हरियाली, भाग्य और शहर बनाम गाँव की उलझनें – प्रियंवदा को लिखी एक दिलायरी
जब ज़मीन पास थी, पैसे नहीं थे – अब पैसा है, ज़मीन नहीं
प्रियंवदा ! आज भी तुम्हारी ही तरह सूर्य कहीं छिपा रहा है। सवेरे से शाम होने को आयी, अँधेरा ही बना रहा। जैसे तुम्हारे बिना मेरा जीवन.. वैसी ही पृथ्वी बिना सूर्य की..! जैसे तप बिन फल.. फल से याद आया प्रियंवदा, आजकल मेरे छोटे से आँगन में चारोओर हरियाली ही हरियाली है। एक तो यह शहरी मकान कितने छोटे होते है। शेयरिंग दीवारों वाले। मेरा एक असंतोष तो शायद सदा ही बना रहेगा प्रियंवदा ! गाँव में बड़ा प्लाट है, लेकिन गाँव है साढ़े तीन सो किलोमीटर दूर। यहाँ शहर में घर है, लेकिन छोटा। गाँव में जमीन है, लेकिन आय नहीं। यहाँ शहर में आय है, लेकिन जमीन नहीं। यह असंतुलित असंतोष नहीं तो और क्या है?
शहरी मकानों में आंगन बड़े छोटे होते है। एक बाइक समा जाए उतने में हर कोई संतोष पा लेता है। लेकिन मैं ठहरा असन्तोषी..! वो फन्नी बात है न कि, 'यह जगह मेरे पिताजी को उस समय बहुत सस्ते में मिल रही थी, लेकिन उन्होंने नहीं ली।' मेरे साथ भी वही बात है। किसी समय पर कौड़ियों के भाव मिल रही जमीन के भाव आज इतने चमक रहे है की आँखे चौंधिया जाए। उन दिनों विक्रेता यह कहकर प्लॉट्स बेच रहा था, कि जब पैसो का जुगाड़ हो तब दे देना.. लेकिन तब भी ठीक उसी समय बुद्धि और बड़े संकटो को आँखों के आगे ला खड़ी कर देती है। और वह सुअवसर हाथ से चला जाता है। लगभग हर किसी के साथ ऐसा होता ही है। उससे भी अजीब बात बताऊँ, तो कोई एक मौका चला गया, लेकिन आधी रात को फिर से वह मौका मिले और तब भी उसे न ग्रहण किया जाए, तब लगता है, कि भाग्य नाम की कोई वस्तु सक्रीय है।
खैर, आज जब मैं कुछ पाने योग्य हूँ, तो जो पाना था, वह पकड़ से बाहर हो चूका है। (थोड़ा मिकेनिकल ज्ञान हो गया..) फिर इसे हम मजबूरन भाग्य को कोसने के लिए आधारभूत स्तम्भ मान लेते है। और मैं तो स्वीकारता ही हूँ, कि मुझे तो मेरी मेहनत का फल भी नहीं मिलता, तो भाग्य से तो क्या ही मिलेगा? कईं बार तो कर्म करता हूँ, काण्ड हो जाता है। और फिर वह भुगतना भी पड़ता है। जब ऐसा कुछ बार बार होने लगे फिर आदमी निष्क्रिय होने लगता है। जो शायद मैं हो चूका हूँ। क्योंकि मेरे ही आसपास बहुत से ऐसे लोग है, जो उम्र में मुझसे छोटे है, लेकिन तब भी मुझसे आगे है। पैसो की बात कर रहा हूँ, प्रियंवदा ! पैसा ही सब कुछ है इस दुनिया में। पैसा है तो बाड़े-बोबडे भी शादी कर लेते है। पैसे है तो इज्जत अपने आप आती है। पीठ पीछे तो भले आदमी की भी लोग बुराई करते है, और गरीब की तो मुंह पर भी..!
जीवन की हरियाली और मनीप्लांट का मायाजाल
प्रियंवदा ! बात की शुरुआत हरियाली से की थी न मैंने? तो कल सवेरे ग्राऊंड से बोरा भर मिट्टी ले आया था। वो दो रविवार के लाए हुए गमलो के लिए कोई पौधा न था, एक में स्नेक प्लांट लगा दिया, और दूसरे में मनी-प्लांट की बेल। अरे मुझे तो आज पता चला प्रियंवदा ! कि लोग ऐसा मानते है, कि मनीप्लांट लगाने से घर में बरकत होती है। उसका गजराती नाम है, 'धन-वेल' - धन माने पैसा, वेल माने बेल/लता..! मतलब वो मेहनत करने से बरकत होती है वो वाले कॉन्सेप्ट में मैं ही मानता हूँ क्या? क्योंकि आसपड़ोस के हर घर में मुझे यह प्लांट लगा हुआ मिला। मेरे घर पर भी काफी समय से था। फिर मैं नौकरी क्यों करूँ? पैसे तो यह प्लांट देगा न.. इसके पत्ते थोड़े थोड़े दीखते भी है पांचसौ की नॉट के रंग के।
पीपल, पितृ और पेड़ों की परछाइयाँ
ऐसी बहुत सारी मान्यता है, पेड़-पौधों के विषय में। बहुत समय से सुनता आ रहा हूँ, कि पीपल में बहुत निवास करते है। हमारे यहाँ कहते है, पीपल में पितृओं का वास होता है। इस लिए हर महीने की अमावस्या या पूर्णिमा (दो में से एक है कोई, जो मुझे याद नहीं) को पीपल को तांबे के लोटे से जल चढ़ाना चाहिए। इससे पितृ की कृपा बनी रहती है। तो मेरे मन में सवाल होता है, कि क्या पितृ लोग ऐसे बुरे थे, जो उन्हें मैं जल न चढ़ाऊँ तो वे मेरा अहित कर देंगे। ऐसा कौनसा बाप होगा जो अपने बेटे के लिए बुरा चाहेगा? दूसरा भूत वाला मामला.. की पीपल में भूत बसते है, उसका कारण मुझे भी अनुभव हुआ। हमारे चौक में एक विशाल पीपल का वृक्ष है। सर्दियों में रात को मैं चौक में अग्नि तापता बैठा करता था। एक रात हवा थोड़ी तेज चल रही थी। और पीपल के पत्ते सरसरा रहे थे। चौक में घना अँधेरा था, और अचानक एक हवा का झौंका आया, और लगा जैसे पूरा पीपल हिल उठा। वो एक क्षण तो मेरे मन में भी ख्याल आ गया था, कि हो न हो भूत तो होता ही होगा पीपल में। लेकिन वह ख्याल क्षणभंगुर था। मैं रात के बारह बजे तक आग सेंकता अकेले ही चौक में बैठा रहा था।
डिजिटल विष और गजा की राजनीति की बात
प्रियंवदा ! आज सुबह से लेकर शाम हो गयी.. अपनी बुक के प्रचार में ही लगा हुआ था। मेरे व्हाट्सप्प में हजारों मेसेज अनरीड ही पड़े रहते है। कईं सारे ग्रुप्स है, जिसमे मुझे कईं अनजान लोगो ने ऐड कर रखा है। आज वे सारे ग्रुप काम आए। उन सब ग्रुप में अपनी बुक की लिंक भेज दी। आज तो स्नेही भी ठेठ शाम को जागृत हुआ। उसे भी अपनी उलझने है। विषैला गजा भी आजकल एक्टिव होने लगा है। कहता है, 'आज के समय में कोई मुकाम हांसिल करना हो तो विवाद उत्पन्न करो। और उस विवाद के मुख्य सूत्रधार बनो।' विषाक्त है, किन्तु सत्य है। आज के समय में कई ऐसे लोग है जो हमारे हम उम्र है, लेकिन समाचारो में छाए रहते है। विषैला गजा उदहारण देकर गिनवाता है, हार्दिक पटेल.. पटेल आंदोलन से प्रख्यात हुआ, आज राजकरण में है। गोपाल इटालिया - वह भी कईं सारे विवादों में आया था, सोमनाथ ज्योतिर्लिंग ने उन्हें अपार कुख्याति दिलवाई। आज विधायक है। और भी कईं सारे उसने नाम गिनवाए थे उसने.. जो कि सच है।
आपको पद चाहिए, तो विवादों में फंसिए। विवाद से प्रख्याति आती है, प्रख्याति कह लो या कुख्याति। लेकिन विधायकी का पद तो मिल ही जाएगा। और विष उगलने में तो गजा माहिर है ही। किसी दिन यह भी कोई बड़ा पदाधिकारी जरूर बनेगा। फ़िलहाल तो उसने कल रात बताया की विष उगलने का एक और माध्यम का शुभारम्भ वह कर चूका है। बहुत जल्द वह डिजिटल दुनिया में विषाणु प्रवाहित करेगा।
रक्षाबंधन, सेवउसल और नास्टैल्जिया के दोपहर
दोपहर को मार्किट चला गया था। राखियां आने लगी है कुरियर में। रक्षाबंधन का त्यौहार नजदीक है न। तो कूरियर कलेक्ट कर के, लगे हाथो नास्ता करने बैठ गया। मस्त झणझणीत सेवउसल। जब वड़ोदरा मैं पढाई के नाम पर मजे करता था, तो मेरा सबसे पसंदीदा हुआ करता था, सेवउसल। लेकिन वह टेस्ट यहाँ कहीं नहीं मिल सकता। नास्ता करके ऑफिस पर आया, और फिर लग गया, ढेर सारे कामों में। फल मिले न मिले, प्रियंवदा ! कर्म करना ही पड़ता है। तो बस, यही थी आज की दिलायरी... बाकी तुम बताओ.. कभी तो कुछ कहो..! कब तक यूँही मैं अकेले अकेले तुमसे यह सब बताता रहूँगा?
शुभरात्रि।
३०/०७/२०२५
|| अस्तु ||
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– दिलावरसिंह
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