आलस – जीवन का सबसे मीठा ठहराव
प्रियम्वदा, आलस जैसा कोई नही..! आलस को कोई भी उपमा या रूपक नही दे सकते। वह अनन्य है। इस अलौकिक सृष्टि में कितनी सुलभ और सुलझी हुई वस्तु है वह। आलस वही है, जो हमे कितनी ही देर तक चांद निहारने देता है, और कभी कभी किताबों के पन्ने अधूरे छोड़ने पर मजबूर भी करता है। मुझे तो बड़ी प्रिय है, इसी कारण से सवेरे लाख कोशिशों के बावजूद, मैं जल्दी नही जाग पाता। अब फिर से मेरी रात देरी से होने लगी है, और सवेरा भी बहुत देरी से। आज भी छह बजे जागने का निश्चय कर, उठा, वाश बेसिन तक गया, वापिस आया, और सो गया। वो तारक मेहता में जेठालाल भिड़े से कहता है न, 'सुबह देर तक सोते रहने का आनंद सर्वोपरि ही है।'
बारह बजे की रात और नवरात्रि की तैयारियाँ
फिलहाल रात के बारह बजने में बस एक मिनिट शेष है। लो बज ही गए.. पूरे बारह। नवरात्रि की तैयारियां और श्राद्ध का तेली भोजन.. सब संतुलन बना रहता है। दिनभर तेल से सराबोर पूरियां आरोगने के पश्चात, उस तेल से बनती चर्बी को रात में ही पिघला देने लायक श्रम हो जाता है। आज की ही बात करूँ तो, लगभग पंद्रह बार आठ सीढ़ियों वाला स्टूल चढ़ा-उतरा हूँ। सारे गड्ढे में पोल खड़े हो गए। उसके बाद सारे ही पोल को नियंत्रित करती एक रस्सी सबपर बांधनी थी। उसका मतलब है, प्रत्येक पोल के पास जाओ, स्टूल पर चढो, रस्सी बांधो, वापिस उतरो, और फिर अगला पोल। प्रियम्वदा.. गांठों के भी कितने प्रकार होते है। हर जगह एक जैसी गांठ नही लग सकती। पोल को मजबूती से बांधना हो, और सबको एक ही रस्सी में बांधना हो तो वहां अलग गांठ लगती है। और वह काफी मजबूत होती है। इस क्षेत्र में उसे 'घोड़ा गांठ' कहते है।
ऑफिस का काम और लिखने की जद्दोजहद
दिनभर ऑफिस में इतना काम रहा है, कि मैं उस बुक के दस पन्ने भी पूरे नही कर पाया। और न ही दिलायरी लिखने के लिए पर्याप्त समय मिला। इसी कारण से अभी निंद्रा त्यागकर इस कसौटी में कसा जा रहा हूँ। हर दिन कहीं न कहीं दोपहर के भोजन का निमंत्रण होता है। और मुझे जब भी ऑफिस से निकलना होता है, कोई न कोई आ धमकता है। सवेरे आज भी उठकर कसरत करने नही गया था, कारण यही है कि रात को इतना ज्यादा तनतोड़ मेहनत हो जाती है, कि सवेरे अतिरिक्त आवश्यकता नही रहती। दोपहर तो कब हो गयी थी पता भी न चला। आजकल बहुत ज्यादा काम रहता है। इतना ज्यादा, कि उसके अलावा और कुछ सूझता भी तो नही है। कईं दिन बीत गए, मैंने किसी एक विषय पर निर्धारित होकर कुछ लिखा नही। कईं महीने हो गए, किसी कल्पना को कलम से उतारे हुए। सालभर हो गया होगा, किसी छंद को बुने हुए।
“लंबी रात” का सच
शायद यह नवरात्रि, और उसके पश्चात आ रही दीपावली, मुझे कुछ ज्यादा ही व्यस्त करने आई है। एक तो पता नही क्यों इस व्यस्तता में मजा भी आ रहा है। मैंने कोई फ़िल्म देखी उसे भी कईं महीने हो गए है। फालतू समय मिला, तो एकाध रील देख ली। वैसे आज नायाब मिधा को खूब सुना। वैसे बहुत तो नही, लेकिन दो-तीन वीडियो सुन लिए। मुस्कुराओ वाली कविता मुझे बड़ी पसंद आई थी। वही इकलौती कविता के बदौलत नायाब को खूब फेम मिली थी। हकीकत में, आज के समय मे बस वह एक पल ही बड़ा कीमती है। लोगों की वर्षों की महेनत को वह एक पल ही मशहूर करती है। वो गुजराती एक्टर, scam1993 वाला.. नाम भूल गया मैं। (अभी सवेरे याद आया, प्रतीक गांधी) उसे किसी ने इंटरव्यू में पूछ लिया था, कि आपको यह रातों रात मिली फेम से कैसा अनुभव हो रहा है? तब उसने प्रत्युत्तर में कहा था, कि कितना आसान है यह कह देना की रातोरात फेम मिली। कोई यह क्यों नही जानना चाहता है, कि मेरी यह रात लंबी कितनी थी?
जिम्मेदारियाँ और कर्मफल का बोझ
और बड़ी सच बात है। किसी न् किसी दिन तो वह पल आती ही है। जब एक साथ सारे मेहनत का फल मिल जाता है। लायकात अपने आप बन जाती है, उस फल को संभालकर रख पाने की। एक साथ इतने सारे जिम्मेदारियों के बोझ ने मुझे दबा दिया है, कि कभी कभी तो मुझे भी एक आतंकवादी होने का अहसास होता है। या तो आतंकवादी सारे कृत्यों की जिम्मेदारी लेते है। या फिर हम जैसे नौकरी करने वाले। बस फर्क इतना है, कि हमारे पास विकल्प नही होता है। जिम्मेदारी का। मैं फिलहाल कम्पनी में सबसे पुराना कर्मचारी होने के चलते, मुझ पर कईं सारी जिम्मेदारियों का भार है। यह तो अच्छा है, ऑफिस के बाहर का भार पुष्पा पर लाद दिया है मैंने। वरना मेरे भार ढोने की क्षमता का गधे से मुकाबला करने के लायक हो ही चुकी थी। फिर भी मुझे यह विचार आता है, कि मेरा फल कहाँ है? और डर भी है, कि कहीं इतने इंतजार के चलते वह सड़ न जाए।
बताओ प्रियम्वदा, रात के साढ़े बारह बजे, मैं अपने कर्म फल के बारे में सोच रहा हूँ। आंखे अब घिरने लगी है। बाकी का कल सुबह सोचेंगे। क्योंकि यह दिलायरी का और विस्तार करना जरूरी है। तो करते है विस्तार, वैसे भी यहाँ तक कल रात को लिखा था। पौने एक बजे सो गया था। जब रात को नवरात्रि मैदान में थे, तो कल पत्ता भी आ पहुंचा। आजकल उसके पास झूठे सेब वाला फोन नहीं, आजकल वो आधे से मोड़ा जा सकता फोन है। दो-तीन दोस्त है, जिन्हे यह फोनों में भारी रस है। नया आया नहीं, कि लिया नहीं। जैसा समाचार वालों ने दिखाया था, नए लॉन्च हुए आईफोन के लिए लोग, खासकर genz सवेरे छह बजे से लाइन लगाकर खड़े रह जाते है। मुझे नही समझ आती इनकी यह चाहत।
वृक्ष बनाम पौधे – अनुभव की टकराहट
यह भी भला कैसा आकर्षण है? एक फोन के लिए घंटो तक लाइन में खड़ा रहना? ब्लिंकइट पर नही मिलता होगा शायद..! वरना वह तो दस मिनिट में आर्डर डिलीवर करने का दावा करता है। खेर, रात में मैं, गजा, पत्ता, और भी पुरानी मंडली इकट्ठी हो गयी। और तभी पत्ता जिस वृक्ष का है, वह स्वयं आ चढ़े..! उनका कहना आज भी स्पष्ट है, तुम लोग दोगले हो.. सालभर में कभी इस चौक की खबर तक नही लेते। और अभी नवरात्रि आ रही है तो सब कितना सही कर दिया। अगर तुम नवरात्रि के अलावा इस चौक में आते भी हो, तो बस सुरापान करने..! इस बात पर पहले गजे ने तीव्र बहस की। लेकिन वृक्ष के आगे पौधे ज्यादा शेखी नही बघार सकते। वृक्ष के पास अपना बड़े और विशाल होने का अनुभव है। पौधे अभी तो अनुभव से अटखेलियां कर रहे होते है। गजे ने वृक्ष से उलझना छोड़ दिया। पत्ता चुपचाप सब सुनता खड़ा रहा।
मैं भी इस वाकयुद्ध में कूद पड़ा। जब आप सच्चे हो, लेकिन आप बड़े का आदर भी करते हो, तो आपके शब्द बड़े मर्यादित रहते है। हमने (मैने) आखरी बार कब एक साथ बैठकी की थी, यह याद भी नही आ रहा था, और हम पर आरोप मढ दिया गया, कि हम इस चौक का नाजायज फायदा उठा रहे है। मैंने बस इतना ही कहा था, कि समय, तारीख, और साक्ष्य दो, वरना इस बहस का कोई अंत नही। और सारा उबाल शांत हो गया, सबका ही। वृक्ष के जाते ही पत्ते को खड़काया मैंने, 'साले, कांड तेरे और बदनाम हम?' उसने कहा, 'दोस्त और किस काम आते है?' बात में सच्चाई बस इतनी भर थी, कि पत्ता अक्सर कहीं से झूमता हुआ आता। हमारे साथ बैठता, गप्पे लड़ाता, घर चला जाता। और वह सुरा की सुगंध तो पुष्पों से भी ज्यादा महकती है। तो बस.. पत्ता हमारे साथ बैठा था, मतलब हम भी झूमे हुए थे।
बहस तो और भी उग्र हो जानी थी। लेकिन समय रहते सब शांत हो गया। और समय रहते जो भी शांत हो जाते है, वे और मधुरता से निखरते है। रिश्ते हो, या घटना।
अरे हाँ, लगे हाथों मैंने सवेरे दिलबाग में किए टाइम-पास की तस्वीरें भी देखो प्रियम्वदा।
शुभरात्रि
१९/०९/२०२५
|| अस्तु ||
प्रिय पाठक !
“दिलायरी की यह कड़ी कैसी लगी? अगर आपको यह यात्रा पसंद आ रही हो, तो पिछली दिलायरियाँ भी ज़रूर पढ़ें।”🌿



