टेंशन, नीरसता और रणमां खिल्युं गुलाब || दिलायरी : 21/08/2025

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टेंशन – क्या यह वाकई इंटरेस्टिंग हो सकता है?

    प्रियंवदा ! टेंशन हो वह इंटरस्टिंग कैसे हो सकता है? मुझे तो समझ नहीं आ रहा है। टेंशन = इंटरेस्टिंग? यह तो वही बात हो गयी, कि इंटरेस्ट चाहिए तो कहना होगा आ बैल मुझे मार..! खेर, सबकी अपनी पसंद होती है, अपनी विचारशैली, किसी को टेंशन मजेदार लगता है, तो किसी को समस्या, तो किसी के लिए टेंशन एक किक का काम करता है। मेरे लिए टेंशन का एक ही मतलब है, क्रोध.. और अशांति..! मैंने जितनी बार टेंशन लिया है, कोई न कोई मेरे क्रोध का शिकार हुआ है। और टेंशन में अक्सर आदमी इधर-उधर निकल भी जाता है। स्नेही कह रहा था, नीरसता को एन्जॉय करो..! तो सोचा ट्राई करते है। दसेक बजे से मैंने नीरसता को आलिंगनबद्ध कर लिया। वैसे भी पुरुषों में आलिंगन के प्रति एक अलग ही आकर्षण होता है। नीरसता में एन्जॉयमेंट भी लानी थी.. और २-४ दिनों से मेरे एन्जॉयमेंट का साधन बुक है। 


Exploring tension, nirasata and joy through books, reels & Sharad Thakar’s Ranma Khilyun Gulab in this Dilayari diary reflection.

नीरसता को एन्जॉय करने का अनुभव

    बिलकुल ही नीरसता पूर्वक मैं बुक बांचने लगा। बुक बड़ी मस्त है। गुजराती लेखक शरद ठाकर की बुक है, 'रणमां खिल्युं गुलाब' (रेगिस्तान में खिला गुलाब).. यह एक सीरीज़ बुक है। गुजराती अखबारों में गुजरात समाचार और दिव्य भाष्कर में कॉलम आती थी, 'रणमां खिल्युं गुलाब' नाम से। बहुत लोकप्रिय हुई। मैं भी रविवार का अख़बार कहीं से भी ढूंढकर पढता था, सिर्फ यह कॉलम के लिए। और एक और कॉलम आती थी, दौलत भट्ट की 'धरती नो धबकार' नाम से। वे दोनों मेरे सबसे प्रिय थे। जहाँ एक और धरती नो धबकार में शूरवीरता, दाता, वचन जैसे गुणों से ओतप्रोत इतिहास की सत्य घटना की कहानियां आती थी। वहीँ इस रणमां खिल्युं गुलाब में आधुनिक जीवन की ऐसी कहानियां होती थी, जो सोचने पर विवश कर जाती थी, कि जीवन में क्या क्या हो सकता है। दो लोग प्रेम के नाम पर कैसे कैसे विक्रम बना जाते है। 


‘रणमां खिल्युं गुलाब’ – शरद ठाकर की किताब का संग

    यह रणमां खिल्युं गुलाब के तो अभी तक दस भाग प्रकाशित हो चुके है। मैं फ़िलहाल सबसे पहला भाग पढ़ रहा हूँ। कुछ कहानियां पढ़ते हुए वह पुराने पेपर पढ़ने वाले भाव भी आ-जाते रहे मन में। लेकिन मुझे तो नीरसता रखनी थी, स्नेही के कहे अनुसार। लेकिन साथ ही नीरसता को एन्जॉय भी करनी थी..! तो मैंने बड़े ही उदास मुँह से लगभग आधी बुक पढ़ ली। दोपहर को भी बड़ी ही नीरसता से भूख को कोसने लगा। प्रियंवदा ! एक तुम हो जो इतने पत्रों में सरल बातों में छिपे सन्देश लिखने पर भी प्रकटती नहीं। और एक यह भूख है, जो दिन में तीन बार उठ खड़ी होती है। बिलकुल वैसे जैसे पेट्रोल आग पकड़ता है। नीरसता को बनाए रखने के लिए और कोई उपाय न होने से बस चिप्स से काम चलाया। क्योंकि घर चला जाता तो नीरसता भंग हो जाती। 


रील्स, सोशल मीडिया और मानसिकता

    यूँ तो हमारे पास लंच टाइम के नाम पर दो घंटे का अवकाश होता है। लेकिन मैं ऑफिस में ही आलसी अजगर की भांति पड़ा रहता हूँ, तो कुछ न कुछ काम भी कर लेता हूँ। मैंने नीरसता को खूब एन्जॉय करनी चाही। इसी कारणवश बुक बंद कर दी। क्योंकि बुक रसदार थी। और मैं नीरसता के बाहुपाश में बंधा रहना चाहता था। खेर, नीरसता को बरक़रार रखते हुए मैंने रील्स देखनी शुरू की.. रील्स ने मुझे निराश नहीं किया, बड़ी ही बेकार बेकार और द्विअर्थी रील्स ने, मेरी लोगो के हो रहे मानसिक पतन को देखते हुए, नीरसता में एन्जॉयमेंट आ रहा था। रील्स की कुछ लड़कियां अपना सौंदर्यवान देह दिखाकर मेरी नीरसता को भंग करना चाहती थी, लेकिन मैंने अपनी नीरसता को बरक़रार रखा, और स्क्रॉल करता आगे बढ़ता रहा। 


नौकरी और नीरसता का संगम

    नीरसता में ही याद आया। आजकल मित्रों को रील भेजना भी एक अनिवार्य काम है। लेकिन मेरी फीड पता नहीं किस अल्गोरिदम के वश होकर बदनाम गली जैसी हो चुकी थी.. फिर कुछ फनी रील्स को धड़ाधड़ लाइक करने पर फीड भी सुधर गयी..! यह मैंने अक्सर देखा है, कुछ दिन अगर मैं रील्स नहीं देखता हूँ, तो फीड में देहाकर्षण का अंबार लग जाता है। और फिर शायरियां, या कुछ फनी रील्स सर्च करने पर सुधार आ जाता है। नीरसता के साथ उस कुछ देर के एन्जॉयमेंट से लगा, कि यहाँ भी नीरसता भाग रही है। और रील्स रसप्रद लगने लगी है। तो मैं भी रील्स की दुनिया से भाग खड़ा हुआ। नीरसता का आचरण करने में एक मात्र उपयुक्त कार्य है, वह है, नौकरी का काम.. अपवाद को छोड़कर हर कोई यही कहेगा, कि नौकरी ही नीरसता का पर्यायवाची है। 


    मैं पुनः एक बार हार चूका, नीरसता को एन्जॉय नहीं कर पाया। मैंने हर जगह नीरसता के कुछ ही देर बाद कुछ न कुछ मजेदार पाया। वैसे नीरसता इस बात पर पुनः लौटने भी लगी है, कि कुछ दिनों के बाद काम का बोझ और बढ़ने वाला है। वैसे जहाँ तक मुझे पता है। मेरे पास दिनभर इस कंप्यूटर स्क्रीन के आगे बैठे रहने के अलावा और कोई काम है तो नहीं। बस जो काम बढ़ने वाला है, वह इस स्क्रीन में और एकाग्रतापूर्वक नजरें गड़ाएं रखने का होगा। फ़िलहाल ढाई नम्बर का दृष्टिदोष है, आगे आगे देखते है होता है क्या..! 


अमावस्या की ओर प्रियंवदा का स्मरण

    साढ़े सात बजे वर्षा की एक लहर मिट्टी की खुशबु को फैला चुकी है। कालाघट्ट अँधेरा भी कुछ ही देर में पसर चूका है। मधुर ठण्ड वातावरण में ऐसे घुल गयी है, जैसे जल में शर्करा। अमावस्या में अभी दो दिन शेष है, लेकिन चंद्र तब भी कहीं छिप गया है। जैसे छिप गयी हो तुम प्रियंवदा!


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    समय से पूर्व, घड़ी को बेखबर रखकर,
    जैसे छिप जाता है समंदर में लहरों का बल,
    या फिर नदियों का जल,
    उस घनी अँधेरी अमावस्या को पछाड़कर,
    तुम आना,
    एकम की लकीर बनकर,
    तुम आना,
    गति को पैरो में बांध,
    गांडीव से छूटा तीर बनकर,
    मैं वही खड़ा मिलूंगा,
    उसी संधिकाल में, 
    जहाँ उष्णता का तेज हरा जा रहा है,
    वहाँ ठण्ड को आराधता हुआ,
    शीत को साधता हुआ,
    स्वयं को बांधता हुआ..!
    अनंत के छोर पर..!

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    शुभरात्रि

    २१/०८/२०२५

|| अस्तु ||


प्रिय पाठक !

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