रील्स का शोर और मन की थकान
प्रियम्वदा !
जब भी मैं रील्स और शॉर्ट्स का ओवरडोज़ ले लेता हूँ, दिमाग कुछ भी सोच नहीं पाता है। और यह हर बार होता है। मुख्य कारन शायद यही है, कि यहाँ हर तीसरी क्लिप किसी नए टॉपिक पर मन को आकर्षित करती है। बार बार टॉपिक बदलते है। मन व्यस्त रहता है। और इसका असर भी काफी देर तक रहता है। यह बार बार अलग अलग विषयों पर सोचने के कारण किसी एक दृढ निश्चय की क्षमता कहीं खो जाती है।
घर के छोटे बदलाव और सर्दियों की शाम
कल रात घर पर गया तब एल्युमीनियम डोर वाला अपना दरवाजा लगाने का काम करके जा चूका था। घर में जब भी छोटे मोठे बदलाव होते है, घर थोड़े समय के लिए नया नया लगता है। कल रात को वॉलीबॉल तो नहीं खेले, फिर वहीँ कुछ देर आग तापते बैठे रहे। फिर दौर चला गप्पों का। यूँ तो मेरे पास बोलने के मौके कम होते है, लेकिन कल मुद्दा इतिहास का था, तो बाकी किसी का मौका ही न आया बोलने का। खेर, सर्दियों में बाकी कुछ बदलें न बदले, मेरा दिलबाग जरूर से बदल गया है। सवेरे छत पर गमलों में पानी देने गया, तो मिटटी अभी तक सूखी न थी।
सवेरे ऑफिस आने के बाद आज भी न बराबर काम था। सवेरे एक काम था, उसे निपटाने के बाद तो जैसे दिनभर कुर्सी पर बैठे बैठे रील्स और शॉर्ट्स देखने में ही समय व्यतीत हुआ है। और बस यही छोटी छोटी क्लिप्स को स्वाइप करते करते पूरा दिन जैसे स्वाइप हो गया। शाम के साढ़े पांच बज गए। अभी कुछ देर पहले यूँही टहलने के लिए मिल के बहार चला गया। सोचा थोड़ी देर बाहर टहलने से दिमाग की नसें खुलेगी, और कुछ विषय मिल जाएगा।
जवार का खेत और बिनखेती की दौड़
मिला भी.. हमारे आसपास कितनी सारी वस्तुएं होती है, जिनसे हमें कुछ न कुछ सन्देश मिलता है। लेकिन हमारी बेध्यानी के चलते, हम कहीं और व्यस्त रहते है। मैं जहाँ काम करता हूँ, उस मिल के सामने की ज़मीन खेत है। इस इलाके में तो ज़मीनों को खेती से खेती से बिनखेती करवाने की होड़ मची है। खेत की जमीन के भाव उतने नहीं मिलते जितनी बिनखेती ज़मीन के होते है। बिनखेती गुजराती शब्द है, जिसका अर्थ है, ऐसी ज़मीन, जिसपर अब खेती नहीं होगी। ज़मीन पर किसानी बंद करके कोई उद्योग करना है, तो तहसीलदार के पास जाकर चेंज करवाना पड़ता है।
तो हमारे सामने जो खेत है, वह कोई धंधादारी आदमी होगा। सालभर वह ज़मीन यूँही बंजर सी पड़ी रहती है। वर्षा ऋतु के आने पर, पहली बारिश हो जाती है, फिर वहां एक ट्रेक्टर आता है। एकाध दिन में ही सारी ज़मीन जोत देता है। दूसरे दिन हल चला देता है, और तीसरे दिन बीज बो देता है। बस, फिर कोई ख्याल खबर नहीं लेता। न कभी मैंने उसे किसानों की तरह चौकी पहरा करते देखा है। पिछले कितने ही दिनों से जवार की फसल लहलहा रही थी। मैं भी सोच रहा था, कि यह फसल की कटाई क्यों नहीं कर रहा।
पंछियों का उत्सव और अचानक आया ट्रेक्टर
मैंने तो यह भी धारणा बाँध ली थी, कोई भला माणूस है। चिड़ियों के लिए फसल पैदा की है। पके हुए जवार के दाने पौधे से गिरने लगे थे। लेकिन आज अभी जाकर देखा, तो एक ट्रेक्टर बड़ी तेजी के साथ कटर लेकर, खेत में सर उठाए खड़ी जवार की कटाई करने के लिए दौड़ रहा था। ट्रेक्टर के साथ साथ अनेकों पंछी ऊपर मंडराते थे। इतने दिनों से वे बहुत आसानी से इस जवार में अपना चाहे उतना पेट भर रहे थे। लेकिन आज अचानक यूँही उनका भोजन जैसे छिना ही जाने लगा था।
मेरे गमले का अकेला बाजरा
कुछ दिनों पहले मेरे दिलबाग के एक गमले में, किसी दिन बाजरे का दाना गिर गया होगा। वर्षा ऋतु चल ही रही थी। आसमानी पानी मिलते ही दाना ऊगा। पौधा निकल आया। शुरू शुरू में तो समझ नही आया था कि कौनसा पौधा उगा है। लेकिन थोड़ा बड़ा होने दिया तो पहले लगा जवार है। लेकिन फिर बाजरे का पौधा है यह समझ आ गया। कुछ ही दिनों में उस पौधे में बाजरे की एक बाली भी लगी। गुजराती में उसे 'डुंडा' कहते है। जिसमे फसल पकने के बाद बाजरे के दाने मोतियों की तरह भरे रहते है।
कुछ दिनों बाद फिर से देखा, तो बाली खाली मिली। एक भी दाना नहीं था बाजरे का। सारे दाने चिड़ियाँ खा गयी। और वैसे भी, उस चुटकीभर बाजरे का मैं क्या करता। मैंने यही सोचकर उस पौधे को बड़ा होने दिया था, कि बाजरे के दाने आएँगे तो पंछियों को डाल दूंगा। लेकिन पंछियों ने मेरी स्वीकृति की राह नहीं देखि.. उन्हें तो पौधा दिखा, खिली हुई बाली, और भरे हुए दाने.. चबा गए।
दाने, पंछी और कुदरत का संतुलन
यहाँ भी इस खेत में, अनेकों पंछियों का ऊपर यूँ मंडराना, यही कहता है, कि अबके बाद उन्हें फिर से दानों की तलाश में निकलना पड़ेगा। ऐसी फसलों में अक्सर पंछी अपना आशियाना बना लेते है। लेकिन अचानक एक ट्रेक्टर आता है, और इंसान अपनी मेहनत का फल लेकर चला जाता है। कुदरत भी होशियार है। ऐसी पकी हुई फसल में कितने ही दाने ज़मीन पर बिखर जाते है। वे फिर अपने आप उगते है, कहीं से भी थोड़ा सा पानी खोजकर। वे उगते है, पकते है, और पंछियों का आधार बनते है।
मैं भी यही सोचता हूँ.. पिछले कितने ही वर्षों से मैं तो खेती नहीं कर रहा। कोई भाग-बटाई में आता भी है, तो बिना कुछ दिए चल देता। हमने तो यहाँ तक ऑफर दी हुई है, कि खेत में जवार उगाओ, और गौशाला में दे दो। फिर भी कोई तैयार नहीं होता। क्योंकि यहाँ मेहनत है, लेकिन फलप्राप्ति कुछ भी नही। इंसान अपनी महेनत का हक़ तो कम से कम नहीं जाने देना चाहता।
खेती की गणित और इंसानी सीमाएँ
यही ऑफर मैंने खुदने एक बार इम्प्लीमेंट करनी चाही। गणित शुरू किया, लेकिन गणित वहां जाकर रुका, जहाँ मेरी हैसियत मना करने लगी। किसानी सस्ती नहीं है। ट्रेक्टर का डीज़ल ही बहुत ज्यादा बैठता था। भाड़ा भी। दान करना है, तो उतना करना चाहिए, जितने में अपना या अपनों का कम्फर्ट न टूटे। वह ज़माना बीत गया, जब लोग सब कुछ देकर झोली लेकर निकल पडते थे। जैसे कभी गौतम निकल पड़े होंगे, या फिर भर्तृहरि.. या हरिश्चंद्र।
माया, मन और त्याग के असंभव रास्ते
आजके समय में संभव तो है। लेकिन यह माया छोड़ना उतना आसान नहीं है। माया हम पर निर्भर है, और हम माया पर उससे अधिक। एक पल नहीं चल सकता बगैर माया के। क्योंकि लिप्त हो चुके है। हमारे मस्तिष्क में समा चुकी है। उससे अलग होना, मतलब जैसे जीवन की पद्धति से अलग होना.. जब भी कभी मुझे यह ख्याल आता है, कि कैसे कोई संसार त्यागकर निकल पड़ता है, तुरंत मेरा मन प्रतिवादी बनकर टूट पड़ता है।
एक ही तो जीवन मिला है, अगले जन्म की गेरंटी क्या है? इस जीवन को भरपूर न जिया, जीवनभर त्याग और सीमारेखाओं में बंधे रह गए, और कहीं अगला जीवन ही न हुआ तो? यहाँ की, इस जीवन की मौज-मजा-आनंद से वंचित रह जाने का दुःख होगा। मन का तो ऐसा ही है। वही माया का दास है। तभी सारे विद्वानों ने कहा होगा, सबसे पहले अपने मन पर नियंत्रण पाना अनिवार्य है।
लेकिन अपन ठहरे मनमौजी.. मन भले मुझे नियंत्रित करे.. मैं मन को नहीं करता।
शुभरात्रि।
१९/११/२०२५
|| अस्तु ||
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