जर्नलिंग : खुद को जानने, तनाव घटाने और जीवन को समझने की कला
चुनावों की उलझन और जर्नलिंग की राहत
अक्सर हम दो लोगो के बिच फँस जाते है प्रियंवदा ! ना इस पक्ष के रह पाते है, न उस पक्ष के... कभी कभी तो लगता है जैसे हम बने ही चुनावों के लिए है। क्योंकि हमने खुद ने ही इतने सारे विकल्प अपने सामने प्रस्तुत किए है, कि बाद में खुद ही उलझ जाते है। हम शायद क्षण कुछ न कुछ चुनते रहते है। चुनाव सिर्फ और सिर्फ सत्ता के लिए नहीं होता है। जीवन में प्रत्येक पल एक चुनौती है, और हम चुनते है, हमें क्या करना है। बहुत से लोग तो सुबह उठकर सबसे पहला चुनाव ही यही करते है कि आज नहाना जरुरी है, या चलेगा..!
उसके बाद हम चुनते है, आज कपड़े कौनसे पहने जाए? स्त्री है यदि तो उसे चुनना होता है आज नाश्ते में क्या बनाया जाए, और पुरुष है तो वह सोचता है आज क्या खाया जाए? अच्छी बुरी ख़बरों को सुनते हुए हम चैनल का भी चुनाव करते है, कि कौनसी कम पक्षधारी है। ऑफिस जाते हुए वाहनों का भी तो एक चुनाव चलता है। रास्ते में किसी दो जन को लड़ता देख, हम भी अपने मन में किसी एक को निर्दोष चुन लेते है। ऑफिस पहुँच कर ढेर सारे कामों में से यह चुनते है कि सबसे ज्यादा जरुरी कौनसा है, और कौनसा वह काम है जिसे आज टाला जा सकता है।
दोपहर को बाहर नाश्ता कर लिया जाए या घर चला जाना ठीक रहेगा, यह महत्वपूर्ण चुनाव भी तो हमें ही तय करना होता है। जिह्वा को ज्यादा रसदार क्या लगेगा.. इसके चुनाव से लेकर तोंद निकलती जा रही है, कंट्रोल करने के लिए योगासन तक का चुनाव। जीवनसंगिनी के संकल्पित पात्र से लेकर शादी क्यों की के पछतावे तक का चुनाव। अक्सर एक पछतावा कुछ खरीदारी के बाद होता है, वहां भी चुनाव की ही मुख्य भूमिका थी। चुनाव करने में सबसे ज्यादा उत्पन्न होता है तनाव..! एक मानसिक खिंचाव, जो हमे लाभालाभ के प्रति बार बार माहिती देता है। और हम एक निर्णय तक पहुंचे उससे पूर्व सैंकड़ों संभावनाएं प्रस्तुत करता है, इस तनाव से मुक्त होने का एक बहुत अच्छा उपाय है, दैनिक डायरी लिखना..!
Overthinking से छुटकारा कैसे दिलाती है डायरी
प्रियंवदा ! कुछ मुझ जैसे मूर्ख होते है, जो बहुत ज्यादा ओवरथिंकिंग करते है। अनेकों संभावनाओं को सोचने के पश्चात एक निर्णय पर आते है। और जब वह निर्णय गलत साबित हो जाए या नुकसानदेह हो तब भीतर ही भीतर झुंझलाहट का पहाड़ बनाते है। उसी पहाड़ के भीतर छुपा है यह शाब्दिक महासागर..! अंग्रेजी में कहूं तो जर्नल लिखने का सबसे बड़ा लाभ ही यही है, कि मन साफ़ हो जाता है। दिमाग की गुत्थियां खुल जाती है। कोई अधमरा भाव रह भी गया तो वह पन्नो पर शब्दों के माध्यम निकल जाता है। कईं बार बहुत से नेगेटिव विचार अपने भीतर घर कर जाते है। लेकिन कागज़ पर उतरते ही वे भी दिमाग पर की हुई पकड़ खो देते है।
मुझे जर्नलिंग का सबसे अच्छा लाभ हुआ, 'सेल्फ डिस्कवरी'..! मैं क्या चाहता हूँ, मैं कहाँ अटकता हूँ, मुझे उस समय क्या पसंद आया था.. सतत जर्नल (डायरी) लिखते रहने से, खुद ही खुद से मिल पाते है। खुद की क्षमताओं को पहचान पाते है। खुद की खामियों से रूबरू हो सकते है। जब कागज़ पर लिखते है, कि मुझे किससे डर लगता है.. तो मन धीरे धीरे जवाब देने लगता है। हो सकता है अकेलेपन का डर लगता हो, हो सकता है असफलताओं का डर हो, या आलोचना का भी भय हो। लिखते लिखते अनुभव होने लगता है, कि मेरी खुद की इच्छाएं कितनी है, और मैं कितनों की अपेक्षा कर रहा हूँ.. मेरी ख्वाहिशें सच में मेरी है भी?
Self Discovery : खुद को पहचानने की प्रक्रिया
मुझे वास्तव में एक बड़ा घर चाहिए.. लेकिन जब लिखने बैठता हूँ, तो पाता हूँ कि मेरा तो इस छोटे से कमरे में भी गुजारा हो जाता है। और तीन कमरों वाला घर तो आते-जाते रहते मेहमानो को भी काफी है। फिर यह जो मेरी बड़े घर की इच्छा है, वह उचित है? सचमे उसकी जरुरत है मुझे.. या मुझे बस दूसरों की नजरों में अपना कद बढ़ाना है..? यह सवाल वास्तविकता से भरे होते है। लिखते लिखते खुद से जितने सवाल किए जाए, सबके उत्तर अपने ही भीतर से आने लगते है। प्रियंवदा ! जब भी मैं यह तुम्हे संबोधित करते हुए लिखता हूँ, मैं कहीं न कहीं अपने अतीत से भी जा टकराता हूँ। और कभी कभी तो अपने बचपन से भी..! क्योंकि लिखते हुए जब भावनाएं बहती है, तो वह नदी कटाव करती चलती है। और धीरे धीरे अपने बंधनो से मुक्त होकर बहुत दूर तक बहा ले जाती है।
Gratitude की आदत : आभारी होना क्यों ज़रूरी है?
प्रियंवदा ! यह लिखते लिखते यह भी एहसास होता है, कि जब हम कमी पर सोचते है, तो मन अधूरा मालुम होता है। लेकिन हमारे पास जो है, उस पर ध्यान केंद्रित होता है, तो दृष्टिकोण बदल जाता है। जेब में खनक नहीं है, लेकिन पेटभर माँ के हाथ का खाना है, हम संपन्न है। सफर लम्बी है, लेकिन एक मुस्कुराता मित्र साथ है, तो राह आसान है। ईश्वर का उपहार है, कि खिड़की से संध्या की यह सुनहरी किरणें मुझतक पहुँच रही है। दिनभर में हुईं घटनाओं में से एकाध तो ऐसी होती ही है, जहाँ हम आभारी हो..! किसी अजनबी ने मुस्कुराते हुए रास्ता दिखाया हो, या बारिश की बरसती बूंदों ने मन में ताजगी भर दी हो। किसी रील में कोई वह गाना आ जाए, जिसे बचपन में खूब गुनगुनाया हो, तो इस मन झुमन क्षण का भी आभारी तो होना चाहिए। धीरे धीरे इस आभार के कारण हमें हर पल उपहार लगने लगती है।
Creativity का निर्झर : बिना झिझक लिखना
लोग क्या कहेंगे की सोच, रोजमर्रा की चिंता, और जिम्मेदारियों का भार हमारे भीतर के निर्झर को सूखा देता है। बिना झिझक, और बिना जजमेंट की फ़िक्र के जब एक बार यह कलम चलने लगती है, तो वह निर्झर फिर से फूटता है। जिवंत हो उठते है, वे सारे भाव, जो दबे पड़े थे अपने आप को साबित करने की दौड़ में। जर्नलिंग का सबसे बड़ा लाभ ही यह है, कि यह निजी है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, कि मैंने ऐसा लिखा है, उस पर लोग हसेंगे, या यह बात लिखने लायक है नहीं। यह लेखनी सिर्फ और सिर्फ स्वयं के लिए है। लिखने से पूर्व बहुत सारे विचार बिखरे पड़े हुए थे, लेकिन धीरे धीरे जैसे जैसे लिखते रहते है, तो वे एक आकर लेने लगते है। ठीक उसी तरह जैसे किसी चाक पर पड़ा मिट्टी का पिंड.. कुम्हार उस पिंड को आकार देते हुए, प्यास छिपाने वाला घड़ा भी बना सकता है, या चाहे तो कोई विकृत मूरत..!
निजी लेखन की आज़ादी और मानसिक शांति
जर्नलिंग में सबसे मजेदार यह है, कि इसमें अक्सर दो असंबंधित बाते जुड़ जाती है। लिखते लिखते कब वर्तमान की बारिश की बूंदे, भूतकाल में बचपन की कागजी नाव के साथ जुड़ जाती है, पता भी नहीं चलता है। यह कतई जरुरी नहीं है, कि लेखनी साहित्यिक शब्दों से भरपूर होनी चाहिए, रसदार होनी चाहिए। क्योंकि यह सब सौंदर्य की शोभा है। ठीक उसी तरह जैसे, जगतसुन्दर की मूर्ति पर चढ़ाये हुए आभूषण। मूर्ति स्वयं ही मनमोहक थी। आभूषण के कारण और निखार आया। वैसे ही लेखनी में साहित्यिक शब्द केवल और केवल आभूषण है। मूल विचार सुन्दर हो तो, आभूषण न भी हो तो फर्क नहीं पड़ता है। एक फ्लो बन जाने के बाद दिमाग स्वयं रूपक के आभूषण शब्दों पर चढ़ा देता है।
जर्नलिंग क्यों शुरू करें आज ही
प्रियंवदा ! यह दैनिक लेखनी ने मुझे इतना जरूर से सिखाया है, कि कभी तो मेरे शब्दों से मन की बारिश बरस जाती है, कभी कभी विचारों का तूफ़ान उठ खड़ा होता है। यह सब कुछ कागज़ पर उतरने के बाद अहसास होता है, कि दिल के आसमान से एक इंद्रधनुष उतर सकता है। देखा, ऐसा ही होता है, अक्सर मैं लिखने की शुरुआत करता हूँ, अपनी दिनचर्या से। और आज इतनी सारी बात लिख दी, लेकिन सवेरे का जिक्र तक नहीं आया। वैसे आजकल खालीपन से खनकते दिन गुजर रहे है। कुछ नया सीख भी रहा हूँ, और पूरा दिन बगैर काम के बैठता भी हूँ। सारा दिन कोई रील कितनी देखें? तो जब कुछ नहीं सूझ रहा होता है, तो मैं फ्लिपकार्ट या अमेज़न खोल कर बैठ जाता हूँ।
सवेरे आज तो ग्राउंड पर क्रिकेट के खिलाडियों ने अपना कब्ज़ा जमा लिया था। मैं अपनी कसरत वगैरह कर के घर आ गया। अपने दिलबाग में कुछ बदलाव करने वाली सुबह थी आज। बरसात की मौसम है तो दिलबाग की हरियाली मन मोह लेती है। शुरुआत थी, तब तो वे तमाम गमले बड़े खाली खाली से लगते थे। लेकिन अब गमलों की किनारियाँ भी नहीं दिखती। उनमे से मधुमालती को तो छत की रेलिंग पर बढ़ाने का सोचा था, और दो PVC PIPE में कुछ और लताएं लगाने का ख्याल निश्चित किया था। लेकिन घड़ी में सवा आठ बजते देख, सारे अरमान परिवर्तित हो गए उस विचार में, कि ऑफिस पहुँचने में देर हो जाएगी।
गणेश चतुर्थी की शुभकामना तुम्हे प्रियंवदा ! आज जगन्नाथ मंदिर पर भी गणपति बाप्पा का मंडप सजा हुआ था। किसी समय की आवश्यकता किसी समय पर परंपरा बन जाती है। यह गणपति स्थापना उसी बात का उदहारण है। ऑफिस आकर दिनभर बस इधर उधर की खबरें सुनने में ही व्यतीत किया है। और थोड़ा बहुत समय उन्ही ऑनलाइन शॉपिंग एप्प्स पर, जिससे मैं बहुत कम खरीदारी करता हूँ। तो.. यही था आज का दिन प्रियंवदा.. यही थी आज की जर्नलिंग.. या यही थी आज की डायरी.. और यही था आजका तुम्हे संबोधित करता मेरा पत्र भी..!
शुभरात्रि।
२७/०८/२०२५
|| अस्तु ||

प्रिय पाठक !
“क्या आपने कभी जर्नलिंग की कोशिश की है? अपने अनुभव कमेंट में ज़रूर लिखें।”
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