गुजरात का मिज़ाज – जिद और जुगाड़
भारत, और भारत में खासकर गुजरात.. किसी बात को सप्रेम स्वीकारते ही नहीं। और अगर किसी बात पर अड़ गए, तो फिर तो हिमालय के शिखर गिर जाए, लेकिन भारतवासी अपनी जगह से नहीं खिसकता। वैश्विक उदहारण ही देख लो, वो ट्रंपिया कभी ये टेर्रिफ लगता है, कभी वो सेंक्शंस थोप देता है। लेकिन उसे कहाँ पता है, वो गुजराती से उलझ रहा है। वो भी दो-दो गुजराती की जोड़ी है। गुजराती वो प्रजा है, जो सिंधी से माल खरीदकर मारवाड़ियों को बेच दे, वो भी अच्छे प्रॉफिट-मार्जिन के साथ..! वो उधर ट्रंपिया धू-धू कर जल रहा है, कहता है, मेरा आयल खरीदो..! लेकिन बाजु में ही डी-मार्ट हो तो वॉल-मार्ट कौन जाए भला?
राजकोट का अनोखा ‘हेलमेट-हटाओ आंदोलन’
उधर दो-गुजराती ट्रंपिये को मचक नहीं दे रहे है। इधर गुजरात में ही राजकोट वाले अलग लेवल के आंदोलन पर उतर आए है। 'हेलमेट-हटाओ आंदोलन'.. सीधी बात नो बकवास.. हेलमेट में आजुबाजु का दीखता नहीं है, तो नहीं पहनेंगे। वो क्या था, पुलिस वालों ने तीन दिन की ड्राइव चलाई थी, हेलमेट न पहनने पर जुरमाना वसूला जाएगा। राजकोट के लोग भी दो कदम आगे निकले, सर पर पतीले पहनकर निकले। उनका कहना था, हेलमेट पहनने से दाएं-बाएं का कुछ दीखता नहीं है। उल्टा हेलमेट पहनकर गिरते है, तो हेलमेट का ही प्लास्टिक सर फाड़ने में अव्वल रहेगा। तो बस दंड दे देंगे, हेलमेट नहीं पहनेंगे।
प्रशासन की प्राथमिकताएँ और गड्ढों की कहानी
वैसे बात उनकी भी सही है। इस बारिश में रोड के गड्ढों की चिंता करने के बजाए, प्रशाशन बगैर हेलमेट वालों से पैसे वसूलने में लगा है। राजकोट जैसे महानगर में रोड की कईं सारी समस्याएं है। फिर भी तीन घंटे में नौ लाख इक्कीस हजार पांचसौ रूपये का जुरमाना वसूला। राज़ की बात बताता हूँ, सच बात क्या है पता है? हेलमेट से सर बचे, न बचे, वो प्रश्न ही नहीं है.. हेलमेट के कारण मावा कैसे थूकेगा आदमी? हेलमेट में कहीं मावा की पिचकारी मारने की खिड़की तो दी ही नहीं है। हेलमेट कम्पनी वाले जिसदिन सस्ते, टिकाऊ, और मावा थूकने की खिड़की वाले हेलमेट बनाएँगे, तो सब पहनेंगे।
मावा संस्कृति – बचत और पिचकारी का विज्ञान
मावा खाने वालों की बात ही निराली है। बचत के ब्रांड अम्बेसडर यही लोग है। मावा खाकर कितना कुछ बचा लेते है। मावा मुँह में भरा होने के कारण यह लोग बातें कम करते है, शारीरिक ऊर्जा की बचत। मावा के कारण मुँह छील जाता है, तो तीखा नहीं खा पाते, इस लिए मसालों की बचत, और बिलकुल ही सादा भोजन करते है, तो पैसो की बचत। बड़े सामाजिक लोग होते है, एकरसता में मानते है। मुँह में मावा भरकर इशारों इशारों में बाते करते है, दिव्यांगों से भेदभाव मिटाते है। बीवी से लड़ाई इनकी इसी कारण नहीं होती है, क्योंकि बीवी से प्रतिवाद नहीं कर सकते यह लोग। मुँह से पिचकारी मारने की यदि कोई ओलम्पिक होती, तो गोल्ड मेडल एकमात्र भारतवासियों को मिलता। उसमे भी राजकोट वाले तो वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाते। खेर, यह तो मजाक था। वास्तव में प्रशासन को यह ध्यान रखना चाहिए, कि जितना वे लोग दंड वसूलने को तात्पर्य दिखाते है, उतना ही यदि बारिश में बने गड्ढों पर ध्यान दे, तो बात ही अलग होती।
आजकल ब्लॉग लिखने का मन भी नहीं करता है। बोझिल लगते है.. जबरजस्ती कुछ न कुछ लिख लेता हूँ। YQ का शौक भी उतर गया। व्हाट्सप्प पर एक नए ग्रुपमें एड हुआ हूँ, वहां उन लोगों को बातें करते देख, मुझे यह अहसास होता है, कि मुझे तो अब बातें करनी भी नहीं आती। या मुझसे बातें भी नहीं हो रही। किसी को क्या प्रत्युत्तर दिया जाए, यही समझ नहीं आता। जीवन भी नीरस सा अनुभवता हूँ। कविताएं पढ़ने में भी मन नहीं लगता। काम और नौकरी में अपने जीवन की घड़ियाँ बस खपाने में लगा हूँ। और यह हाल हर थोड़े दिनों में हो जाता है।
आधुनिक जीवन का बोझ और सोशल मीडिया साधु
सात बजे ही अँधेरा होने लगा है अब। आधा घंटा जल्दी..! एकदम से अनुभव होता है। चारोओर अँधेरा छा गया है। सारे ही कोलाहल शांत होने लगते है। मुझे भी मिलना पड़ेगा, किसी बाबा से, लेकिन समझ नहीं आ रहा, किससे मिलूं? हाथ से पंखा रोक लेने वाले लड्डूमुट्यार अवतार से, या फिर वो 'कोई तुमसे प्यार क्यों करेगा' वाले, बाबा फनीरूद्धाचार्य से। वो पर्ची वाले भी आजकल पूछने लगे है, कि "बताओ, तुम बड़े या तुम्हारे बाप..?" कल छत पर बैठा था, तो हुकुम भी बोल पड़े, मुझे तो यह अनिरुद्धाचार्य बड़ा सही लगता है। स्त्रियों को बड़ी सटीक सलाह दे रहा है, दामपत्य जीवन के विषय में। और एक वो पिले चंदन के लेप वाले प्रेमानंद..
उनका नजरिया अलग है। वे वही देख रहे है, जो बाबा लोग दिखा रहे है। फनीरुद्धाचार्य ने अपने यहाँ, गौशाला और वृद्धाश्रम बना रखे है। वहीँ प्रेमानंद बड़ी अच्छी अच्छी सलाहें दे रहे है। जबकि मैं सोच रहा होता हूँ, कि बगैर लेंस के, केमेरा के पीछे इन लोगो का व्यक्तित्व क्या है? या फिर यह सोसियल मिडिया वाले साधुओ का सत्व सोसियल मिडिया पर सिमटा हुआ है। मुझे यह भी लगता है, कि लोग वैज्ञानिक अभिगम के बदले मान्यताओं का क्यों निर्वाह कर रहे है? कल को सोसियल मिडिया बैन हो गया, नेपाल की तरह.. तो इन साधुओं का क्या होगा?
नेपाल का GEN Z आंदोलन – सोशल मीडिया की ताक़त
अरे नेपाल में GEN Z आंदोलन हुआ.. बताओ प्रियंवदा..! सोसियल मिडिया के लिए किसी देश में आंदोलन हुआ हो, वह तो आज देखा। लोगो ने सरकारी संसथान घेर लिए। सच में सोसियल मिडिया की पकड़ क्या है, जनमानस पर, वह इस आंदोलन से पता चलता है। लोग सच में ऑनलाइन मैत्री खोज रहे है, लेकिन आजुबाजु वाले दोस्त मायने नहीं रखते। फ़ोन सचमे इतना प्रभाव डाल सकता है..! गृहमंत्री से राजीनामा करवा दिया इस genz ने तो..! भयंकर है यह जनरेशन..!
रोज़मर्रा का संघर्ष और दिलायरी का मन
सवेरे वही नित्यक्रम से ऑफिस आ गया था। आजकल नए काम का टेंशन दिमाग में लिए घूमना पड़ता है। इस कारण से दिलायरी भी प्रभावित हो रही है। ऊपर से अब दोपहर की भागदौड़ भी बंद करके, एक परमेनन्ट नित्यक्रम बना दिया है। देखते है, कितने दिन चलेगा। सवेरे कसरतें तीन दिन बारिश के चलते बंद रही, तो आज आलस के कारण। फिर तो बस ऑफिस के काम, और काम.. कुछ बैंक ट्रांसफर्स, कुछ लेजर्स में माथाफोड़ी.. कश्मीर के रास्ते अभी तक खुले नहीं है। वह भी अलग समस्या है। कुछ गाड़ियां खड़ी है, वहां। और उनके वेबिल्स की वेलिडिटी बढ़ाते रहना। दिमाग में एक साथ सौ समस्याएं, उनका समाधान, और तरीके, सब कुछ एक साथ चलता है। वातावरण ठंडा था, और आज कड़क धूप निकल आयी। सरदर्द हो गया वह अलग से।
ठीक है, यही जीवन का एक वह पड़ाव है, जहाँ से हर कोई गुजरता है, कुछ यादों की गठरिया बाँध कर। आगे के रास्ते में इन गठरियों का अनुभव काम आता है। बोझिल भी लगती है यह गठरिया, और आनंदित भी करती है। थकता है, वह बैठकर पिछ्ला पूरा रास्ता नजरों के आगे तैरता अनुभवता है। पता नहीं क्यों, इस जीवन की ट्रेडमिल पर दौड़ता रहना ही नियम है। रुकते है तो सब कुछ ही क्यों रुक जाता है?
शुभरात्रि।
०९/०९/२०२५
|| अस्तु ||
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