जब काम नहीं होता, तो कुछ भी सही नहीं लगता
प्रियम्वदा !
जब काम नहीं होता है, तो बिलकुल ही नहीं होता है। या होता भी है, तो उतना इम्पोर्टेन्ट नहीं होता है। उसे टाला जा सकता है। और जिन्हे टाला जा सकता हो, वे काम अक्सर जब काम का बोझ अधिक होता है, तब करने अनिवार्य बन जाते है। तुम्हे पता है? कईं बार ऐसा भी होता है, कि हम कुछ बातों को इतना ज्यादा महत्व दे देते है, जिन्हे हम नकारते थे कभी। जैसे कि नज़र का लगना। यह नज़र लगना वाली बात मैं नकारता हूँ। लेकिन कोई मानता है, तो उसे रोकता भी नहीं हूँ।
रोज़ के काम और कभी-कभार के झंझट
आज सवेरे सवेरे किसी बात को लेकर बहस हो गयी थी। और मैं थोड़ा गुस्से में घर से निकला था। रूट मेरा फिक्स्ड ही है। पहले जगन्नाथ, फिर दुकान, और फिर ऑफिस। काम आजकल कम है, सिर्फ वे ही काम है, जो मैं पहले रेगुलर करता था। जो काम हम हररोज करते है, उस काम में हमें देर नहीं लगती, क्योंकि हमें पता होता है, कब क्या जरुरत पड़ेगी। समस्या उनमे होती है, जो काम हमें करने होते है कभी कभी। वहां ज्यादा समय लगता है, क्योंकि उनकी प्रैक्टिस कम होती है।
दिन की थकान और सोच का बोझ
दोपहर को भारी सोच विचार के पश्चात मार्किट जाना मैंने तय किया। काम तो कुछ भी नहीं था, बस एक कार का फ्रंट का वाईपर चेंज करवाना था। और कार के पीछे लगा हुआ लोगो चेंज करवाना था.. मैं भी उन लोगो में शामिल हूँ, जो कार के पीछे अपनी पहचान छपवाते है। जाती सूचक, या ईश्वर को समर्पित कुछ शब्द मैं भी अपनी कार लिखवा चूका हूँ। इसे मैं इस कारण भी जरुरी समझता हूँ, ताकि कुछ सामाजिक प्रश्नो की उत्पत्ति ही न हो।
मैंने अपनी कार पर कोट ऑफ़ आर्म्स का लोगो लगवाया हुआ था। पहले के समय पर प्रत्येक राजाओं के अपने चिन्ह होते थे। हमारे वंश का भी एक चिन्ह है, जो बहुत बाद में बना है। तो वह मैंने रेडियम वाले से बनवाकर कार के पीछे लगवाया था। लगभग पांच छह साल हो गए। तो आज उसे हटवा दिया। और बस एक शब्द लिखवाया है। वह यहाँ लिखूंगा, तो पहचान पकड़ में आ जाएगी। दोपहर को पहले घर गया, बाइक वहां छोड़ी, कार उठायी, और चल पड़ा मार्किट।
पहले तो गया कूरियर वाले के वहां, पार्सल आया था मेरे नाम से वह लिया। अरे वो तो मैंने अभी तक खोलकर नहीं देखा है। शायद बुक होनी चाहिए, जो मैंने एक-दो दिन पहले आर्डर की थी। पार्सल का साइज तो बुक जितना ही है। घर जाकर देखेंगे.. फिर चल पड़ा कार सर्विस वाले के यहाँ, वाईपर लगवाए। और फिर चल पड़ा रेडियम वाले के वहां। जाना तो नाइ के पास भी था। लेकिन तीन बज गए थे। लंच टाइम पूरा हो चूका था, तो ऑफिस लौट आया। एक मुझे चाहिए था वह कार चार्जर भी नहीं मिला। आजकल C पोर्ट चलते है फ़ोन चार्जिंग के लिए। तो चार्जर भी C पोर्ट वाले चाहिए।
जब पुष्पा ने कहा, ट्रिप पर नज़र लग गई थी
मैंने इस पोस्ट की शुरुआत में कहा था, कुछ बातें हम नहीं मानते है वे भी मानने लगते है। वह बात थी इस ट्रिप की। अभी तक मैं तो पूर्ण विश्वास में नहीं हूँ, कि यह ट्रिप होगी। पिछला प्लान पैसे के चक्कर में ड्राप हुआ है। हमारा तीसरा सहयात्री भाग में आती रकम से डर गया। उस ट्रिप में करीब अठारह हजार भाग में आने थे। इस वाली में भी दस हजार तो लग जाएंगे। हाँ ! तो बात ऐसी थी, कि पुष्पा का ऐसा मानना है, कि हमारे उस ट्रिप प्लान को किसी की नज़र लग गयी है। तभी वह ट्रिप कैंसिल करनी पड़ी।
मैं तो यह नहीं मानता हूँ, लेकिन वह कह रहा है, इस लिए अस्वीकार भी नहीं कर रहा हूँ। पुष्पा का कहना है, कि हमने इस ट्रिप के बारे में हर किसी से बहुत ज्यादा बात की थी। बस उनमे से किसी की नज़र लग गयी। और इसी कारण से इस प्लान बी वाली ट्रिप के विषय में अभी तक किसी से कुछ भी कहा नहीं है। शायद मैंने अपने पिछले किसी ब्लॉग में बता दिया हो तो मुझे याद नहीं है। और यह ट्रिप हो जाने के बाद ही अब इस विषय पर मैं कुछ कहूंगा। मुझे इस पर बात करने में और कोई हर्ज़ नहीं है, लेकिन पुष्पा की वह नज़र लगने वाली बात, मेरे भी दिमाग में घर कर गयी है।
आजकल मेरा दिमाग और भी कईं जिम्मेदारियों से परेशां है। आजकल सरदर्द भी होने लगा है। मैं तो मानता हूँ कि इस सरदर्द का कारण यह मौसम है। दिनभर तो पसीना बहे ऐसी धूप और गर्मी पड़ती है। लेकिन रात होते ही ठंड का पारा चढ़ जाता है। यह दोहरा मौसम अच्छे अच्छों को बीमार कर दे। नींद भी बहुत आती है। फ़िलहाल भी नींद आँखों को घेरने लगी है, और समय हुआ है बस साढ़े सात।
कुछ लोग, जो समझ नहीं आते
प्रियम्वदा, कुछ लोग मुझे समझ नहीं आते। वे लोग मुँहफट होते है। वे नजरें कैसे मिला लेते होंगे। कल झगड़ा किया होता है, लेकिन आज कुछ भी नहीं। उन्हें कौनसी केटेगरी में गिना जाए? मुझे तो वे लोग भी समझ नहीं आते जो पुरुष होते हुए, स्त्रियों की बातों में भी लड़ने लगते है। स्त्रियों का कभी भरोसा नहीं होता मुझे.. क्योंकि यह बहुत विषादपूर्ण रोना जानती है। हृदय द्रवित कर जाती है। त्रिया चरित में कुछ कमजोर हृदय के पुरुष ग़ुलामी स्वीकार लेते है। और वह पुरुष बड़ा ही खतरनाक हो सकता है, स्त्री के वश में हो। उस पुरुष को समझना उतना ही कठिन है, जितना त्रिया चरित आजमाती स्त्री को।
विवाह के बाद बदलती समझ
मैं अपनी बात करूँ तो, मुझे दया आती है, उन पुरुषों पर। जो स्त्री के कहे अनुसार चलते है। बुराई नहीं है, स्त्री का विचार जानना आवश्यक है। लेकिन स्त्री के कहे अनुसार चलने से नुकसान ज्यादा होता है.. स्त्रियां भी पुरुषों को बहुत सारी समझ देती है। जैसे कि, पहले एक पुरुष के लिए उसकी माँ सबसे भली स्त्री हुआ करती थी। लेकिन शादी के बाद उस पुरुष को पता चलता है, कि उसकी माँ कितनी बुरी है।
शादी के बाद पुरुष को बहुत सी और बातें सीखने को मिलती है। जो रिश्तेदार उससे ममत्व रखते थे, वे उतने अच्छे नहीं है, जितने उसकी पत्नी के रिश्तेदार अच्छे है। शादी के बाद, या स्त्री के संपर्क में बाद पुरुष को समझ आता है, कि उसे तो कोई चीज पसंद करनी आती ही नहीं है.. जबकि उस स्त्री को तो उस पुरुष ने ही पसंद किया होता है। शादी के बाद पता चलता है, भोजन के स्वाद के विषय में। शादी के बाद पता चलता है, पुरुष को नहाने के लिए पांच-दस मिनिट ही लगते है वह गलत है, ज्यादा समय लगना चाहिए।
है, ऐसी बहुत सी बातें है, जो स्त्री के संपर्क में आने के बाद पुरुष सीखता है। बस यह सीखा हुआ ज्ञान उसे कितना लाभदायी है, कम से कम यह समझ एक पुरुष में होनी चाहिए। लेकिन वह पुरुष द्रवित हो उठता है, जब स्त्री के गाल से रिस्ता हुआ पानी उसके गालों को भिगो रहा होता है। उस समय सिर्फ उस स्त्री के गाल नहीं भीग रहे होते है, पुरुष की समझ भी भीग चुकी होती है। वह अपनी निर्णयशक्तियों को स्त्री के गालों से बहते हुए पानी में बहा देता है। और अपना वशीकरण करवा लेता है।
स्त्री की मुस्कान और पुरुष की विवशता
फिर वह किसी की नहीं सुनता। वह यंत्रवत उन आदेशों का पालन करता है। जो उसे स्त्री देती है.. अपनी एक कुटिल मुस्कान के साथ। वह स्त्री राज करना चाहती है। और बेशक करती है। पुरुष का बाहुबल उसे वह सब कुछ देता है, जो उस स्त्री की कामना में हो।
समाज और महाभारत की झलक में रिश्तों की राजनीति
अरे आज यह मैंने कौनसी दिलावर-निति के अध्याय खोल लिए? यह मैंने पूरा पढ़ा.. कितना एक तरफी लिखा है सब। लेकिन सच भी है। समाज में कहीं न कहीं यह सब कुछ चल रहा है। लोग इसके शिकार होते है। यह दावपेंच में बहुत सारी तबाही होती है। कुछ सहते है, कुछ आज़माते है। लेकिन सदियों से यह निति आज पर्यन्त समाज में दिखती ही है। महाभारत में द्रौपदी के सामने जब यह बात आयी थी, कि पांडव महाभारत नहीं चाहते है, तब उसने अपने आंसुओ के साथ उन सभी पांडवों को अपनी शपथ याद दिलाई थी। और भी भाइयों ने भाइयों को काट दिया था।
शुभरात्रि।
१४/१०/२०२५
|| अस्तु ||
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