बारिश और ऑफिस जाने की जिद
प्रियंवदा ! जिन्होंने अतिवृष्टि नही देखी होती है, उनके लिए बड़ा आसान होता है, और वर्षा को मांगना। पंजाब, हिमाचल, कश्मीर.. जब रात की रोटी तक का निश्चित न हो, उन्हें ही कदर होती है, अनाज के एक दाने की। आज सुबह से बहुत अच्छी बारिश हुई है। रेड अलर्ट था वैसे भी। होनी ही थी। फिर भी मेरा ऑफिस प्रेम देखो तुम। आज तो उल्टा टिफिन भी ले गया था। मैं आखरी बार कब टिफिन लेकर ऑफिस गया था, मुझे याद तक नही। फिलहाल, बारिश बन्द हुई है। छत पर सोलर के नीचे मस्त कुर्सी डालकर बैठा हूँ। गेंदे को सोलर के सप्पोर्टर के सहारे बांध रखा है, इस लिए आज तूफानी हवाओ को वह सह गया है। गुड़हल समेत सारे ही पौधे बंधे हुए है। लेकिन तब भी गमले सारे ही पानी से लबालब भरे हुए थे। सारे गमलों को तिरछा करके उनका पानी खाली करना पडा।
सवेरे भीगते हुए ही ऑफिस चल पड़ा था। काम तो था भी और नही भी। नही जाता तो चल सकता था। कल पूरा दिन, पूरी रात, और आज पूरा दिन बादलों के बरसने पर भी यहां का तालाब नही भर पाया है। तालाब बड़ा नही है, बारिश उतनी नही हुई। फिर भी आफिस पहुंचा तो पूरा भीग चुका था। बारिश के ही कारण मिल बन्द थी। ऑफिस पहुंचने का रास्ता पूरा ही, पानी भरे गड्ढों से भरा हुआ था, लेकिन फिसलती-संभलती बाइक उससे निकाल लायी मुझे। लाइट भी नही थी। कुछ देर रील्स देखने के चलते मोबाइल की बैटरी भी बैठ गयी। सरदार को भी कितना भरोसा है मुझपर, उसे पता था कि मैं ऑफिस पर ही पाऊंगा। उसने फोन पर कुछ बैंक ट्रांसफर्स करवाने चाहे। लेकिन न ही लाइट थी, और न ही इंटरनेट। इंटरनेट भी स्लो चल रहा था, आज भी..!
घर लौटने की कहानी
हवाएं बहुत ठंडी चल रही है प्रियंवदा। सर्दियों का अहसास कराती है। चारोओर बस पानी ही पानी भरा दिखता है। यह बारिश भी लगता है, जैसे कुछ देर सांस लेने रुकी थी। साढ़े छह बजे रहे है शाम के, लेकिन सवेरे से ऐसा ही मौसम है। जैसे सवेरा हुआ ही न् था, सीधी शाम ही हो गयी थी। प्रियंवदा ! प्रतिदिन नौकरी जाने वाला पुरुष घर पर शांति से बैठ ही नही सकता। मैं नही टिक पाता घर पर। सवेरे इसी कारणवश ऑफिस चल दिया था। चालू बारिश में भी। मैं ही नही, मेरे जैसे कईं सारे और भी थे। घर पर बैठे बैठे बोर हो जाता हूँ। मुझे लगता है, स्त्रियां कैसे झेल पाती होगी? क्योंकि उनके लिए तो आफत है घर बैठा हुआ पुरुष.. क्योंकि उनकी सारी नियमितता टूट जाती है इससे। कभी पानी लाओ, कभी चाय बनाओ, उनका दोपहर की नींद का तहसनहस हो जाना, बड़ा अलग है।
मैं आज दोपहर बाद से घर पर हूँ, रविवार की बात अलग होती है। लेकिन आज सोमवार था। मैं ऑफिस से पूरा भीगकर लौटा था। तो नए सूखे कपड़े मंगाए। फिर एक चा.. उसके बाद भोजन में तो वही खाना पड़ा, जो टिफ़िन में मेरे साथ सवेरे ऑफिस चल पड़ा था। उसके बाद घर के सभी सभ्य नींद लेने लगे, और मैं परेशान.. टाइम-पास कैसे करूँ? फोन में तो चार्जिंग था नही। हुकुम भी घर पर ही थे, उनका भी टाइम नही जा रहा था। वे तो छाता लेकर चल पड़े। घन्टाभर अपना घूम आए। मैंने उस एक घण्टे में ऑफिस को खूब याद किया। ऑफिस से मेरा तात्पर्य है, स्क्रीन को.. कंप्यूटर स्क्रीन हो या मोबाइल स्क्रीन..! ऑफिस पर कुछ न कुछ काम निकल आता है, तो पता नही चलता कब शाम हो गयी। यहां तो एक एक सेकंड गिननी हो तो गिनी जा सकें। स्त्रियों के पास तो अपने कईं काम होते है। वे तो व्यस्त हो जाती है। कभी सूख चुके कपड़े समेटने है, कभी सब्जियां काटनी है, तो कभी बर्तन अपनी जगह पर रखने है। यह बारिश न होती, तब तो मैं भी बाइक लेकर कहीं इधर-उधर अपना दिन काट आता।
बारिश और पकोड़ों का रिश्ता
प्रियंवदा ! और जगह का तो पता नही। लेकिन गुजरात मे तो जब भी बारिश होती है, घर घर से बेसन की आवाजें उठती है। बारिश का और बेसन का जरूर कोई पुराना नाता रहा है। जैसे अपने प्रधान मंत्री का नाता है, प्रत्येक उस जगह से, जहां वे भाषण देने जाते है। बारिश होते ही, गैस के चूल्हे पर तेल भरी कढ़ाई चढ़ जाती है। उधर छम छम बारिश की बूंदों की आवाज के साथ, इधर आलू, प्याज, पनीर, मिर्ची, मेथी, के भजिया बेसन में घुलकर तेल में गिरते ही छम छम की आवाज.. दोनो आवाजें एकाकार हो जाती है। आम बात है, पकोड़े और बारिश दोनो..! मजा इस बात में है, जब घर पर बैठा पुरुष पकोड़े पर एक्सपेरिमेंट करे.. और स्त्री का फालतू में काम बढ़ाये। केले के पकोड़े मैंने सुने थे, चखे नही.. आलू, प्याज के तो बन ही रहे थे। फ्रिज के ऊपर एक केला पड़ा था, दे दिया.. वैसे इतनी घटिया चीज मैंने कभी चखी नही। और न कभी चखना चाहूंगा।
बरसात के बाद की शांति
बारिश अभी रात के नौ बजे रुकी है। अब जाकर कुछ चहलपहल चालू हुई है। आज काफी दिनों बाद पंछियों के कलशोर भी सुनाई पड़े। प्रकृति ने जब मानवों को म्यूट किया, तब जाकर पंछियों की आवाज कुछ सुनाई पड़ी। यूँ दिनभर इतनी ज्यादा मानवीय आवाजें होती है, कि प्रकृति के अपने स्वर कहीं दबकर रह जाते है। सतत हुई बारिश के रुकने के बाद, मानव प्रजाति अभी तक घर मे दुबकी बैठी थी। छोटे से छोटी चिड़िया भी बाहर निकली होगी, मेरे गमलों तक, उसमे लगे फूलों तक, सामने दशकों पुराने वृक्षो की शाखा से, और दूर एक तीन मंजिला मकान की छत की दीवार से.. हर जगह से पंछियों का स्वर सुनाई पड़ रहा था। कितने समय बाद ऐसी शांति अपने ही घर पर मिली है। इस शांति के लिए पहाड़ों में जाना पड़ता है, वनों में विचरण करना पड़ता है। या किसी शांत आश्रम के शरण मे जाना पड़ता है..!
शुभरात्रि
०८/०९/२०२५
|| अस्तु ||
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