विश्वकर्मा जयंती और दिलायरी का दिन
प्रियम्वदा, विश्वकर्मा की जयंती शायद वर्ष में दो बार आती है। मुझे पक्का तो याद नही है। आज विश्वकर्मा जयंती थी, मिल बन्द थी। लेबर लोग अपना पूजा-आदि में व्यस्त थे। मैं हमेशा के अनुसार सवेरे नौ बजे ऑफिस पहुंच चुका था। रात को साढ़े ग्यारह बजे तक हम लोग गरबी चौक में महेनत करते है, तो मैं थक कर घर आकर सीधे सो ही जाता हूँ। सवेरे उठने का जरा मन नही होता, लेकिन फिर भी छह बजे जागने की असफल कोशिश करता हूँ। छह बजे जागकर कुछ देर तो ग्राउंड में भागदौड़ की। लेकिन बीती कल रात्रि को गरबी चौक में भारी वजनी काम किया था, सो सवेरे की इस भागदौड़ में आलस हो गयी। सात बजे तो वापिस लौट आया। सोचा आधा घंटा बचाया है, उसे दिलबाग में लगाया जाए।
सुबह की शुरुआत – पौधों की हरियाली
सवेरे सवेरे पौधों की हरियाली देखने का आनंद तो अलग ही है प्रियम्वदा। दो गमले खाली पड़े थे। सोचा तो था, कि सबको इधर उधर करके थोड़ा सीट-आउट एरिया जैसा डिज़ाइन कर दूं। कुछ गमले इधर उधर किये। लेकिन अभी भी कम है। जेड प्लांट वाले गमले में और भी तीन तरह के पौधे थे। एक बेल भी अपने आप उग आई है। है तो वर्षा ऋतु में अपने आप उगने वाली, लेकिन इसमें फल लगता है, जिसे गुजराती में 'कोठिंबु' कहते है। खीरा ककड़ी जैसा स्वाद होता है, और टिंडे जैसा रूप। तो उगने दे रहा हूँ। हालांकि कल उसकी जड़ तो टूट गयी है, लेकिन यह उग जाएगा। और भी काफी पौधे इधर उधर कर दिए। कल गेंदे में भी पहली बार अधखिला फूल आया था। और उस स्नेक प्लांट में भी एक नई पत्ती आने लगी है। शायद धूप का प्रभाव है। पहले सीढ़ियों पर रखे थे, तो कुछ देर धूप मिलती थी। अब छत पर दोपहर को छोड़ सुबह शाम दोनो की धूप मिलती है।
ऑफिस में विश्वकर्मा पूजा और कामकाज
सवेरे पानी की बाल्टी उठाकर छत पर ले जाना, अपने आप मे कसरत है। इन सब पौधों में धीरे धीरे पानी डालना भी। कुछ फोटोज क्लिक किए, और ध्यान ही न रहा, कब आठ बजे गए। फटाफट तैयार होकर ऑफिस के लिए निकल पड़ा। शुरुआत में कहा, उस अनुसार मिल तो बन्द थी। सारी लेबर पहचान में न आए, उस तरह नए कपड़े में सजधजकर घूम रहे थे। छुट्टी थी, लेकिन ऑफिस में नही.. मेरे पास काफी काम थे। धीरे धीरे निपटाता रहा उन्हें। और बाकी के खाली समय मे वह बुक पढ़ता रहा। काफी मजेदार हो गयी है। एक ऐसे मोड़ पर आई है, जहां दो रास्तों में से एक चुनना है। अक्सर लोग इन दोराहा पर फँसकर काफी सहन करना पड़े ऐसे निर्णय ले बैठते है। मैं भी उन्ही में से हू।
दोपहर बारह बजे लेबरों ने पूजा शुरू की। शायद उन्हें लगा होगा कि, सवेरे सवेरे तो विश्वकर्मा जी को और भी जगहों पर होती पूजा में प्रतिभागी होना पड़े। उनका शिड्यूल काफी बिज़ी हो जाए उससे अच्छा है, अपन भरी दोपहर में पूजा करेंगे। सारी मशीनें खूब साज-सज्जा से शोभित की थी। कहीं गुब्बारे लटकाए थे। कहीं फूलों की माला। कहीं वो रंगीन प्लास्टिक की लड़ियाँ.. दोपहर खाना खाने के समय बड़े बड़े पत्तल में एक के बाद एक प्रसादी बांटने लगे। सेव-बूंदी, और फल-फलादि। दोपहर को लंच करने के बाद तो और भी कुछ काम न था। और शायद कल रात की गरबी चौक, और सवेरे जल्दी जागने के कारण नींद आने लगी। सो गया था, और चार बजे आंख खुली मेरी। एक बिल बनाना था, लेकिन अधूरी माहिती के चलते नही बना। यह बात बहुत बार होती है, कि जब मैं काम को टालकर निकल जाता हूँ, तो काम मुझे वापिस खींच लाने की कोशिश करता है।
कल दोपहर को लंच के लिए घर को निकला ही था, कि एक बिल के लिए आधे रास्ते से वापिस ऑफिस पर लौटना पड़ा। आज भी, लगभग एक घण्टा बिल की डिटेल्स के लिए मैंने राह देखी। दस-बारह फोन कॉल्स घुमाए.. लेकिन कोई जवाब न् मिला। आखिरकार साढ़े पांच बजे मैं ऑफिस से निकल गया। मुझे मार्किट में काम था। तो ऑफिस से निकलते ही, फोन आने लगे, "भाईजी लोकल गाड़ी है.. खड़ी नही रख सकते.. बिल बना दो.. मैं कहीं फंसा हुआ था, इस लिए फोन नही उठा पाया.. बारिश जैसा मौसम है, माल भीग जाएगा गाड़ी खड़ी रही तो.. वगेरह वगेरह कईं तरह के बहाने को मैंने नजरअंदाज कर के स्पष्ट शब्दों में कह दिया, 'अब तो कल देखेंगे..!' उसने 3-4 बार आग्रह किया, काफी मीठे स्वरों में रिक्वेस्ट की.. लेकिन कभी कभी ऐसा होता है प्रियम्वदा, कि एक बार हमने किसी की बात मान ली, तो फिर वह उसे अपना अधिकार समझ लेता है। इस लिए कईं बार, स्पष्ट शब्दों में बात करनी चाहिए।
गरबी चौक की रात की मेहनत
घर पहुंचकर फेमिलीं को उठाया, और चल पड़ा तनिष्क में। किसी और की जिम्मेदारी मुझे निभानी थी। स्वर्णकारों के वहाँ सदैव से काफी अलग वातावरण होता है। चारो तरफ सोना ही सोना.. पुरुष का भी मन लुभा जाए, फिर स्त्री तो कैसे ही उससे आकर्षित न हो? स्वर्णलंकारों की कुछ खरीदी, टोकन, और घर। पूरी पेमेंट कल की जाएगी। बैंक से भुगतान करना होता है, और आम आदमी नेटबैंकिंग चलाता नही है। खेर, घर आकर भोजनादि से निवृत होकर, चल पड़ा गरबी चौक। दोपहर को गजे ने, चौक में अपना विस्तृतिकरण कर चुके वृक्षों को, अपनी हद में रहना सिखाया था। चौक के केंद्र में पीपल का विशाल वृक्ष है। लगभग दस साल से अधिक पुराना होगा। ऊंचाई में बहुत है, और घीराव भी बहुत कर चुका है। इसके अलावा नीम, गुलमोहर, कनेर, अशोक, और भी कुछ वृक्ष है। सबको थोड़ा थोड़ा काटकर, उनका भार कम किया। अब काटी जा चुकी डालियां चौक में भरी पड़ी थी।
एक अनोखा अस्पताल और गायों की कहानी
वे सब उठा-उठाकर पास के एक खाली रेडक्रोस के हॉस्पिटल में फेंकना था। यह भी गजब है, रेडक्रोस सोसायटी का एक हॉस्पिटल है। सालों से बन्द पड़ा है। अच्छा खासा सुविधाजनक अस्पताल था। जब बना था, तब डॉक्टर और नर्स भी थे। लेकिन फिर अचानक से बन्द हो गया। और आज कईं सालों से बन्द पड़ा है। अब एक औरत वहां अपनी गायें बांधती है। उस औरत का भी सिस्टम बड़ा सही है। जब तक गाय दुधारू है, बंधी है। जब गाय ने दूध देना बंद किया, गाय मुक्त है। बिल्कुल खुली छोड़ देती है गायों को। फिर वे गायें हर घर का गेट खटखटाती है। कुछ लोग रोटी देते है, कुछ डंडा। लेकिन यह गायें भी बड़ी जिद्दी है। दो रोटी खाकर जाती नही। कैसे जाएगी? भूख तो सबकी ही ऐसी होती है।
पीपल की डालियां और ‘चीर’ का अनुभव
तो रात को हम वे काटी हुई डालियां इस हॉस्पिटल में डालने लगे। पीपल की एक बुरी आदत है। पीपल की डाली में से एक चिपचिपा स्राव निकलता है, जिसे गुजराती में हम 'चीर' कहते है। और यह चीर इतना चिपचिपा होता है, कि गोंद भी इतना तत्काल असर नही करता। जाहिर सी बात है, डालियां फेंकते हुए वह चीर हाथों में तो लगेगा ही। मैं दीवार पर चढ़कर इस तरफ से दी गयी डालियों को उस तरफ अस्पताल में फेंक रहा था। सो, मेरा तो नाईटपेंट, टीशर्ट, और दोनो हाथ इस चीर से सने हुए थे। एक तो लाइट का काम चालू था, तो अंधेरे में पता भी न चला, कि कहां कहां इस चीर ने अपना अस्तित्व जमा लिया है। काम खत्म हुआ तो, हाथों में मिट्टी लेकर मल-मलकर हाथ धोए। हथेलियों से तो यह जा चुकी थी।
सारा काम खत्म करके घर पहुंचे, बारह बज रहे थे। मैने सोने से पूर्व एक बार हाथ मूंह धो लेने के लिए बाथरूम के गया। हथेलियों में कहीं कहीं चीर के निशान थे। साबुन से हाथ धोने पर भी न निकले। हाथ मे एक जगह रोयों के बीच उस चीर ने स्थान लिया। मैंने कितना ब्रश घिसा, साबुन मला, न निकला। रोएं निकल गए, लेकिन चीर नही। खून निकल आया, लेकिन चीर नही। कपड़े धोने वाले ब्रश से चमड़ी छिल गयी। लेकिन रोयों में चीर बनी रही। आखिरकार सुबह देखेंगे, सोचकर सो गया।
शुभरात्रि
१७/०९/२०२५