मानसिक असंतुलन भरा रविवार
बड़ा ही मानसिक असंतुलन भरा रविवार था प्रियंवदा। सवेरे सवेरे दिमाग हिल गया था, फिर तो पूरे दिन बस मन उखड़ा उखड़ा रहा था। बारिश भी पूरा ही दिन रुकी नही हैं। मैंने एक बार रिमझिम की मांग क्या की, ऊपरवाले ने तो गंभीरता से ले लिया। आज लगभग तीसरा दिन है। रिमझिम का तामझाम रूक ही नही रहा। दोपहर के बाद से लगातार बारिश जारी है। कभी कभी दिन भी इस बारिश की तरह बड़ा धीमा होता है। आप चाहते हो, कुछ तो हो, लेकिन दिन आगे नही बढ़ता। वह भी जैसे रुका रहता है। इसका एक कारण तो मैंने प्रत्यक्षद्रष्टा देखा, वह था सूर्य का अदृश्य रहना। आज सवेरे भी बिल्कुल तूफानी हवा थी। रातभर रिमझिम चालू था। सवेरे छत पर गया, तो गमले पानी से लबालब थे। उन्हें खाली किये, फिर उन्हें सोलर के नीचे कर दिए, ताकि फिर से पानी से न भर जाए। पूरे दो दिन से ठीक से सूर्य प्रकाश आया ही नही है।
सुबह की दिनचर्या और कसरत की मुश्किलें
मौसम तो और भी खराब होने वाला है, ऐसा समाचार मिला। रविवार था, फिर भी सवेरे आंख ठीक साढ़े छह को खुल गयी थी। ग्राउंड पहुंचा, तो आज तो कोई भी नही था। पूरा मैदान खाली। क्योंकि बारिश के कारण कईं जगह कीचड़ में फिसलन हो जाती है। खेर, सवेरे pace walking तो संभव नही हो पाई, फिसलन के कारण। तो सोचा बस कसरतों से ही संतोष पा लिया जाए। वैसे भी आलसी को बस बहाने का बहाना चाहिए। वो गाना है न, "एक मुलाकात जरूरी है सनम.." आलसियों के लिए थोड़ा सा अलग है, "एक बहाना जरूरी है सनम.." मजेदार बात आज के दिन की बस यही थी, कि आज सूर्यनमस्कार भी सूर्य से विमुख होकर किये है। दरअसल सूर्यनमस्कार सूर्य के सम्मुख होकर किए जाते है। लेकिन आज सवेरे सवेरे आंधी जैसी हवाएं चल रही थी, और मैं आज शर्ट पहना हुआ था। पश्चिम से पूरब की ओर बहती हवाएं मेरे पीठ थपथपाती थी।
सूर्यनमस्कार के लिए जैसे ही झुककर हाथ जमीन को छूते, पीछे से हवा शर्ट को उठाले.. पूरी पीठ खुल जाए.. अकेला था, शर्म की बात न् थी, शर्ट उतर भी जाए तो भी। दो सूर्यनमस्कार तो हो गए, तीसरे में ध्यान गया कि दो आंटियां भी इस मैदान में अपने भारी शरीर से मिट्टी में पदचिन्ह छोड़ती चली जा रही थी। अब शर्ट का अपनी मर्यादा को बनाए रखना बड़ा आवश्यक था। लेकिन बार बार हवाएं आती, शर्ट के भीतर घुसती, और शर्ट का गुब्बारा बनाकर ऊपर उठा देती। आज पता चला, ओवरसाइज पहनने का नुकसान क्या है..! सोचा, हवाएं पश्चिम से पूरब चल रही है, तो मैं उत्तर की ओर मुख कर के खड़ा हो गया.. लेकिन यहां भारी समस्या यह थी, की हवाएं इतनी तेज थी, कि जब पीछे की दिशा में झुकते है तो बैलेंस बिगड़ जाए। फिर तो भगवन सूर्यनारायण से क्षमा प्रार्थी होकर, उन्हें पीठ दिखाते ही सूर्यनमस्कार पूरे किए।
ऑफिस और पब्लिशिंग की गड़बड़ियां
विषैले गजे ने भी एक चीज सिखाई थी, जब मैने उससे कहा था, कि अब मैं भी नियमित रूप से कसरत करता हूँ। उसने कुछ नाम बताया था, मैं भूल गया हूँ, जमीन से समांतर होकर कोहनी से लेकर हाथ के पंजे पर पूरा शरीर का भार उठाये रखना होता है। कितनी देर तक रोक सकते हो, यही देखना होता है। उसने सच कहा था, बीस सेकंड भी बहुत ज्यादा लगते है। कलाई से लेकर कोहनी तक जब अपने ही शरीर का भार आता है, तो हाथ भी हाथ जोड़ लेते है..! आज अलग ही करना था, तो पुशअप्स भी किये। जिम वाले नही, देशी वाले। चौथे में ही मेरे कंधे मना कर गए। वैसे भी, कसरतें शरीर की क्षमताओं से अधिक नही करनी चाहिए। यह नियम मुझे नींद में भी याद रहता है। ऑफिस पहुंचा, तब बूंदाबांदी तो चालू हो चुकी थी। ऑफिस पहुंचकर देखा तो पता चला, कल की दिलायरी शिड्यूल तो है, लेकिन पब्लिश नही हुई। ध्यान से देखने पर पता चला, सुबह के नौ के बजाए रात के नौ पर शिड्यूल हुई पड़ी थी। उसे तुरंत ही पब्लिश की।
नाई की दुकान पर दिलचस्प किस्सा
दोपहर को घर लौटा, तब भी बारिश की बूंदाबांदी बरकरार थी। फिर से एक बार भीग गया। कपड़े बदले, और चल पड़ा नाई के पास। एक साथ तीन पीढ़ी, नाई के पास थी, कुँवरुभा मैं, और हुकुम..! यह थोड़ा बड़बोला है, तो थोड़ा डर बना रहता है कि कहीं यह हुकुम के सामने मावा या धूम्रपान ऑफर न कर दे। लेकिन वह भी समझदार निकला। उसने आज मेरे बजाए हुकुम को ऑफर किया। हालांकि उसने जब बोला, लो जागीर... तब एक बार तो मैं डर ही गया था। लेकिन शीशे में देखने से पाया कि वह हुकुम के सामने देख रहा था। ऐसा हो जाता है प्रियंवदा। बहुत बार ऐसा होता.. जिनकी हम शर्म भरते है, उनके सामने ही शर्म टूटने के बहुत सारे प्रसंग निर्माण हो जाते है। स्कूल में पहली बार ही मैंने गुटखा खाया था, और पहली बार मे पकड़ा गया था। मैंने तो यह जानने के लिए गुटखा खाया था, कि इसमें ऐसा कौनसा नशा है, कि लोग इतना चबाते रहते है..!
बचपन की यादें और नकाबपोश शरारतें
मैंने एक पुड़िया चबाई.. बड़ा ही बेस्वाद लगा। तो उसे थूक ही रहा था, कि दीदी (टीचर) ने देख लिया। उन्होंने सोच लिया, कि मैं गुटखे का शौकीन हूँ। तो उन्होंने हुकुम को बुला लिया। वो भी मुझे बताए बिना। उन दिनों हुकुम के पास बजाज का चेतक हुआ करता था। मैं अपनी मस्ती में स्कूल छूटने पर सायकिल से घर ही चला आ रहा था। पीछे से चेतक की आवाज आई, तो मैंने मुड़कर देखा, हुकुम ही थे। उन्होंने बस इतना ही कहा, स्कूल पर मिलने बुलाया था। मेरी पूरी स्कूलिंग में सिर्फ वही एक वाकिये में हुकुम को स्कूल का धक्का हुआ था। बड़ा डर भी लगता है, और खुद से बुरा भी। मैं शरारती तो पूरा था, लेकिन मैं शायद बचपन से नकाबपोश रहा हूँ। मेरी दो छवियां रही है। मित्रो के आगे कुछ और, दूसरे लोगो के सामने कुछ और। मेरी शरारत के बावजूद मेरा कभी नाम नही आया, टीचरों को गले तक भरोसा रहता था, कि यह लड़का हो ही नही सकता। और मैं उनके इस भ्रम को कभी भी टूटने भी नही देता था। मार्क्स भी अच्छे ही ला देता।
दोपहर बाद बड़ी गम्भीर समस्या यही रही, कि करें तो करें क्या? कुँवरुभा के साथ खेलखेलकर भी कितना खेलूं? आखिरकार संध्या हुई। कुँवरुभा भी खाना खाकर सो गए। तब जाकर मैंने मोबाइल हाथ मे लिया। आजकल बच्चों को मोबाइल देने के इतने दुष्परिणाम आसपास दिखने लगे है, कि क्या ही करें..? पास में ही एक पांच साल के बालक को आंखों पर चश्मा लगा है.. ऊपर से उसकी तो हरकतें भी वो वाली हो गयी, कि हाथ मे मोबाइल न हो, तब भी वह स्वाइप-अप करता है.. बड़ा डर लगता है। पहले मैं भी मोबाइल दे दिया करता था, लेकिन दो-तीन महीने में ही समझ आ गया, कि बालक चिढ़-चिढ़ा हो जाता है। तो अमरीका टाइप सैंक्शन लगा दिए मैंने। चौबीस में से सिर्फ एक घंटा ही फोन चलाने मिलेगा। यह भी ज्यादा है, क्योंकि सतत एक घण्टा, आंखे एक ही स्क्रीन को घूरती रहती है।
रात का चंद्रग्रहण और लाल चाँद की यादें
फिलहाल सवा दस बज गए है। आसमान में लगातार बिजलियाँ गड़गड़ा रही है। और उसके धीर-गंभीर नाद से खिड़कियों के शीशे कपकपाते हैं। आज चंद्रग्रहण था, लेकिन मेरे यहाँ तो बादलों ने पूरा आसमान घेर रखा है। बड़ी आशा थी, लाल चंद्रमा देखने की। काफी समय पहले देखा था। उस दिन भी पूर्णिमा थी। चन्द्र एकदम लालचटक हो चुका था। अनायास ही मेरी नजर आसमान के उस लाल चंद्र पर पड़ी थी। और वह दृश्य अंकित हो चुका मेरे मानस पर। आज यदि बादल न होते, तो यह अलौकिक नजारा पुनः एक बार देखने मिलता। यहां न सही, कल किसी न् किसी रील में तो मिल ही जाएगा।
शुभरात्रि
०७/०९/२०२५
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