दिलायरी : सुकृत, विकृत और रोज़मर्रा की भागदौड़ || दिलायरी: 18/09/2025

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सुकृत और विकृत : जीवन के दो पहलू

    फ़िलहाल खाली समय मिला है, तो सोचता हूँ दिलायरी लिख ली जाए.. वैसे मन तो वह बुक पूरी करने का है। क्योंकि आधी पढ़ चूका हूँ। और बड़ी ही विचित्र मनोस्थिति में फंसा हूँ। कि पूरी पढ़ लेनी चाहिए या नहीं। उत्सुकता तो बनी हुई है, पूरी करने की। लेकिन एक और मन कहता है कि विकृत है..! कितना अच्छा शब्द है न, सुकृत और विकृत। 'सौ सुकृत एक पालणै, एको हि सामधरम'.. सुकृत शब्द याद आते ही यही वाक्य याद आता है। राजशाही काल में ईडर के राजचिन्ह में यह सुविचार अंकित है। जिसका अर्थ है, कि किसी तराजू में एक पलड़े में सौ सुकृत्य रख दिए जाए, तो वह एक साम धर्म के बराबर होता है। साम धरम माने स्वामिभक्ति। एकनिष्टता, प्रमाणिकता। जो स्वामिभक्ति किसी दिन दुर्गादास राठौर ने दिखलाई थी, अजीतसिंह जी को राजा बनाने के लिए।


सुकृत और विकृत पर चिंतन के साथ दैनिक जीवन की भागदौड़ – दिलायरी

    सुकृत का विपरीत दुष्कृत हुआ, लेकिन विकृत थोड़ा सा अलग है। विकृत हुआ बिगड़ैल, अस्वाभाविक, कुरूप, या दोषयुक्त..! जीवन में ऐसे बहुत सारे प्रसंग निर्माण होते है, जहाँ दुष्कृत्य भी होते है, और विकृत भी। विकृति कईं तरह की होती है, रूप से लेकर विचार तक। फ़िलहाल जो बुक पढ़ रहा हूँ, मुझे उसमे विकृति ही नजर आन पड़ती है। क्योंकि यह मेरी मानसिकता है। किसी को ठीक भी लगती हो। खेर, उस मुद्दे को विस्तार से किसी दिन बुक रिव्यू में सम्मिलित कर लेंगे। फ़िलहाल तो अपनी भागदौड़ भरी जीवनी में लौटता हूँ। 


चीरहरण से वैक्सिंग तक : रोज़ की झंझटें

    प्रियम्वदा, मूलतः मैं क्षत्रिय हूँ। और हमारे लिए मजाक में कहा जाता है, कि हमारे मगज की कीमत बहुत ज्यादा होती है। क्योंकि हम उसे ज्यादा उपयोग में नहीं लेते। क्योंकि हम सुई की जगह भी तलवारों से काम ले लेते है। हालाँकि यह मजाक मात्र है। लेकिन मैंने भी कल कुछ ऐसा ही किया। बीते कल गरबी  चौक में काम करते हुए, वो पीपल की चीर ने खूब परेशां किया। रात बारह बजे निंद्रा लेने के बजाए मैं बाथरूम में साबुन और ब्रश से अपने हाथ की चमड़ी छील रहा था। भाईसाहब, कल वैक्सिंग वाला भी अनुभव हो गया। पुरुषों के शरीर पर बाल होते है, और उन्हें वैक्सिंग करवाने की नौबत कभी आई नहीं है। 


    लेकिन कल जब वह चीर मेरे हाथ पर रोयों में लग गयी, पहले जब ऐसे ही चीर को खींचने की कोशिस की, तो बाल बांके हो गए। वो सिर्फ कहा जाता है, कि दम है तो बाल बांका करके दिखा। बाकी दर्द तो होता है। फिर सोचा कैंची से उतने काट ही दिए जाए। लेकिन रात के बारह बजे घर में कैंची खोजना थोड़ा असमय लगता। तो मैंने सहन करते हुए जितना ब्रश घिसकर निकले उतना निकाल लिया। सवेरे जब माताजी से सारा वृतांत कहा, तो उन्हें कहा, हाथो पर नारियल का तेल लगा ले। लुब्रीकेंट.. बेसिक चीज है। लेकिन इतनी बुद्धि रात को न चली। बगैर कोई महेनत और दर्द के आराम से हाथ साफ़ हो गया।


शहर की भागदौड़ और बदलती मानसिकता

    सवेरे आज भी ग्राउंड में जाने के बजाए दिलबाग में बैठ गया। दिलायरी ही लिखनी थी। कल लिख ही नहीं पाया, चीर के चीरहरण के चक्कर में। फिर आठ बजे तक तैयार होकर निकल पड़ा ऑफिस। अब तो आफिस में भी खूब काम रहता है। और उससे भी अधिक उन कामों को याद भी रखना पड़ रहा है। पहले यह सब झंझटों से मैं मुक्त हुआ करता था। लेकिन अब परेशानी से परिचय बढ़ा लिया है। खेर, दोपहर को फटाफट लंच लेकर मार्किट निकल पड़ा। क्योंकि वही कल के कुछ अधूरे काम पूरे करने थे। अपने शहर में भी महानगरपालिका ने दबाए गए रोड, मतलब कि अवैध निर्माणों को तोड़ दिया है। शहर के रोड यूँ तो चौड़े हो गए है, लेकिन ट्रैफिक तो तब भी सॉल्व नही होगा, क्योंकि आज भी कुछ लोग बीच बाजार सड़क के किनारे यूंही कार खड़ी कर जाते है। एक तो बड़ी तीव्रता के साथ प्रगति करता शहर है। लोग भी बाइक से कार पर अपग्रेड हो रहे है, लेकिन मानसिकता तो बाइक की ही है, इसी कारण कहीं भी कार खड़ी कर देते है।


गरबी चौक की मेहनत और रात्रि का अनुभव

    फिलहाल रात्रि के साढ़े बारह बज रहे है। आंखों से निंद्रा कहीं जा चुकी है। मौसम बाहर ठंडा है, लेकिन घर के भीतर गर्म। पौने बारह तक गरबी चौक से लौट आया था। आज भी कुछ सूखी डालियां फेंकनी थी। लेकिन मुख्य काम था, चौक की लेवलिंग करके, रोशनी की चकाचौंध करने के लिए बंबू खड़े करने थे। यह नई पीढ़ी ने खूब फोन मिलाए, कि किसी के पास वो गड्ढे करने वाली मशीन मिल जाए, ताकि हाथ से खोदना न पड़े। लोहे के सब्बल से गड्ढा उतना ही खोदना होता है, जिसमे लकड़ी के खंबे खड़े हो सके। कुल नौ खंबे खड़े करते है। तो रात को लगभग छह हमने खड़े कर दिए। सबसे कठिन काम यही है, बिल्कुल खंबे जितना ही चौड़ा लेकिन एक हाथ गहरा खड्डा करना। हाथ मे छाले पड़ जाते है। सालों से कंप्यूटर पर चले हाथ, लोहे का घर्षण सह नही पाते। मैं इसी कारण से इस काम से दूर ही रहता हूँ। ज्यादा से ज्यादा गड्ढे करते समय मैं मिट्टी निकाल देता हूँ।


    यही था आज का दिन, लगातार दिन बीत रहे है, जब लिखने का समय नही मिल रहा है। सोचता हूँ, रोक दिया जाए कुछ दिनों तक। क्योंकि कुछ दिन बस दिनचर्या के अलावा कोई बात दिमाग मे बैठ नही पाएगी।


    शुभरात्रि

    १८/०९/२०२५

|| अस्तु ||


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