परिवार और ऑफिस के बीच संतुलन
प्रियंवदा ! आज काफी ड्राइविंग की है मैंने। सवेरे सवेरे कुंवरुभा जिद्द ले बैठे कि कही घुमाने ले चलो। लेकिन मेरा तो मेरी ऑफिस के साथ अफेयर चल रहा है। ऑफिस जाना आज तो बहुत ही जरूरी था। रविवार का सारा कार्यभार बस मुझ पर था। जीवन मे समतूला बनाकर चलना बहुत ही जरूरी है। कुँवरुभा को भी नाराज नही कर सकते। और ऑफिस को भी। परिवार को प्राथमिकता देते है, सब कोई। मुझे भी देनी थी। लेकिन मैं दो नावों में चल पड़ा। सवेरे सवेरे सब को गाड़ी में बिठाकर पास ही एक प्राकृतिक स्थान है, जलकुंड है, रमणीय उद्यान है, और वातावरण तो आजकल अलग ही आह्लादक हुए बैठा है। तो लगभग दस बजे उन्हें वहां छोड़कर मैं आ गया ऑफिस। सतत तीन दिनों से मैं सवेरे जल्दी जागकर ग्राउंड में जाकर, कसरतें करने वाला नित्यक्रम भूल चुका हूँ। उसका यथोचित कारण यही है, कि सवेरे सवेरे मौसम मस्त ठंडा होता है, और नींद के साथ आलस गठजोड़ कर लेती है।
सुबह का प्राकृतिक सैर और नर्सरी की खरीदारी
ग्यारह बजे तक ऑफिस पहुंच गया था। आज सारा ही कार्यभार मुझपर ही था, फिर भी एक बज गया। अक्सर मुझे अकेले को ही करना होता है वह काम मैं बड़ी जल्दी कर लेता हूँ। एक बजे निकला, वापिस वहीं जहां कुँवरुभा को सवेरे छोड़ आया था। वापिस लौटते हुए रास्ते मे सबको बादामशेक और मावा-मलाई कुल्फी का सेवन करवाया। और ले चला एक नर्सरी..! हमेशा वाली वही कली बड़ी तत्पर थी, दो टूक जवाब ही देती है वह। हाँ, ना, एकसौ पचास, लेना है, नहीं, बस यह कुछ गिने चुने शब्द ही वह बोलती है। मुझे तो आज कोई पौधा नही लेना था, लेकिन मेरे माताजी ने एक कोई पौधा ले लिया। रंगबिरंगी पत्तों वाला कोई पौधा है। पत्ते की किनारी लाल है, और बीच बीच मे लाल बिंदियां है.. नाम तो मुझे भी नही पता है। लेकिन गूगल से पूछ लेंगे किसी दिन। (Aglaonema red lipstick) पौधे के साथ एक प्लास्टिक का गमला, और थोड़ी मिट्टी भी.. एक्सेसरीज़ खरीदनी आवश्यक है। क्योंकि पौधे हवा में नही लग सकते।
बाइक, मैकेनिक और एक अनोखा ब्रह्मज्ञान
अभी यह तामझाम लेकर घर पहुँचूँ उससे पूर्व ही गजे का फोन आ गया। बोला, 'साढ़े पांच, गरबी-चोक।' मैंने ok कहा, उसने रख दिया। मैं भूल चुका था, पिछली शाखा में तय हुआ था, कि लड़कों को साफा बांधना सीखाना तय हुआ था। घर आकर चाय वगेरह पीकर निकल पड़ा। पहले तो मेरे वाछटीये को मैकेनिक को दिखाना था। बेचारा चलते हुए चींखता है। दरअसल दो-तीन हफ्ते से बाइक की चैन बिना ऑयलिंग के चल रही थी। और सूखी चैन खड़भड़ाती बहुत है। तो आज हमेशा की विपरीत दिशा में चल पड़ा। रास्ते मे पड़ते मेडिकल से कुछ जरूरी सामान याद आ गया, और सामने ही गैरेज था। गैरेज वाले ने देखकर बोला, 'जैसे इंसान पानी बगैर नही चल सकता, बाइक तेल के बिना, और चैन आयल के बिना..' उससे भोजपुरी लहजे में हिंदी का यह अमूल्य ब्रह्मज्ञान पाकर मैं तृप्त हो गया, और उससे कहा, 'ठीक है महाराज, सींच दो इस सूखी अयस (लोहा) को ऑयल से।' उन्होंने अपने वरदहस्त में कुप्पी धारण की, बाइक डबल स्टैंड पर चढ़ाई, और गियर में डालकर चालू कर दी। किसी की मृत्युक्षण में जैसे बूंद बूंद कर गंगाजल देते है, कुछ उसी प्रकार इस महाज्ञानीने चैन को चैनोकरार दिया।
साफ़ा बांधने की कला और प्रशिक्षण
खेर, वापिस लौटते हुए एक दुकान पर स्टॉप लिया। एक बढ़िया कड़क मावा मुखार्पण किया। और चौक में आ गया। पांच बज रहे थे। मेरे सिवा कोई भी नही था। विषैले ने विष त्यागते हुए मुझे पांच बजे बुलाया, और जिनको सीखना था उन्हें साढ़े पांच बजे। हुशियार है, मुझे सेलिब्रिटी फील लेने ही नही दिया उसने। अक्सर सेलिब्रिटी लोग, या चीफ गेस्ट टाइप के लोग किसी फंक्शन में लेट ही पहुंचते है। मुझे सिखाना था, और मैं ही सबसे पहले पहुंच गया। एक महीने बाद नवरात्रि है। और नवरात्रि चौक की हालत बड़ी खस्ता है। कुछ तो इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड वालों ने अपनी लाइन में पड़ते वृक्ष, और कुछ उस चौक के आस-पड़ोस के लोगोने वृक्षों की शाखाएं तोड़ तोड़कर इस चौक को कूड़ेदान बनाकर रख दिया है। इतना अच्छा है, कि कोई कचरा नही फेंकता है। काफी सारी लकड़ियां इकट्ठी हो गयी है। मुझे काम आएगी सर्दियों में। सर्दियों में मेरी बैठक होती है वहां। अकेला आग सेंकता बैठा रहता हूँ। धीरे धीरे मेरे विद्यार्थी आने शुरू हुए।
सबसे पहले तो उन सबसे चौक ही साफ-सूफ करवाया। जितनी टूटी हुई डालियां पड़ी थी, वे सब साइड करवाई। कुछ बबूल उग आए थे, उनका मुलनिकन्दन करवाया। ठीक छह बजे प्रशिक्षण शुरू किया। साफा बांधना पहले एक रोजमर्रा की वस्तु होती थी, लेकिन अब इसे कला मानी जाती है। पहले साफा बांधना उतना ही जरूरी था, जितना वस्त्र धारण करना। लेकिन अब साफा प्रचलन से बाहर हो गया है। अब तो कईं जगह रेडीमेड साफा मिलते है। या फिर शादियों में पैसे देकर एक आदमी बुलाते है, जो सभी लोगों को साफा बांध देता है। मैंने जो सीखा था, वह सबको सिखाया। बड़ी विचित्र समस्या यह है, कि मुझे कोई चीज सीखानी नही आती। मैंने यह बात देखी है, जब भी मैं किसी को कुछ सिखाता हूँ, तो थोड़ा उग्र हो जाता हूँ, थोड़ा व्यग्र भी। धैर्य नही धर पाता। मुझे लगता है, कि इतना आसान काम इसे क्यों समझ नही आ रहा है। मुझे प्रेक्टिस है, इस लिए मेरे लिए आसान है। वे लड़के पहली बार बांध रहे थे, बार बार कोशिश करेंगे, तभी सही से हाथ बैठेगा। फिर भी तीन चार लड़के कुछ ही देर में सीख गए।
खेल, व्यायाम और बचपन की यादें
खेर, रविवार तो बड़ी ही जल्दी निपट गया हो ऐसा लगा। क्योंकि इस साफा प्रशिक्षण के बाद हम लोग खेल खेलने लगे। काफी संख्या थी, इस लिए मैदानी खेल ही खेले। थोड़े भागदौड़ वाले और थोड़े मानसिक..! याद ही नही है, कि आखरीबार कब कोई खेल खेला था जिसमे भागदौड़ की हो। बड़े हो जाने के नुकसान यह भी है। खेल की भावना फिर बस मन मे ही रहती है। जैसे जैसे बड़े होते जाते है, खेल भी सीमित होते जाते है। कबड्डी, खोखो, कब चेसबोर्ड या लूडो में बदल जाते है, ध्यान नही रहता। ध्यान तो रहता है, क्योंकि हम स्वयं ही धीरे धीरे वे खेलों को टालते जाते है। आलस या थकान के नाम पर। सही भी है, उम्र भी असर करने लगती है। आज जो खेल खेल रहे थे, उसमे काफी उठक बैठक और भागना था। बैठे हुए से अचानक भागना हो तो, अब कठिन लगता है। उससे अधिक कठिन हो चुका है, पालथी मारकर बैठे हो, फिर बिना जमीन का सहारा लिए खड़ा हो जाना। जैसे शाला में करवाते थे, उत्तिष्ठ और उपविश। उत्तिष्ठ सुनते ही खड़ा हो जाना होता था, और उपविश सुनकर बैठना। तब जमीन को हाथ लगाए बिना ही उठ खड़े हो जाते थे। अब हाथ से शरीर को ऊपर की ओर धकेलते हुए खड़ा होना पड़ता है।
पता नही, मुझे लगता है, पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति बढ़ गयी है शायद। मैं वैसा ही हूँ जैसा पहले था।
शुभरात्रि।
२४/०८/२०२५
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