कितने सारे संस्करण मिटा देते है।
जैसे की कभी कोई बच्चा था, जो पूरी दुनिया पर भरोसा करता था। उसे कोई अनजान शख्स चॉकलेट देता था, तो वह मुस्कुराते हुए ले लेता था। वह टूटे हुए खिलौने में भी अपनी जिद्द से नयी दुनिया बना लेता था। हर किसी का सबसे पहला version यही था, जो मर गया। उसे मारने वाला और कोई नहीं, उसकी खुद की ही समझ थी। वह धीरे धीरे समझता गया, दुनिया कहानी की तरह सरल नहीं है। और मासूमियत धीरे धीरे सिमटती गयी।
फिर उठ खड़ा हुआ एक किशोर.. जो उसी दुनिया को भूल जाता था, क्योंकि प्यार में पड़ने लगा था। उसे प्रेम पर दृढ विश्वास था। उसे ही अंतिम सत्य मानता था.. लेकिन समय ने उसे सिखाया, वादे भी मौसम की तरह बदलते है। और दुनिया में हरेक चीज का विकल्प है, ख़ास व्यक्ति का। अनचाहा विकल्प भी उसे अपनाना पड़ता है।
ऐसे ही कितने सारे संस्करण बदले है सबके.. हर किसी ने अपनी केंचुली उतारी, और आगे बढ़ गया।
मैं भी अब आगे बढ़ता हूँ। शाम के सात बज रहे है। दिलायारी समेटने का समय।
शुभरात्रि।
१८/११/२०२५
|| अस्तु ||
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