“सर्दियों की सुस्त दोपहर, गूगल मैप्स की यात्राएँ और श्रीसैलम का अधूरा सफ़र || दिलायरी : 15/11/2025”

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सर्दियों के आलसी दिन और मेरे भीतर की यात्राएँ

    प्रियम्वदा !

    सर्दियों के यह आलसी दिन, काम के प्रति सजग नहीं होने देते। काम करने को मन ही नहीं करता। बस घूमने जाने का मन करता है। कईं बार मन में यह ख्याल आते है, काश मैं कोई ऐसी नौकरी कर रहा होता, जहाँ देशभर में घूमने मिलता.. यहाँ तो सालभर इसी छह बाय छह के बॉक्स में निकल जाता है। बहुत ज्यादा घूमने का मन करे, तो बस गूगल मैप्स पर घूम लो.. स्ट्रीट व्यू देख लो.. जहाँ जाने का मन है, वहां की तस्वीरें देख लो.. यही एक ऐसी चीज है, जहां मेरी मनमर्जी नहीं चलती है।



    सवेरे ऑफिस पहुँचने बाद, शनिवार होने के बावजूद काफी खाली समय था। काम कुछ था नहीं, तो गूगल मैप्स पर घूमने निकल पड़ा। कुछ योजनाएं बनती गयी, कुछ बिगड़ती...


    (ऐसा ही होता है, जब हम समय होते हुए आलस कर जाए.. क्या हुआ, यह अभी मैं लिख रहा हूँ आज यानी की रविवार को.. कल सोचा था, अभी तो बहुत समय है, आराम से लिख लूंगा, लेकिन वही बात हुई, कि शाम को समय ही न मिला..! फिर अब इसे शनिवार की शाम के ही अंदाज़ में लिखते है।) 


ऑफिस की सुबह और गूगल मैप्स की लंबी सैर

    सवेरे वही दैनिक दिलबाग में एक चक्कर मारकर निकल पड़ा ऑफिस के लिए। दृढ विश्वास तो यही था, कि आज शनिवार है। मिल पर तीन-चार गाड़ियां खड़ी है। समय न बराबर मिलेगा। बल्कि हुआ उससे विपरीत। दोपहर तक तो समय ही समय था। कुछ भी नहीं सूझ रहा था, इस फालतू समय का सदुपयोग कहाँ करूँ? गूगल मैप पर चल दिया। मेरे शहर से श्री सैलम तक की एक रोडट्रिप की योजना बनाने में व्यस्त हो गया। 1632 किलोमीटर होता है, मेरे यहाँ से श्री सैलम। बाय कार जाया जा सकता है। 


मेरे शहर से श्रीसैलम तक की रोडट्रिप कैसी होगी?

    आठसौ किलोमीटर पर एक स्टॉप ले लेते है, तो दो दिन में आराम से पहुँच सकते है। यही सब गिनती करते हुए विचार आया, कि अगर ट्रैन से जाते हैं तो? वैसे भी मैंने आज तक ट्रैन में कोई यात्रा की नहीं है। एक बार जीवन में जनरल डिब्बे में बैठा था, उसके बाद से मेरा तो ट्रैन से मोहभंग ही हो गया। इतना घटिया सफर था वह लगभग चारसौ किलोमीटर का। दरअसल मैं कभी भी अपने कम्फर्टज़ोन से बाहर आना चाहता ही नहीं। और जनरल डिब्बे में तो कम्फर्ट का क भी नहीं होता है। उस समय में मैं कॉलेज में था। और छुट्टियों में हॉस्टल से घर लौट रहा था। 


क्या श्रीसैलम के लिए ट्रेन मिलती है?

    खेर, यहाँ तो मेरे शहर से श्री सैलम की कोई ट्रैन अवेलेबल दिखी नहीं। आजुबाजु के शहरों से सर्च की। तो पता चला श्री सैलम में रेलवे-स्टेशन ही नहीं है। श्री सैलम से नजदीकी रेलवे स्टेशन मरकापुर में है। जो कि श्री सैलम से 95 किलोमीटर दूर है। मतलब साफ़ है, यहाँ से पहले जाओ विजयवाड़ा, वहां से ट्रैन मिलेगी मरकापुर, और वहां से बस या टैक्सी करके पहुंचो श्री सैलम। यह काफी लेयर वाला सफर है। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन, वह अपना सामान कंधे पर ढोते हुए.. मेरे कम्फर्टज़ोन से कोसो दूर रखता हूँ मैं ऐसे सफर..!


नयी मनपा, बदला हुआ शहर और दफ़्तर की उलझनें

    दोपहर को लंच समय में मार्किट चल पड़ा। काम तो कुछ नहीं था, बस यूँही..! हमारे यहाँ नयी नवेली मनपा जोरोशोरो से काम कर रही है। और उनका काम अब दिख भी रहा है। शहर में जितने भी अनधिकृत कब्जे थे, या मार्किट में जितने भी दुकानों ने अपनी दुकान से बहार की ज़मीन दबायी थी, वह सब खाली करवाई गयी। इसके अलावा एक बड़ा सा पार्किंग प्लॉट भी शहर को मिला। वार्ना सिटी में तो मैं जब भी कार लेकर जाता था, तो परेशानी होती थी, कि कार पार्क कहाँ करे? अब वह समस्या काफी सुलझ जाएगी। 


    दोपहर बाद कईं काम निकल आए। एक के बाद एक बीलिंग्स, हिसाब, बैंकिंग, बहुत सारे काम। ऊपर से समस्या यह भी हो गयी, कि मैं अपने पास मौजूद एक हिसाब मिला रहा था, तो गंभीर समस्या यह हो गयी कि रूपये बढ़ रहे थे। होना यह चाहिए कि जमा और उधार के बाद का बैलेंस मिलना चाहिए। लेकिन किसी की पेमेंट आयी भी नहीं थी। सात बजे से सोचना शुरू किया, दो तीन जनों को फोन भी किये कि आपने कोई पेमेंट की है क्या? आठ बजने को आए, लेकिन फर्क मिला नहीं..! दिमाग फटने पर उतारू था। ऊपर से घर से फोन पर फोन आ रहे थे, कि किसी रिश्तेदार के घर खाने जाने का न्योता था, तो घर जल्दी पहुंचू मैं। 


    एक तो यहाँ फर्क नहीं मिल रहा था, ऊपर से घर से फोन पर फोन.. ऐसा दिमाग खराब हुआ था.. लेकिन इन चीजों में शांत दिमाग चाहिए। गड़बड़ और कहीं नहीं थी, बस कैलकुलेशन में थोड़ा ऊपर निचे हो गया था। कईं बार ऐसा होता है, गड़बड़ हमारे सामने होते हुए भी दिखती नहीं। मैंने दस मिनिट फोन वगैरह साइलेंट कर दिया। और दिमाग शांत किया। एक बार फिर से सारी एंट्रीज पर नज़र गड़ाई। और आखिरकार उलझन सुलझ गयी। गलतियां हमसे तब ज्यादा होती है, जब दिमाग अशांत हो.. एक साथ बहुत सारी चीजों में अपनी पूरी ऊर्जा के साथ उलझे हो। उस समय हमें यह ध्यान नहीं रहता है, कि हमारे आसपास क्या हो रहा है। बस यही बेध्यानी.. या फिर हमारी एकाग्रता के अलावा जो हो रहा होता है, वहीँ सारी समस्या हो जाती है।


रात की दावत, शाखा और देर रात की वॉलीबॉल

    रात को घर पहुँचते हुए साढ़े आठ बज गए थे। हाथ मुंह धोकर कपड़े चेंज किए, और चल पड़ा फंक्शन में। बूफे था, और पहुँचते ही एकाद जोड़ीदार खोजा.. अकेले प्लेट उठाने में शर्म बड़ी आती है। और बार बार काउंटर से प्लेट फिलप करवाने में भी..! अपना साफ़ नियम है, जितनी भूख हो, उतना एक ही बार में प्लेट में उठा लो.. खाना खाते हुए उठना अपने को पसंद नहीं। लेकिन अब धीरे धीरे यह सिस्टम भी सीख रहा हूँ मैं। क्योंकि आजकल मैदे की रोटी का चलन बढ़ गया है। रुमाली या तंदूरी रोटी.. ठंडी होने के बाद चमड़े जैसी हो जाती है, तोड़े नहीं टूटती। इसे गर्मागर्म हो तब तक अजगर की भाँती निगल जाओ.. बाद में तो यह च्युइंगम की तरह चबा-चबाकर थक जाओ, तब भी नहीं नरम होती। 


    खेर, भोजनादि से निवृत होकर चल पड़ा शाखा में। विषैला गजा अपना हलाहल उगल रहा था, मुझे देखते ही अपने भाषण में बढ़ोतरी करते हुए बोला, "क्या हम लोग इतने पीछे हो चले है, कि हम अपने सामाजिक उद्देश्यों के लिए भी समय नहीं निकाल पाते? संघ से हमें सिखने जैसी बड़ी चीज तो यही है, कि समय पर कैसे पहुंचा जाए, या समय पर हम कोई भी काम कैसे करें? हम अपने दूसरे काम जल्दी से निपटाकर क्या शाखा में भी समय पर नहीं पहुंच सकते?".. मैं समझ तो रहा था कि इशारा कहाँ है.. लेकिन मुझ पर अब यह विष बेअसर है। 


    गुजरात सल्तनत में एक सुल्तान हुआ था, महम्मद बेगड़ा..! उसके लिए कहा जाता था, कि वह जब छोटा था, तब उसपर जान का खतरा खूब था। तो उसके पालकों ने बचपन से उसे भोजन में थोड़ा थोड़ा विष देना शुरू कर दिया था.. बाद में जब यह बड़ा हुआ तब ऐसा हो चूका था, कि इस पर सारे ही विष बेअसर हो जाते थे। भुक्क्ड़ भी खूब था, ६-७ लोगों का खाना अकेले खाता था। और कहा जाता था, कि वह किसी को गले लगा ले तो उसके पसीने से ही लोग गले लगने वाला विषाक्त होकर मर जाता। उसकी नसों में इतना जहर बहता था। धर्मांध भी खूब था। उसने ही गुजरात में उस समय की दो मुख्य हिन्दू राज्य चांपानेर और जूनागढ़ को नष्ट किया, और मुस्लमान राज्य स्थापित किया था। 


दिन का अंतिम पड़ाव

    खेर, शाखा में बाद लगभग बारह बजे तक हम लोग वॉलीबॉल खेलते रहे। और भोजन के तुरंत बाद यह खेल खेलने के कारण मुझे बड़ी दिक्कत हुई। अब तो उम्र के अनुसार लगता है, कि जैसे हार्ट अटैक हो जाएगा.. हकीकत में तो पनीर और वो तंदूरी रोटी पचने में समय लेती है, मैंने आराम लेने के बजाए सीधे भागदौड़ वाला खेल चुना.. इस कारण समस्या हो रही थी। लेकिन चलता है, फिर भी मैं रात के बारह बजे तक खेलता रहा। 


    बारह बजे थकान से चूर होकर सोने के सिवा और कोई मक़सद था भी नहीं। तो मैंने वही मक़सद निभाया। 

    शुभरात्रि। 

    १५/११/२०२५

|| अस्तु ||


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