आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया – मिडिल क्लास की कहानी
प्रियम्वदा !
आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया.. मिडिल क्लास वालों के लिए यह सदैव ही रहेगा.. आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया..! अमीरो को कभी किसी बात की चिंता रही नहीं है, उल्टा वे लोग तो फटी पेण्ट पहन लेते है तो फैशन कही जाती है। गरीब की तो इज्जत ही क्या है.. वो तो है ही फटेहाल। लेकिन यह न तो गरीब और न तो अमीर.. वो बिच वाली जो कैटेगरी है न.. इसे ही सारा बोझ लेकर चलना है। राष्ट्रवाद से लेकर घरेलू पालनपोषण तक की झंझट इसी के कंधे पर है। न तो यह कभी इस क्लास से ऊपर जा पाया है, और निचे जाना चाहता नहीं है। त्रिशंकु की माफिक जुलता रहता है..!
रात के खेल और सवेरे की दिनचर्या
कल भी रात के बारह बजे तक वॉलीबॉल खेलते रहे थे। रात को वॉलीबॉल खेलने के बाद नींद बहुत अच्छी आती है। कुछ देर तो कंबल ओढ़ने की जरूरत नहीं लगती। लेकिन बाद में बहुत ठण्ड लगती है। सवेरे उठा, क्योंकि ग्यारस है, वैसे इस बार की तिथियां भी आगे-पीछे है। केलिन्डर में तिथि ग्यारस है, और त्यौहार है वाक्-बारस। गुजराती में वाघ-बारस भी कहते है। वाघ यानी बाघ से किसने और कैसे जोड़ दिया, पता नहीं। लेकिन होनी चाहिए वाक् बारस। वाक् माने वाचा की देवी सरस्वती को समर्पित यह दिवस है। कल भी तिथि तो बारस है, लेकिन त्यौहार धनतेरस है। लक्ष्मी जी को समर्पित दिवस। उसके बाद हमारे यहाँ होता है, काली-चौदस। देवी काली को समर्पित दिवस। अन्य राज्यों में छोटी दिवाली बोलते है।
वाक्-बारस और त्योहारों का सिलसिला
आज सवेरे उठा, क्योंकि ग्यारस होने से माताजी को मंदिर जाना था। तैयार होकर मंदिर गए। आज मंदिर में पानी नहीं आ रहा था। फिर पास के तालाब से जल भरकर शिवाभिषेक किया। ऑफिस आने से पूर्व छत पर गया, पता चला की कल किसी ने भी पौधों को पानी नहीं दिया था। सवेरे सारे गमले फिलप किए। ऑफिस आने के बाद आज तो सुबह से ही दूसरे-तीसरे कामों ने घेर लिया। दिलायरी की फ़िक्र इस लिए नहीं थी, कि वह भी मैंने कल समय रहते लिख ली और शिड्यूल्ड पब्लिश कर दी थी। दोपहर को आज भी मार्किट चल पड़ा था। एक तो हुकुम के लिए कुछ रकम विथड्रॉ करनी थी। और सुबह सुबह मेरी हाथघड़ी का लॉक टूट गया था, तो वह डलवाना था।
हाथघड़ी और समय के साथ मेरा रिश्ता
प्रियम्वदा ! मुझे शुरू से ही हाथ-घडी का काफी शौक रहा है। मतलब घड़ी कैसी भी हो वह चलेगी, हाथ खाली नहीं दिखना चाहिए। दाएं हाथ में तो पहले कड़ा ही पहनता था। लेकिन थोड़ी समझ डेवलप हुई, तो कड़े के बदले अब कलावा बांधे रखता हूँ। कोई न कोई डोर बंधी ही रहती है हाथ में। लेकिन बाएं हाथ का क्या? वह भी खाली खाली दीखता है.. और मुझे बड़ा बेकार लगता है। तो मैं शुरू से ही हाथघड़ी पहनता ही पहनता हूँ। घड़ी बंद हो तब भी चलेगी, लेकिन हाथ खाली नहीं होना चाहिए। कईं बार घड़ी का सेल ख़त्म हो चूका हो, और घड़ी बंद हो तब भी पहनता जरूर हूँ।
मार्किट के खर्चे और इतिहास, भूगोल और सोच की उलझनें
दोपहर को मार्किट से आते हुए कुछ और भी खर्चा कर आया। सीरीज़ लाइट और नयी अजरख, कुंवरुभा के बिस्किट्स.. लेकिन फिर से पटाखे भूल गया। अब शाम को घर पहुँचने से पूर्व यह जुगाड़ भी बिठाना होगा। आज वैसे कुछ भी लिखने का मन तो नहीं है। हाँ ! आजकल फिर से जिओपॉलिटिक्स खूब सुनने लगा हूँ। और साथ ही साथ लोकल इतिहास में रुचि बढ़ गयी है। सोचने में क्या जाता है, सोचता हूँ इस विषय पर लिख दू, इतिहास के इस पात्र पर लिख दू। फिर सोचता हूँ, हिंदी भाषा में गुजरात के वीरों का कोई साहित्य उपलब्ध है ही नहीं। गुजरात के विषय में लोगो को यही लगता है, यहाँ तो बस व्यापारी होते है। इतिहास में कोई स्थान है नहीं, वगैरह, वगैरह..!
फिर सोचता हूँ, इतना समय किसके पास है? दिनभर तो यह भागदौड़ में व्यस्त रहता हूँ। और समय निकल जाता है, जब लिखने बैठता हूँ, तो समय कम पड जाता है। और विषय की भी अरुचि हो जाती है। बचती सिर्फ दिनचर्या है। अभी भी पौने सात बज गए है। और काम से अब जाकर कुछ फ्री हुआ हूँ। लेकिन ऑफिस में लिखने बैठूं तो कोई न कोई कुछ न कुछ काम से बिच में आ जाता है, और लिंक टूट जाती है।
अधूरे सपने और समझौतों की गाँठें
सोचने का समय भी कहाँ है, दिनभर तो ऑफिस में उलझे रहते है। शाम को घर जाकर आजकल वॉलीबॉल कूटते है। साड़ी ऊर्जा, सारा समय इन्ही में व्यतीत हो जाता है। थोड़ा बहुत उत्साह शेष है, वह इसी ट्रिप को लेकर है। लेकिन उस ट्रिप के बारे में भी मन इस बात से डरता है, कि कैंसिल हो जाए कहीं..! सच कहूं यदि बिलकुल ही, तो मेरे दोस्त कईं बार मुझसे कहते है, कि न मैं फ़िल्में देखता हूँ, न ही मैं कहीं घूमने जाता हूँ, इतने पैसे बचाकर मैं करूँगा क्या? और मैं उन्हें प्रत्युत्तर में बस इतना ही कहता हूँ, कि मेरे पास एक कुआ है। ठाकुर का कुआ.. उसे लबालब पैसों से भरना है। जिस दिन वह भर गया, उस दिन मैं भी मौज मजा करूँगा..!
बाइक राइड का सपना और जीवन का सफ़र
वाकई, मैं अभी यह लिख रहा हूँ, तो अनुभव कर रहा हूँ, मैंने कहीं भी एक फालतू रुपया कभी खर्च किया नहीं है। सिवा कोई पार्टी-शार्टी के। वहां भी मैं कम से कम में मैनेज करना सीख चूका हूँ। यह शायद बचपन से पड़ी कुछ जिम्मेदारियों का नतीजा है.. मेरे कितने ही शौख मर चुके है, समय के साथ साथ। मैंने कितने ही समझौते किए है बचपन से, शायद हर कोई करता है, लेकिन कुछ मेरी तरह उन समझौतों की गाँठ बाँध लेते है। एक समय था, बाइक राइड से एक लम्बी यात्रा करनी मेरा सपना था। नहीं पूरा कर पाया, तो मैंने समझौता किया, अपने आसपास में जितने दूर बाइक लेकर जा सकता था, वे यात्राएं मैंने की।
अँधेरे में उजियारे की तलाश
कईं बार ऐसा होता है प्रियम्वदा ! कि हम किसी की महेनत या संघर्ष देखकर इतना ज्यादा अपने आप को उनके अनुसार ढाल लेते है, कि हमारी अपनी ख्वाहिशें हम भूल ही जातें है। हम यह तक भूल जाते है, कि हमारा कोई ख्वाब हुआ करता था। हमारा उस ख्वाब को पूरा करने का संघर्ष हमने शुरू कर दिया था.. लेकिन उस ऊबड़खाबड़ रस्ते को बनाते बनाते, हम किसी और रस्ते, और किसी और लक्ष्य की दिशा में चल पड़ते है। क्योंकि हमें लगता है, कि यह रास्ता भी उसी दिशा में जाता है, बस इसमें पर्याप्त विराम है। विराम लेने से यात्रा की दूरी उतनी ही रहती है, बस समय ज्यादा लगता है। या यूँ कहूं की समय सरक जाता है। और यह सरका हुआ समय किसी दिन चिढ़ाने भी लगता है।
फ़िलहाल सवा सात बज चुके है। अंधेरे ने अपनी अच्छी पकड़ जमा ली है। ऑफिस की खिड़की अब काली ही दिखती है। बाहर का कुछ भी नहीं दीखता। यह अँधेरा ही है, जो हमारे सपनों को एक रास्ता देता है, लेकिन दूर तक का नहीं.. अँधेरे में रस्ते दीखते तो है, लेकिन धुंधले होते है। तुम्हे पता है, काले अँधेरे में चली हुई काली स्याही से छपे शब्दों में उजियारा भी होता है? आशा का उजियारा.. और उस आशा के उजियारे के सहारे सफर कब ख़त्म हो जाता है, पता नहीं चलता..!
शुभरात्रि।
१७/१०/२०२५
|| अस्तु ||
प्रिय पाठक !
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