“संध्याकाल, अँधेरा और खिड़की का सच — प्रियम्वदा के नाम” || दिलायरी : 14/11/2025

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संध्याकाल, अँधेरा और खिड़की का सच — प्रियम्वदा के नाम

    प्रियम्वदा !

    कोई भी ऋतु चल रही हो, लेकिन संध्याकाल इतना सुहाना कैसे बना रहता है? आसमान में झगमगते सूर्य का तेज मंद हो जाता है। वातावरण शीतलता धारण कर लेता है। अभी तक खिड़की से बाहर सूर्य की किरणे सामने वाले शेड से परावर्तित हो रही थी। अभी अभी सूर्य और डूब गया, क्षितिज के उस पार गतिमान है। और धीरे धीरे एक और दिन अस्त हो रहा है..! मेरा एक और दिन तुम्हारे नाम अंकित हो रहा है। 


“Cartoon Rajasthani man with red turban and mustache looking at his reflection in a closed window on a plain white background.”

दिलबाग, पौधे और समय के नियम

    मैं अक्सर यह तुलनाएं करते हुए खीजता हूँ, कि मुझे क्या चाहिए था, और क्या मिला है। और अंत में निष्कर्ष और दोषारोपण भाग्य पर देना पड़ता है। आज सवेरे दिलबाग में गया, एक खिला हुआ गुड़हल का फूल तोड़ लिया। गमलों में नमीं बनी हुई थी। सर्दिया चल रही है, गमलों में पानी सूखता नहीं है। गेंदे के पौधे ने बहुत सारी कलियाँ खिलाई है। प्रियम्वदा, मैंने कल की ही दिलायरी में लिखा था, हर चीज का एक निर्धारित समय है। समय आने पर ही सारी घटनाएं घटित होती है। इन पौधों का विकास भी समय पर निर्धारित है। 


पसंद, ख्याल और मानव मन की अस्थिरता

    सवेरे से आज तो एक ही काम था ऑफिस पर। हिसाब बनाओ.. और अक्सर मैं हिसाब बनाते हुए कानों में ब्लूटूथ लगाए कुछ न कुछ इन्फोर्मटिव वीडियोस सुनना पसंद करता हूँ। समय समय पर हर किसी की पसंदगी बदलती रहती है, फिर वह पसंदगी मेनू की हो या मानव की। कभी भी कोई भी किसी एक को समर्पित रह पाया है? हर किसी को कम से कम अपना सच तो मालुम होगा ही? ख्यालों पर कभी किसी का नियंत्रण नहीं होता..!


    पिछले कुछ दिनों से यूट्यूब पर "ख़बरगाँव" चैनल सुन रहा हूँ। पहले यह एंकर लल्लनटॉप में काम करता था, अनुभव हो जाने पर अपना खुद का चैनल चालू किया है। ऐसा ही होता है, अच्छा खासा अनुभव प्राप्त करने पर हर कोई नया प्रयोग ही करता है। स्वामित्व की दौड़ में हर कोई दौड़ता है। खेर, इस एंकर की भी बोलने की छटा, और कहानी की शैली मुझे रसप्रद और कर्णप्रिय लगती है। अलिफ़ लैला नाम से अलग से एपिसोड्स आते है। जो काफी जानकारियों से भरे और मजेदार लगते है। 


    दोपहर बाद एक झपकी लेनी चाही थी, लेकिन नौकरी ने बंधुआ बनाकर बांधे रखा। जब जब खाली समय मिलता, अपनी नई ईबुक महाराष्ट्र में महादेव की लिंक सोशल मीडिया के मित्रों के साथ शेयर किया करता। कुछ मित्रों ने कहा है, जरूर से पढ़ेंगे। लेकिन वास्तविकता उन्हें भी पता है मुझे भी। कुछ मित्रों ने डिस्काउंट के बारे में भी पूछा, जबकि किंडल पर ऐसी कोई सुविधा है नहीं। तो इस कारणवश शनि, रवि और सोमवार के लिए यह ईबुक फ्री कर दी। वैसे भी पैसे कमाना इन ईबुक्स का उदेश्य है नहीं। यह ईबुक्स मैंने अपने अभिमान को पोषने के लिए बनायीं है। पैसा कमाना, वह तो बायप्रोडक्ट है।


दिनभर का एकांत और रात की खिड़की का आईना

    अँधेरा घिर चूका है। और रात की यह खिड़की आइना बन जाती है। जब तक उजियारा विध्यमान था, यह खिड़की मुझे बाहर के दृश्य दिखा रही थी। और अब सूरज ढल जाने के बाद यह खिड़की इसी कमरे को प्रतिबिंबित कर रही है। कांच भी कितनी विचित्र वस्तु है न.. कभी कुछ और दृश्य दिखाता है, कभी कुछ और। जैसे कह रही हो, दिनभर मैंने तुम्हे बहार का चित्र दिखाया है, अब ज़रा अपने आप को भी देखो। बाहर अँधेरा छा जाने के बाद भीतर की रौशनी हमें अपने आप जलानी होती है। 


आवाज़ें, घर्षण और अँधेरा जो सब छिपा लेता है

    यह खिड़की बहार के दृश्यों के साथ साथ बहार की आवाज़ों से भी बिना देखे मन में कल्पनाओं को निर्माण करवाती है। कईं बार खिड़की के बहार से आती आवाज़ से ही अंदाज़ा आ जाता है, कि बहार क्या हो रहा है। लौहयुग से मनुष्य ने सभी धातुओं में सबसे ज्यादा उपयोगिता लोहे से ली, आज पर्यन्त लोहे के घर्षणों से वातावरण गुंजित है। अँधेरा छा जाने पर भले ही खिड़की से बहार का कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा, लेकिन मैं सुन पा रहा हूँ, वही मशीनों के लोहे के घर्षण से उठता कर्कश रव, रोड से गुजरते लोहे के डंपर्स, कहीं किसी पत्थर पर लोहे को घिस कर उसकी तेज़ की जा रही धार को। 


    अँधेरा झूठ को भी पालता है। अँधेरे में वे सारे काम होते है, जिन्हे दिन के उजियारे ने असामाजिक करार दिया था। खिड़कियों के पीछे ऐसी कितनी ही आवाज़ें उठती है, खिड़कियां अपने से बन पड़ता रोकती है, फिर भी उसकी दरारों से कितनी ही चीखें बाहरी वातावरण में घुल जाती है। खिड़कियां खुली रहने के लिए बनी है। प्रकृति के साथ का हमारा संपर्क बना रहे, यही उसका उद्देश्य है। लेकिन हम खुद ही कईं बार अपने आप को क़ैद करने के लिए उन तमाम खिड़कियों को बंद कर लेते है, जहाँ से प्रकाश की एक मात्र किरण भी आने की संभावना हो। 


यादों की क़ैद और व्यक्तित्व के धब्बे

    ऐसी ही कईं क़ैद कोटडियों में पड़ी रहती है कुछ यादें.. जिन्हे हम सबसे छिपाकर रखना चाहते है। क्योंकि वे यादें विभिन्न प्रतिष्ठाओं के लिए घातक होती है। हम खुद समय समय पर इन क़ैदी यादों के पिंजरें के पास पहुँचते है। न चाहते हुए भी, उन्हें संभाले रखना हमारा दायित्व बनता है। और वे कभी भी इस क़ैद से मुक्त न हो पाए यह भी..! जिसे हम व्यक्तित्व कहते है, वह कभी भी किसी का भी बेदाग़ नहीं रहा होगा। यह व्यक्तित्व सदैव से द्विमुखी रहा है। इसकी बाहरी तरफ जरूर से बेदाग़ दिखती होगी, लेकिन जो हमारी तरफ का हिस्सा होता है, वहां सिर्फ हमें ही  धब्बे नज़र आते है। 


सत्य बनाम प्रतिष्ठा — प्रियम्वदा से एक सवाल

    हाँ ! आज काफी सारी बातें ऐसी कह दी है, जिन्हे बहुत सारे आवरणों में रखी गयी है। लेकिन जरूरी है, मैंने कहा था न.. प्रतिष्ठा को बरकरार रखना भी हमारे दायित्वों में से एक है। जैसे किसी शेर का शिकार हो जाने के बाद उसकी खाल में भूसा भरकर हम उसे प्रदर्शित करते है। वैसा ही कुछ इन प्रतिष्ठाओं का हाल होता है। हर कोई अपनी प्रतिष्ठा बढ़वाना चाहता है। लेकिन अकेलेपन में उसे वह खोखली प्रतिष्ठा बुरी भी बहुत लगती होगी..! क्योंकि अकेलेपन में वह सब कुछ जानते हुए भी कुछ भी कर पाने को निःसहाय होता है। 


    तुम्हे क्या लगता है प्रियम्वदा ! क्या सिर्फ और सिर्फ सत्य ही महत्वपूर्ण है? या फिर सत्य को दबाकर संभाली हुई बेदाग़ प्रतिष्ठा? क्या आडंबर अच्छा नहीं? आडंबर से मिला हुआ क्षणिक रुतबा यदि हम आजीवन संभाल कर रख पाए, तो उसमे गलत क्या है? वैसे भी हमारे बहुत सारे सत्य हमारे ही साथ पंचतत्व में विलीन हो जाते है। कितने सारे सत्य है, जिनका हम उच्चारण नहीं करते है। उन सत्यों को हम दबे रहने देते है। सत्य की भी एक निर्धारित मर्यादा होती है। सत्य को हमेशा मर्यादा में रहना पड़ता है। झूठ को कोई बंधन नहीं रोक सकता.. वह अमर्यादित होकर युद्धों का आह्वाहन कर सकता है। 


    प्रियम्वदा ! आज की बातें कहाँ से कहाँ पहुँच गयी..! इन्हे यहीं विराम नहीं दे देना चाहिए? 

    शुभरात्रि।

    १४/११/२०२५

|| अस्तु ||


प्रिय पाठक !

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