विचारों की विचित्र रेल और किताबों का विरोध
विचारों की सिस्टम भी कितनी विचित्र है न.. यह रुकते नही। कोई भी समय हो, कोई भी स्थिति-परिस्थिति हो, या कोई भी स्थान हो, प्रस्थान हो.. विचारों की रेल मची हुई ही रहती है। शनिवार का दिन था, और अभी रात के दो बजकर सात मिनिट हो रहे है। सवेरे लेट-सेट ही सही, लेकिन हवन में जरूर से पहुंच गया था। ऑफिस जाने से पूर्व जगन्नाथ होकर गया था। और दिनभर ऑफिस में खूब कामों की भागदौड़ रही थी। सोमवार से आज तक रात्रि के डेढ़ बजे बाद सोने का समय, और सुबह सात के आसपास उठ जाना.. अधूरी नींद के कारण विचारों की विचित्र उलझने बन जाती है, और एक सिक्के के तीन पहलू देख रहा हूँ..!
चौपाटी-मावा और रात्रि की दिलायरी
कल हम तीन जनों ने मिलकर पूरे गरबी चौक में उपस्थित लोगों को चौपाटी-मावा कुल्फी की ज्याफत दी। हररोज रात्रि को कोई न कोई अपनी ओर से खेलैयाओ को कुछ न कुछ खिलाता है। दूसरी रात्रि को मावा-मलाई कुल्फी थी। तीसरी रात्रि को अमेरिकन नट्स, चौथी को सेब, पांचवी चिवड़ा और कल हम लोगों ने चौपाटी-मावा खिलाई। पिछले वर्ष मैंने, गजे ने, और पत्ते ने मिलकर सबके लिए फ्रूटी मंगवाई थी, और फिर यह हर रात की धारा बन गयी। ज्यादातर स्त्रियों का व्रत होता है। तो उस हिसाब से देखकर कुछ मंगवाते है। जब एक साथ भारी संख्या में लोग इकट्ठे होते है, तो कहीं न कहीं सबके अहम भी खूब टकराते है। और हम तो कौम ही अहंकारी है, अभिमानी है, घमंडी है.. लोगों की नजरों में तो है ही।
अधूरी नींद और अधूरी किताबें
रात के सवा एक बजे रहे थे। और सब खेलकर थक लिए थे। फिर भी दो बजा दिए। घर आया, और यह दिलायरी लिखने बैठ गया। बस यह भूमिका वगेरह बांध रहा था, तभी कहीं से आवाज आई, 'पूरी करोगे भी या नहीं?' मैंने आजबाजू देखा, सब सो रहे थे। रात के दो बजे मेरे कान बज रहे थे। और यह कैसा प्रश्न था, पूरी करोगे? मतलब क्या पूरा करना था मुझे? मैंने अपनी इस दिलायरी कि भूमिका पुनः लिखनी शुरू की। सन्नाटा था बाहर, खिड़की से चंद्रमा का शीतल लेकिन मंद प्रकाश दिखाई पड़ता था। हवाएं बहुत तेज चलने लगी है। फिर से आवाज आई, 'जवाब नही दिया?' मैंने तुरंत फोन का फ़्लैश ऑन किया। अपने आसपास फोन की फलेश से देखा, दो-दोबार भ्रमना नहीं होती। मैंने नजरअंदाज करने की भरपूर कोशिश की, लेकिन तब भी तीसरी बार सुनाई दिया, 'अरे मैं बुक हूँ, आप पूरी पढोगे या नही?'
जब किताबें बोल उठीं
फोन में से आवाज आ रही थी। एक बार को तो भूत-प्रेत, पिशाच, डाकिनी, यक्षिणी, चुड़ैल.. सारी ही संभावनांए मेरे मन मे उभर आयी। लेकिन यह तो अब कईं बार हो चुका है, इस कारण आश्चर्य न हुआ। एक बार मेरी डायरी बोल पड़ी थी। (यहां पढ़िए।) मेरा श्वान भी मानवीय जुबान बोलता है। इस लिए अब मुझे आश्चर्य नही होता है, कि मेरे आसपास की वस्तुएं कैसे बोल पाती है। बस इसी विश्वास के साथ मैंने पूछा, 'कौनसी बुक की बात कर रहे हो?' प्रत्युत्तर मिला,
"वही, जिसे आपने शुरू करने के बाद पंद्रह दिन लगा दिए।"
मुझे याद आया, एक बुक मैं पढ़ तो रहा था। लेकिन यह नवरात्रि की भागदौड़ में पूरी ही नही कर पा रहा। 380 में से तीनसौ पन्ने तो पढ़ लिए है। लेकिन शेष अस्सी पन्नो का मुहूर्त नही आ रहा है। तो मैंने रात्रि के ढाई बजे लड़ लेने का निर्धारित किया।
"मेरी मर्जी, मुझे जब पढ़नी होगी तब पढूंगा। तुम्हे उससे क्या?"
"अच्छा जी, फिर बताओ पहले के तीस पन्नो में क्या कहानी थी?" फ़ोन में पड़ी पीडीएफ भी लड़ लेने के मूड में बोली।
"अरे ! यह क्या बात हुई? प्रत्येक वे बातें याद रखनी जरूरी नही होती जो हम पढ़ते है।" मैंने कहा।
"फिर तो आप पुस्तक का अपमान कर रहे हो। अगर पूरी नही पढ़ सकते, फिर पाठक बनने का स्वांग क्यों धरते हो?" मेरे आसपास की चीजों की जुबान अक्सर तीखी ही पाई जाती है।
"अरे तुम्हे कोई हक नही बनता यह सब बोलने का। हम बुक पढ़ते है अपने मनोरंजन के लिए। और वैसे भी तुम तो विकृत हो..!" मैंने उसकी आत्मा पकड़ ली।
"विकृति मुझमें नही होती, पाठक या लेखक के शब्दों में, विचारों में होती है। प्रत्येक विकृति भी तो एक तरह का ज्ञान ही है, एक विषय ही है।" वह पुस्तक क्रूर तर्क देने लगी।
मैंने इस बात पर उसे कोई प्रत्युत्तर नही दिया। तो एक और पुस्तक बोल पड़ी मेरे फोन में से ही। "तुम्हे कम से कम पूरी पढ़ना तो चाहते है। मुझे तो आधी पढ़कर ही छोड़ दिया इन्होंने।"
"तुम तो रहने ही दो। तुमने तो मेरे दिमाग के सारे तार तोड़ दिए थे। तुम्हे तो मेरे हिसाब से पुस्तक की श्रेणी में ही नही होना चाहिए था।" मैंने उस दूसरी पुस्तक 'कितने पाकिस्तान' को प्रत्युत्तर दिया।
"क्यों भला? आप अपनी लघुताग्रंथि के अनुसार अब मेरा आंकलन करेंगे? क्या आप निष्पक्ष रहकर मेरा पठन नही कर सकतें? आप बहुत बुरे हो।" सीधा सीधा मुझ पर बुरा होने का लांछन ही लगा दिया 'कितने पाकिस्तान' ने।
"तुम्हे तो मेरे कलममित्र ने दी थी इस लिए पढा था, लेकिन वे मित्र और मैं, हम दोनों ही तुमसे तंग हो लिए थे। इतना कचरा तुम अपने भीतर लिए कैसे बैठ सकती हो?"
इस बार 'कितने पाकिस्तान' के बजाए 'गुनाहों का देवता' बोल पड़ी। "अरे पाठक, आप क्या जानो हमारे भीतर क्या क्या पड़ा है? आपने तो मेरे बारे में लिख दिया था, कि कोई किसी के पैर कैसे चूम सकता है? और पैरों को चेहरे पर रख लेने भर से आप तो नाराज हो गए थे। आपने यह क्यों नही सोचा कि वह एक प्रतीकात्मक समर्पण हो सकता है?"
"अरे तुम्हारे प्रतीकात्मकता में हाइजीन नही था।" मैने रूखे स्वर में कहा।
"दिनभर मावा चबाकर थूकने वाले लोग भी हाइजीन की बातें करते है.." गुनाहों के देवता ने कितने पाकिस्तान की ओर देखकर, खीसे निपोरी।
अलमारी से उठती बगावत की आवाजें
उतने में मेरी अलमारी से किसी के चीखने की आवाज आई। अरे नहीं मैं कोई साइ*पैथ नही हूँ, और न ही किसी को अपनी अलमारी में बांधकर रखता हूँ। यह आवाज मेरी किताबों वाले दराज से आ रही थी। रात्रि के पौने तीन हो रहे थे। मैंने वह दराज खोला, तो भीतर से प्रोटेस्ट की आवाजें उठी। "आई लव मुहम्मद, या आई लव महादेव" वाला प्रोटेस्ट नही था यह। यहां तो मेरे नाम पर लानतें दी जा रही थी सीधी सीधी। यह सारी गुजराती थी। इनमें दो ही हिंदी की थी। अक्सर जब भी कभी ऐसे प्रोटेस्ट या आंदोलन होते है, तो ज्यादातर लोग न तो आंदोलन का समर्थन करते है, न ही आंदोलन का विरोध। वे बस चाय की चुस्की भरते कहते है, कि सरकार को ध्यान देना चाहिए।
लेकिन यहां मैं खुद सरकार था। कुछ पुस्तके विरोध पर उतरी थी। बाकी की शांति से पड़ी हुई थी। कुछ पुस्तकें तो मेरा पुतला जलाना चाहती थी, लेकिन फिर उन्हें समझाया गया, कि वे खुद भी कागज से बनी है, कहीं पुतलादहन करते करते आत्म*दाह का मामला न हो जाए। इस लिए यह कार्यक्रम रद्द होता पाया मैंने। 'मुअनजोदड़ो' बोली, "तुम लोगो को विरोध करना है तो करो, लेकिन शांतिपूर्ण आंदोलन करो। फालतू का हो-हल्ला और पत्थरबाजी मत करना।"
मुअनजोदड़ो का मेरे पक्ष में बोलना लाजमी भी था। क्योंकि उसकी मैंने तारीफें भी की थी। तभी एक अश्व पर सवार होकर वजनी बुक 'भल घोड़ा वल वंकडा' बोल पड़ी। "तू चुपकर ! तुझे क्या पता इनके बारे में? तेरी तारीफ में दो बोल क्या कह दिए, तू हमे सीखाने चली आयी। दुबली पतली सी है, लेकिन फिर भी टेंटें?"
यह भी समस्या ही थी। यह पुस्तकें आपस में ही झगड़ने लगेगी, तो भी मेरी नींद हराम हो जाएगी। मैंने सबको शांत किया, लेकिन गुजराती में 'भल घोड़ा वल वंकडा' ने कहा, "मुझे आपने कईं सालों से बंध करके रखा है। आपके पास कोरोनाकाल में कितना फालतू समय था, एक किलो गेंहू के दाने गिन रहे थे लोग तो..!"
इस बात का प्रत्युत्तर नही था मेरे पास। वाकई वह पुस्तक तो मैंने ले ही रखी है, और पढ़ी कभी नही। उतने में उसके साथ एक और जुड़ गई, 'नर पटाधर निपजे'। उसने भी मुझे धमकाते स्वर में कहा, "अरे महाशय, आपने मुझे पढा नही, वह बात तो अलग है, लेकिन आपने तो मुझे किसी और को भेंट में दे दिया, उसके बाद फिर मुझे नए सिरे से खरीदा। तब भी आज तक आपने मुझे इस अलमारी के छोटे से कारागृह जैसे दराज में बंद कर रखा है।"
बात इसकी भी सही थी। ऐसी 3-4 और पुस्तकें थी, जिनकी यही फरियाद थी, यही आंदोलन का उद्देश्य भी। हालांकि इस अंतहीन बहस का कोई उत्तर नही था। न ही कोई संदेश बनता था। मैं सोचता हूँ, ऐसी तो मैंने कईं पीडीएफ इकट्ठी कर रखी है, कईं हार्डकवर बुक्स पड़ी है। जिनके मैंने पन्ने पलटे तक नही है। अंत मे जैसे सरकारें वायदे करती है, जैसे उग्र आंदोलनों को कुचल देती है, कुछ इसी तरह मैंने भी इन पुस्तकों के साथ किया। उन्हें फिर से दराज में बंद करके, समय मिलते ही पढ़ने का वायदा कर सो गया।
शुभरात्रि
२७/०९/२०२५
|| अस्तु ||
प्रिय पाठक !
“आपने भी कभी कोई किताब अधूरी छोड़ दी है? बताइएगा कि किस किताब ने आपके साथ बगावत की थी, मैं आपके अनुभव पढ़ना चाहूँगा।”🌿
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