"पुलिस, चालान और शौचालय की तलाश : एक आम आदमी की अनकही कहानी!" || दिलायरी : 08/08/2025

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पुलिस स्टेशन – डर की दहलीज़ या राहत का दरवाज़ा?

    प्रियंवदा ! हम जैसे आम आदमी पुलिस स्टेशन की दहलीज ही चढ़ना नहीं चाहते। वहां एक अलग ही वातावरण होता है। मुझे याद आता है कि जब से सिंघम मूवी आयी थी, तब से इन पुलिसवालों का रौब कुछ अलग ही चल रहा है। फिर तो पुलिस वाले रोल पर कईं सारी लगातार मूवीज आयी। पहले की बॉलीवुड मूवीज में ज्यादातर पुलिस वाले गुंडों के साथ मिले होते थे। लेकिन सिंघम के बाद जैसे सारे ही एटिकेट्स में आ गए। मैंने जितनी मूवीज देखि है, उनमे आज तक सिर्फ दो पुलिस के रोल ही पसंद आए है। एक तो वही सिंघम.. दूसरा सब इंस्पेक्टर श्याम मनोहर.. (लापता लेडीज वाले) पहले सारे ही रिश्वतखोर दिखाए जाते थे। अगर कोई ईमानदार हो, तो ज्यादातर मूवीज में वह शहीदी को ही प्राप्त हो जाता। फिर एक दौर आया, जिसमे पुलिस वाला खुद ही न्याय करने लगा। कोर्ट तक पहुँचाने की झंझट ही नहीं। 


A humorous take on Indian police, public quirks, and a surprising visit to the police station—triggered by an urgent search for a public toilet!

मज़ेदार पुलिस केस जो आपको चौंका देंगे!

    वो जोक है न, कि सरकार तो हम पर तरह तरह के चालान डालकर लूटना चाहती है। लेकिन यह तो बिच में पुलिस वाले है, जो हमें बचा लेते है। थोड़ी हकीकत है, थोड़ा फ़साना भी। वैसे प्रियंवदा ! इन पुलिस वालों की दाद देनी चाहिए। साहब कुछ भी कर सकते है। सत्ता है न इनके पास। लेकिन एक सत्ता है हम जैसे आम आदमी के पास.. वो है शिकायत दर्ज करवाने की सत्ता। प्रियंवदा, यूँ तो कुछ पुलिस वालो के कारण सारी पुलिस संस्था ही बदनाम है, लेकिन कुछ कर्मठ अफसरों के आगे शिकायतकर्ता भी ऐसे आ जाते है। जो सारा संतुलन बना लेते है। वो कुछ वर्ष पूर्व एक तोते के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज हुई थी, कि तोता आते-जाते लोगो को गाली देता था। उत्तर प्रदेश में तो दो-तीन सांसदों ने पुलिस में शिकायत करवाई थी, एक की भैंस चोरी हो गयी थी, तो एक के घर से लाइट का बल्ब।


पुलिस और आम आदमी – रिश्ता प्यार का या डर का?

    सन्तुल बना रहता है प्रियंवदा। जैसे एक थानेदार साहब ने मोबाइल चोरी के शिकायतकर्ता से कह दिया था, कि जलेबियाँ खिलाओ तो रिपोर्ट दर्ज करूँगा। एक थाने में तो एक परिवार ने पुलिस महाशय की आरती उतारी, क्योंकि उन्हें लगा, कि देव की ही तरह साहब को भी आरती से रिझाना होगा, तब शिकायत पर कार्यवाही होगी। जैसे कईं बार पुलिस आम आदमी को परेशान करती है, उसी तरह कुछ ऊपरी सत्ताधारी इन पुलिसवालों को परेशान करते है। इसी लिए तो कहा, एक संतुलन बना रहना चाहिए। एक तो अपने यहाँ पुलिस केस भी कैसे कैसे होते है.. बिहार में एक पूरा का पूरा तालाब चुरा लिया गया था। कर्णाटक में एक जगह तो मोबाइल का नेटवर्क टावर चोरी हो गया। बिहार तो बदनाम है चोरी के मामले में, ६० फ़ीट का लोहे का पुल उड़ा ले गए चोर। 


    अभी कुछ महीने पूर्व ही हिमाचल में समोसे को लेकर कैसी बहस छिड़ी थी। CBI जांच मांगने लगे थे। पुलिस में होती इन शिकायत पर अपने यहाँ कार्यवाहियां कितनी लम्बी चलती है। दिल्ली-गुरुग्राम तरफ का एक किस्सा पढ़ा था मैंने, कि किसी व्यक्ति ने अपना वॉलेट-पर्स चोरी होने की शिकायत लिखवाई थी। नौ-दस महीने बाद उसे कोर्ट समन मिला, जिसमे उसको खुदको ही आरोपी लिखा गया था। जिसने अपने पर्स चोरी होने की कम्प्लेन लिखवाई उसी की आरोपी / चोर लिख दिया जाए, मतलब हद ही हो गयी। वैसे सारी गलती पुलिस वालों की नहीं है। उनकी संख्या बहुत कम है। कुछ शहरों में तो प्रति लाख की जनसँख्या पर एक पुलिस अधिकारी है।


    एक तो उनपर ऊपरी अधिकारीयों का दबाव होता है, फिर यह कुछ लोग अपनी मुर्गे चोरी की शिकायत लिखवाने आ जाते है। कटहल चोरी के केस में दौड़ा देते है। तो यह लोग भी कुछ आराम तो फरमाना चाहेंगे, उसमे क्या गलत है? अब तो भीड़ पुलिस वालों को भी दौड़ा देती है। गुजरात में कितने ही विडिओ आते है, जिनमे पुलिस की वर्दीधारी व्यक्ति खुद नशे की हालत में पाए जाते है, दारुबंदी के बावजूद। पुलिस वाले भी है तो इंसान ही। क्या हो गया, अगर किसी से सौ-पांचसौ ले लिए तो। सरकार ने तो दंडसंहिता में १००० वसूलने को लिखे थे। दोनों का फायदा हुआ.. एक वह महाभारत के बाद हुआ हरयाणा - राजस्थान का युद्ध भी बड़ा प्रसिद्द हुआ था।


    एक हरयाणा की महिला पुलिस अफसर राजस्थान रोडवेज की बस में बैठ गयी, और किराया मांगा गया तो उसने 'स्टाफ' कहकर देने से मना किया। बस कंडक्टर ने बस आगे बढ़ाने से मना किया, क्योंकि बस थी राजस्थान रोडवेज की। हरयाणा पुलिस को तो बस किराया देना पड़े। लेकिन फिर मामला ऐसा बढ़ा की हरयाणा पुलिस ने राजस्थान रोडवेज की तमाम बसों पर चालान करने चालू कर दिए। बदले में फिर हरयाणा रोडवेज की बस जब राजस्थान में आती तो उनपर राजस्थान पुलिस ने चालान करना चालू कर दिया। लगभग २०-२५ बस को डिटेन तक कर लिया गया। मात्र पचास रूपये के किराए के कारण तब दो राज्यों की पुलिस ने यह चालान युद्ध खेल लिया था। बात ईगो पर आ गयी थी न। 


    मध्यप्रदेश के ओरछा में एक गधे को ४ दिन हवालात में डाल दिया गया था, क्योंकि उसने थाने के कंपाउंड में लगे पौधे खा लिए। वो वायरल वीडियो था न, एक लाइटमेन ने थाने की बिजली काट दी, क्योंकि पुलिस वाले ने उसे चालान किया था। कभी कभी दया भी आती है, इन पुलिस वालों पर, क्योंकि यह कितना ही अच्छा काम कर लें, लेकिन आरोप तब भी इन पर भ्रष्टाचार का लगता ही है। जैसे सो काम अच्छे किए हो, लेकिन एक बुरा काम सारी अच्छी खा जाता है। कुछ भ्रष्ट अफसरों के कारण सारा खेमा बदनाम हो चूका है। तुम्हे क्या लगता है प्रियंवदा? पुलिस वाले प्रशंसा के अधिकारी है, या गालियों के? या फिर जैसा समय वैसा व्यवहार। व्यवहारु भी बहुत होते है पुलिस वाले। तभी तो दारू मिलती है, अपने यहाँ। और कुछ गाड़ियां पकड़ी भी जाती है। कुछ नजरअंदाज भी होती होगी? मुझे नहीं पता लेकिन, व्यवहार अच्छा है साहबों का। कुछ वर्षों में ही कितनी तरक्की कर पाते है वे। 


टेक्निकल झंझट – ब्लॉग URL की टेढ़ी चाल

    खेर, यह तो सब चलता रहता है। साहबों पर सरकार महेरबान है। और सरकारों पर साहब मेहरबान है। सवेरे सवेरे काफी भागदौड़ थी। ऑफिस पहुंचा तब सवा नौ बज गए थे। आजकल मेरी शिड्यूल की हुई पोस्ट के यूआरएल अपने आप बदल जाते है। में ड्राफ्ट लिखकर उसे मठारकर अगले दिन नौ बजे शिड्यूल कर देता हूँ। मैंने कुछ और यूआरएल डाला होता है, लेकिन सवेरे जब पोस्ट देखता हूँ, तो उसका यूआरएल अपने आप 'blog-post' नाम से लाइव हो जाता है। और एक बार पोस्ट पब्लिश हो गयी, और यूआरएल लाइव हो गया, फिर उसे बदल नहीं सकते। टेक्निकली बदल तो सकते है, लेकिन बदलने से एरर पेज जनरेट होने लगते है। खेर, तो कल वाली पोस्ट के साथ भी ऐसा ही हुआ। अब सोचता हूँ, आगे से पोस्ट्स को शेड्यूल न करूँ, जब सुविधा हो तब खुद से पब्लिश कर दूँ। ताकि यूआरएल न बिगड़े। 


    वैसे दिनभर में काफी काम रहा है। इतना की आदमी को एक नंबर जाने की अवधि न मिले। ऊपर से यह मौसम.. कुछ देर में घना अँधेरा हो जाता है, तो कुछ देर में जैसे ज्वलंत किरणे। दोपहर को मुझे मार्किट में कुछ काम था, निकल पड़े, मैं और गजा। वैसे प्रियंवदा, आज मैंने ऊपर इतनी बकैती पुलिसवालों पर की, उसका कारण भी अब बता ही देता हूँ। मैं कभी भी पुलिस स्टेशन नहीं गया था आजतक। क्योंकि कभी ऐसी इमरजेंसी पड़ी नहीं मुझे। लेकिन आज पड़ गयी। दरअसल हुआ क्या, कि अपना शहर काफी फैलता जा रहा है। लेकिन उतने प्रमाण में सुलभ शौचालय नहीं है। काफी दूर दूर बने है। वैसे पुरुषों को तो खुले में जाने पर कोई मर्यादा नहीं है, बशर्ते कोई अधिकारी न पकड़े। मैं और गजा निकल तो पड़े, लेकिन काफी देर तक कोई सुलभ शौचालय मिला नहीं। ऊपर से शहर में कोई ऐसा कोना नहीं, जहाँ यह त्याग किया जा सके। किडनियां बाहर निकलने को हो रही थी। 


इमरजेंसी में शौचालय की तलाश – पुलिस बनी मसीहा!

    लघुशंका का कहीं भी उचित स्थान न मिला, लेकिन सामने ही पुलिस स्टेशन था। काफी बड़ी बिल्डिंग है। नई बिल्डिंग है, तो निःशंक सुविधाओं से सुसज्जित होगी ही। लेकिन अब यह समस्या भी खड़ी हो गयी, कि कोई खाखीधारी साहब पूछ लें कि बताओ क्या समस्या है, तो उनसे यह समस्यां कही भी कैसे जाए? धाराओं की तलवारों से तो मैं अनजान हूँ। लेकिन दोपहर का समय था। साहब लोगों की संख्या कम थी। हम दाखिल हो गए। एक वर्दीधारी साहब बैठे थे, हमे देखने लगे। तो हमने सामने से ही पूछ लिया, 'साहब सायबर क्राइम के लिए कहाँ जाना होगा?' साहब ने भी कहा, 'पहले माले पर चले जाओ।' पहले माले पर सामने ही शौचालय दिख गया। मुक्ति का आनंद लेकर, दोनों किडनियों का भार कम कर निकला। बाहर जाते हुए किसी ने टोका नहीं। 


    यह तो भला हो उन साहबों का कि किसी ने समस्या नहीं पूछी। वरना कितनी झिझकपूर्ण स्थिति हो जाती। वैसे वाकिया कितना अजीब हुआ न प्रियंवदा। लेकिन अब से मेरे पास कारण न रहा, कि मैं किसी इमरजेंसी में भी थाने की देहलीज नहीं चढ़ा। लेकिन इस प्रसंग से यह साबित भी होता है, कि इमरजेंसी में पुलिस काम आती ही आती है। मजेदार बात देखिये, ठीक इस पुलिस स्टेशन के बाजू में बड़ा मॉल है, यह हमे नहीं दिखा.. क्योंकि उस समय तक दिमाग में बस एक रिक्त स्थान ही चाहिए था। बाद में कईं सारे शौचालय भी दिखे। खेर, हम लोग हँसते हुए फिर वापिस ऑफिस लौटे की जीवन में पहली बार पुलिस स्टेशन देखा, लेकिन कारण किसी को कह नहीं सकते..!


    शाम ढल गयी प्रियंवदा ! चलो फिर, अब विदा दो। 

    शुभरात्रि। 

    ०८/०८/२०२५

|| अस्तु ||


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