त्यौहारों का मौसम और मन का निरुत्साह | माँ की गुदड़ी की यादें || दिलायरी : 12/10/2025

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त्यौहारों का मौसम और मन का निरुत्साह

    प्रियम्वदा,

    आजकल फिर से कुछ भी लिखने का मन नही करता है। जैसे जैसे त्यौहारों का सरताज नजदीक आता जा रहा है, मन भी थोड़ा दूषित होता जा रहा है। निरुत्साह बढ़ता जा रहा है। अब खर्चा करने का भी मन नही करता। पहले दीवाली आते ही नए कपड़े खरीदना बहुत उत्साही काम लगता था। आज दो जोड़ी खरीदी, लेकिन बेमन से। उतना उत्साह नही था। जूते भी खरीदने थे, लेकिन मिले नहीं। वो जो खरीदारी का उत्साह होना चाहिए, वह नही था। कपड़ो की सिलेक्शन में मुझे पांच मिनिट लगी होगी, पांच मिनिट ट्रायल का, पंद्रहवी मिनिट पर तो मैं भुगतान करके दुकान से बाहर था। 

Rajasthani man in a colorful turban and kurta cleaning solar panels on a rooftop, surrounded by blooming flowerpots and hanging blankets. Minimalistic style with a plain white background.


    सवेरे ऑफिस जाने से पूर्व बाइक धुलवाकर ऑफिस पहुंचा था। कल एक बिल बनाना भूल गया था, उसके कईं फोन आ रहे थे बारबार। तो ऑफिस पहुंचकर पहला काम तो बिल ही बनाया, उसके बाद दिलायरी पब्लिश की। प्रियम्वदा, एक साल हो जाएगा कुछ ही महीनों में इस दिलायरी को। लेकिन सच कहूं तो मन कर रहा है यह सब बंद कर दूं। उत्साह उतर गया है ऐसा नही है। समय की तंगी अनुभव कर रहा हूँ। ना ही शब्दो मे आभा आ रही है, ना ही वाक्यों में कोई रस। बस सीधा सीधा नीरस वाक्य उतर आता है। यह नही सोचा था मैंने। इच्छा तो मेरी भी यही थी, कि दिलायरी में कल्पनाएं न उतरे। यह सीधी सादी दिनचर्या हो। लेकिन समय की तंगी के चलते, दिलायरी दिनचर्या के अलावा और भी विषयों को आवरित करने लगी।


ऑफिस, पगार और बढ़ती महंगाई

    आज तो ऑफिस से लौटा ही पांच बजे था। मिल चालू थी। पगार भी आज हाथ मे आयी, जिसमे ७५ प्रतिशत तो खर्च भी हो गयी। महंगाई डायन वास्तविक है प्रियम्वदा। सारी ही जरूरत का ही सामान लिया है। एक भी फालतू नहीं। अरे हाँ! खर्चे से याद आया। मैंने दो बुक और आर्डर कर दी। गुजराती है, और एक पर एक फ्री भी है। देखते है, कब तक आती है। यह बुक भी मैंने पब्लिकेशन की साइट से आर्डर की है। और इस बार भी पेमेंट करने के बाद मुझे कोई रिसिप्ट या आर्डर नंबर भी नही मिला। अब मैं सोचता हूँ, कि मुझे अगर आर्डर नही मिला, तो मैं कंप्लेन कैसे करूँगा..! मुअनजोदड़ो के साथ भी यही हुआ था। वह भी मैंने प्रकाशक की साइट पर से ऑर्डर की थी, और मुझे कोई भी रिसिप्ट नही मिली थी।


सर्दियों की आहट और माँ की गुदड़ी

    आज सवेरे उठते ही माताजी ने परेड लगवा दी थी। दीवाली की साफ सफाई ने आज सवेरे की नींद हराम की है मेरी। मस्त सोया हुआ था, माताजी ने उठाकर कहा, सोलर साफ कर दे। कितने सालों बाद बगेर ब्रश किये मैंने सबसे पहला काम हाथ मे मोप और बाल्टी लेकर छत पर जाने का किया। सोलर प्लेट्स पर पानी डालकर साफ किया। उसके बाद नीचे उतरा, तब तक माताजी ने उनके जमाने का खजाना खोल रखा था। हिंदी में क्या कहते है उसे पता नही, लेकिन गुजराती में 'गोदडा' कहते है। हिंदी में शायद 'गुदड़ी' कहते होंगे। पहले चारपाई पर बिछाते थे, या ज़मीन पर भी बिछा सकते थे। सर्दियों में ओढ़ने के भी काम आए। अब तो वे मुलायम ब्लेंकेट्स, इन माँ के हाथ से बने गुदड़ी की महत्ता खा गए। 


    घर के जितने पुराने कपड़े होते, उन्हें माँ अपनी पुरानी साड़ी के बीच रखकर सी लेती। गांवो में तो आज भी यही ब्लेंकेट है। मेरी माताजी ने न जाने कितनी गुदड़ी बना रखी है। सवेरे कम से कम छह बार छत पर चढा था। तीस चालिश तो होंगे ही। गुदड़ी में पुराने ही कपड़े भरे होते है, तो मुझे याद आता है, एक बार एक गुदड़ी में मुझे कुछ चुभा था, पता करने पर पता चला, गुदड़ी के अंदर बूमर च्युइंगगम थी। पहले एक बूमर नाम से च्युइंगगम आता था, मुझे बड़ा पसंद था। मैंने खूब चबाया है। किसी पेंट की जेब मे रह गया होगा। और पेंट इस गुदड़ी के भीतर सील गयी होगी। हमने खूब ठहाके लगाए थे। सालभर तो यह गुदड़ियाँ पड़ी रहती है, पलंग के तहखाने में। दिवाली पर उन्हें धूप में तपाया जाता है। गद्दे से लेकर गुदड़ी तक.. आजकल हर किसी की छत पर कुछ न कुछ तप रहा होता है।


दिलबाग की खामोशी और झरते फूल

    आजकल दिलबाग में भी नही जाता हूँ। ऑफिस की भागदौड़ सवेरे से मेरे मन को कब्जा लेती है। लेकिन सवेरे सोलर धोते हुए गेंदे के खिले फूल दिखे थे। सबसे ज्यादा फूल तो मधुमालती में आतें है। झुमखा लगता है पूरा फूलों का। शाम को बाजार घूमते हुए, खरीदारी करते हुए बाजार में दीवाली की भीड़ बहुत ज्यादा दिखी थी। फिर भी जिसे पूछिए, कहता है त्यौहारों में वह पहले वाली बात नही.. जैसे मैंने शुरुआत में कहा था, मेरा मन निरुत्साह रहता है, वैसा ही शायद सबका है। फिर सोचता हूँ, उनके मन का क्या हाल होगा, जो घर से दूर पड़े हो। जैसे कोई विद्यार्थी, या कोई नौकरी करता हुआ व्यक्ति, या कोई फौजी.. वे भी तो घर से कितने दूर पड़े है.. उनके मन पर कितना ही उत्साह कुचल देने वाला बोझ चल रहा होगा...!


बच्चों का त्यौहार, ‘पॉप-पॉप’ और हँसी

    कुँवरुभा भी अब वो उम्र में पहुंच गए है, जहां जिद्द पूरी न होने पर हाथ पैर पटके जाते है। उनकी उम्र अनुसार उनके लिए उपयुक्त पटाखा वह 'पॉप-पॉप' ही है। बड़ी सही आइटम है। ना कोई धूम-धड़ाम, ना कोई आगजनी। बस जमीन पर पटकते ही पट्ट से आवाज आती है। एक और पटाखा उनका फेवरिट है। नाम तो पता नही, लेकिन बच्चे इसे बीड़ी बम या माचिस बम बोलते है। माचिस के बॉक्स जैसे पैकिंग में एक कुपोषित पटाखा होता है। माचिस की ही तरह उस बॉक्स के साइड में स्ट्रिप बनी होती है। जैसे तीली घिसते है, वैसे ही इस पटाखे को घिसने से जल उठता है, और बस फेंक दो..! बिल्कुल छोटा सा धमाका होता है। बच्चे बड़े खुश होते है। पिछली बार पॉप-पॉप का पूरा बॉक्स लाया था, इस बार भी उनकी डिमांड थी, कि पोपोप दिलाया जाए। लेकिन मैं मार्किट से लौटते हुए भूल गया। साहबज़ादे ने पूरा घर उठा लिया रो-रोकर।


गरबी चौक, पीपल और जीवन की स्थिरता

    गरबी चौक में दो घण्टे बैठा रहा लगभग। बिल्कुल शांत वातावरण है, कहीं कहीं इस शांति को भंग करता हुआ, किसी पटाखे की आवाज से यह तीन तरफ से बंद चौक गूंज उठता है। बीचोबीच खड़ा यह तपस्वी सा पीपल, अब वॉलीबॉल के खिलाड़ियों के लिए कांटा है। मैदान के बीचोबीच होने से किसी भी तरफ से वॉलीबॉल का कोर्ट बन नही पा रहा है। जहां हमने बनाया है, वहां सबसे बड़ी समस्या यही है, कि बॉल थोड़ा जोर से मारने पर दीवाल से बाहर चली जाती है रोड पर। दीवार फांदकर बॉल लेने बारबार कौन जाए? और बॉल लेने जाए उतनी देर में कोई बॉल लेकर चला जाए तो? इस तरह की समस्याओं का कारणभूत वह पीपल सालों से खड़ा है, इस कारण से हम कोई उसे हटाने का विचारभर ही करते है। वास्तव में हटाने का मन नही करता है। दूसरी गंभीर समस्या यह भी है, कि इस पीपल को स्त्रियों ने पूज लिया है। अब इसे हटाते है, तो स्त्रियों का विरोध भी सहन करना पड़ेगा। 


    जितना पुराना होगा, उतना मजबूत होगा.. यही सिद्धांत इस पीपल का भी है। अब यह इतना बड़ा हो चुका है, कि किसी पर गिरे तो भी उसका जीव हर ले। ऊंचाई में करीब तीस-चालीस फ़ीट के आसपास होगा। तना अब कोई बांहों में नही भर सकता, उतना मोटा हो चुका है। हमारे साथ साथ ही बड़ा हुआ है। रात को हवाओं के साथ इसके पत्ते फरफराते है, तब तो लगता है जैसे यह जीवित हो उठा है। अंधेरी रातों में डरावना भी लगता है। 


पत्ते के उस बिच से मूड जाते फोन से खींची गयी पीपल की तस्वीर। 


    शुभरात्रि

    १२/१०/२०२५

|| अस्तु ||


प्रिय पाठक !

कभी त्यौहार आते हैं,
पर मन का दीपक बुझा-सा रहता है...
क्या आपके भीतर भी इस बार दीवाली कुछ फीकी लग रही है?
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जो हर सर्दी में गरमाहट दे जाती है?

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