कोई आए कोई जाए..!
प्रियम्वदा ! कल्पना करना, या कल्पना कर पाना ही अपनेआप में कितनी अद्भुत शक्ति है हमारे पास। अक्सर हम उसकी कल्पना करते है, जो हमारे पास नहीं है। या उसकी, जो असंभव होता है। कल्पना की सीमा नहीं होती, वह असाध्य के पीछे भी दौड़ा देती है मन को। लेकिन मन जब उस कल्पना की दूसरी छवि देखता है, तो वहां उसे वास्तविकता दिखाई देती है। किलोमीटर की दूरियां प्रकाशवर्ष सी अनुभव होती है। धीरे धीरे मन भी नदियों के घाट के पत्थर सा बन जाता है। अकाट्य.. कटेगा, लेकिन लम्बे समय के अंतराल पर। हररोज उसे नदियों का जल धीरे धीरे अपने में मिलाता रहता है। और पत्थर भी अपना अस्तित्व भूलकर नदी में समाहित हो जाता है।
आगमन और प्रस्थान..!
मन भी कईं बार ऐसा निष्ठुर हो जाता है.. बिलकुल उस घाट के पत्थर सा..! धीरे धीरे प्रतिदिन वह कट रहा है, लेकिन पता भी नहीं चल रहा है। जब बिलकुल ही झीनी रेत सा बन जाता है, तो उसे भी नदियों से निकाल लिया जाता है। उसे क्या मिला? न नदी का सहवास, न अपना अस्तित्व..! जीवन भी कुछ कुछ ऐसा ही है प्रियम्वदा, लोग आते है, ठहरते है, अपनी नई मंजिल की और चल देते है। और हमारे पास छोड़ जाते है स्मृतिया..! घाट का पत्थर.. नदियों में प्रतिवर्ष नए नीर आते है, पुरप्रवाह में। थोड़ा सा पत्थर काट ले जाती है।
मिलन का सुख, और बिछड़ने का दुःख..!
हर आने वाला अपने साथ मुस्कान लाता है। नई चेतना, नई ऊर्जा, नई रीत, नया रूप, नया रंग..! वह नयापन मन को बांधे रखता है। मुक्त विहरता रहता है। क्योंकि यह नयापन पुराने गमों को भुलाने के लिए एक पर्दा मात्र था। मन यह भूल जाता है, कि पर्दा हटते ही, पीछे वही है, एकांतवास..! पर फिर भी इस नयेपन में वह सब नजरअंदाज हो जाता है। धीरे धीरे नएपन का सारा ढंग उतरने लगता है। सब कुछ एक समान लगने लगता है। जैसे जैसे वस्तु हो या रिश्ता, पुराना होते ही मन से उतरने लगता है। और एक समय आता है, बिछड़न का। जाता हुआ, अपने पीछे अनगिनत स्मृतियाँ छोड़ जाता है, और एक अशांत खालीपन..!
सीख और अनुभव..!
जो भी इस घाट से होकर गुजरता है, वह या तो सीखा जाता है प्रेम, या विश्वास, या विश्वासघात। कोई भी सदा के लिए नहीं है, सबकी अपनी मंजिल है, वहां तक पहुंचने के लिए बिछड़न का सहारा लेना ही पड़ता है। हमारा मन, उन स्मृतियों के अवशेष से कौनसे फूल चुनता है, यह हमारा व्यक्तित्व बनाता है। प्रेम भी सारे समय साथ नहीं रहता, न ही विश्वास। और विश्वासघात तो अकाट्य है। प्रेम है, वहां विश्वास है, और विश्वास है, वहां उसका शत्रु दगा भी है ही। लेकिन जो भी हो, अनुभव जरूर से शेष में मिलता है।
क्षणभंगुरता का बोध..!
'पलभर में कैसे बदलते है रिश्ते.. ' घाट का वह पत्थर अनुभव से भी कहाँ सीख पाया है? वह अपने आप में कभी बदलाव नहीं करता। वह हर बार ही अपना भोग देकर नदी में मिल जाता है। उसे इस क्षणभंगुरता का अहसास नहीं होता। उसे तो लगता होगा, कि यह नीर सदैव साथ रहेगा। लेकिन अकाल आता है। पानी सूखता है। पत्थर अकेला पड़ जाता है। आते-जाते नीर का साथ क्षणभंगुर है, वह बोध उसे कदापि नहीं होता। क्योंकि वह पत्थर है। जड़।
रिश्तों का सफर..!
भूमिका दोनों की महत्वपूर्ण है, कुछ प्रवाह थोड़ी देर के लिए रुकते है, तो कुछ सदा के लिए। थोड़ी देर के लिए आया हुआ, बरसाती प्रवाह, अपने साथ एक साथ बहुत कुछ ले आता है.. बहुत सारी खुशिया, बहुत सारे अनुभव, और बहुत सारा सुख..! धीरे धीरे बढ़ता हुआ प्रवाह, शालिग्राम भी बना देता है। एक आदर्श पत्थर। पूज्य।
दर्द और राहत..!
तुम्हे पता है प्रियंवदा ! कुछ लोगों का आना जीवन में राहत होता है। तो कुछ का चले जाना राहत बनता है। हाँ ! थोड़ा विषम है। लेकिन सच है। दर्द है, तो राहत का भी अस्तित्व है। कुछ लोग बिछड़कर दर्द दे जाते है, उनके जाने से हुए खालीपन को कोसने पर भी कोई राहत नहीं होती। कुछ साथ मन कभी छोड़ना नहीं चाहता.. बोझिल हो जाए तब भी। क्योंकि यह साथ न छोड़ने की अति अक्सर बोझिल ही बनती है, किसी एक के लिए, सतत नीर से संपर्क, पत्थर पर काई लाकर छोड़ देता है। फिसलन भरी काई पत्थर के लिए बोझ नहीं तो और क्या है?
नयी जगह, नयी ऊर्जा..!
लेकिन जब कोई साथ छोड़ जाता है, तो वह रिक्त स्थान बहुत जल्द ही भर भी जाता है। पानी जितना निचे उतरता है, काई भी चली जाती है। पत्थर अपनी चमक में लौटता है। आकर्षण का साध्य बनता है। उस पत्थर पर कुछ प्रेमी जोड़े आकर बैठते है। अपने स्वप्न उस पत्थर की साक्षी में, उसी पत्थर पर कुरेद जाते है। नदी से दूर हुआ वह पत्थर, निराश नहीं होता, उसका खालीपन भर देता है जगतभर का समस्त संचार। संध्या का एक खंड उसके नाम होता है। रम्य नदी को देखते हुए लोग, कईं सारी कल्पनाएं उस पत्थर को सौंप जाते है।
समय का निरंतर प्रवाह..!
प्रियंवदा ! कोई जाता ही नहीं, तो कोई नया कैसे आता? आनेजाने का यह लगा रहना, एक संतुलन बनता है। पुराना रिक्तस्थान नया ले लेता है। हर रात का खाली हुआ स्थान अगली सुबह ले लेती है। हर गिर चुके पत्तों का स्थान नयीं कोंपलें ले लेती है। हर मौसम अपने बाद वाले को जगह देता है। और हर इंसान के जाने के बाद ही कोई नया रिश्ता, नई पहचान जन्म लेती है। लेकिन, यहाँ भी एक द्वितीय कोण है, कईं पत्थर फिर इतने कठोर हो जाते है, कि उन्हें पानी की मार बदल नहीं पाती।
दिलायरी..!
खेर, किसी से भी ममत्व न बाँध लेना बड़ा अच्छा होता है। पीड़ा नहीं पनपती बिछड़न की। अच्छा तुम्हे लग रहा होगा प्रियम्वदा, कि आज यह क्या आया-गया की बातें लिख दी मैंने..! दरअसल आजकल यॉरकोट पर ज्यादा घूम रहा हूँ, उसी का नतीजा है। वहां आज भी लोग विरह, प्रेम, वेदना में रचेपचे रहते है। मेरा भी काम काज कुछ ऐसा ही है। जैसे मेरा यह विरह-बिछड़न का नशा उतरने लगता है। मैं भी उसी ठेके पर पहुँच जाता हूँ। वहां मेरे सारे भाव रिचार्ज हो जाते है।
सवेरे तो आज भी वही आधे घंटे की ही महेनत की है, उसके बाद आ पहुंचा दिलबाग में। गमलों की मिट्टी बारिश में बह गयी थी। नई मिट्टी टोपप की सब में। फिर ऑफिस आ पहुंचा था। मेरे कईं सारे प्लान्स बन रहे है, बिगड़ रहे है। प्रियम्वदा, आदमी कितनी ही भागदौड़ कर ले, उसकी जेब हमेशा उसे मजबूर ही रखती है। एक तो हमारे यहाँ पिछले दो दिनों से कईं किलोमीटर लम्बे ट्रॅफिक जैम लग रहे है, कि समझ नहीं आता, कौनसा रास्ता लिया जाए जीवन में।
आज तो अच्छा हुआ, की ट्रैफिक क्लियर हो चूका था। दोपहर को मार्किट में बैंक विथड्रॉस करने जाना था। नाश्ता तो हमने बंद कर दिया। और वैसे भी आज काफी समय बाद मैं अकेले मार्किट गया। हर बार पुष्पा साथ होता था। अच्छा लगे हाथ एक बात और लो.. आजकल की बैंक्स भी बड़ी अजीब हो गयी है.. हमारे ही पैसे, हमें ही निकालने हो तो कितने सारे वेरिफिकेशन्स देने पड़ते है। मुझे डर है कि कल को कहीं बैंक्स वाले भी बीवी बनकर पैसे दे ही ना..! सिर्फ पैसे लेते रहेंगे, देंगे नहीं।
क्योंकि बड़ी प्रसिद्ध प्राइवेट बैंक है, उसके एटीएम में गया। तो एक तो उसने दूसरी बैंक का कार्ड ही लेने से मना कर दिया। फिर उसी बैंक के कार्ड से विथड्रॉ करना चाहा, तो OTP का चक्कर.. OTP घर पर पुछु उससे पहले ही टाइमआउट हो जाए..! मतलब क्या इसे दादागिरी नहीं कहनी चाहिए डिजिटल सेफ्टी के नाम पर? खेर, फिर जिस बैंक का डेबिट कार्ड हो उसी बैंक में आज धक्का खाना पड़ा। और मेरी तो बैंक भी वो सुप्रसिद्ध लंच ब्रेक वाली है। वहां तो अलग डर बना रहता है, कि एटीएम मशीन ही पैसे खा जाए..!
चलो फिर, फिर मिलेंगे।
शुभरात्रि,
१२/०९/२०२५
|| अस्तु ||
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