मुझे चीज़ें खरीदनी नहीं आतीं
प्रियम्वदा !
बात तो सही है। मुझे चीजें खरीदनी नहीं आती है। मतलब मुझे जो पसंद आता है, वह दूसरे लोग नापसंद कर चुके होते है। पता नहीं ऐसा क्यों है। बड़ी जद्दोजहद के बाद मैंने एक जूते पसंद किए थे। मुझे पसंद आए, तो पत्ता बोला, बेकार है, लेबर जैसे है। दोपहर को पूरी मार्किट नाप आया। कहीं कोई पसंद नहीं आया। आखिरकार एक जूते ऑनलाइन पसंद आए, तो उसके लिए बना हुआ मूड पत्ते ने बिगाड़ दिया। वैसे होता तो यही है, कि राजा को पसंद आए वही पटरानी। लेकिन मेरी पसंदगी के स्तर पर अब मुझे ही शंका है। होनी तो नहीं चाहिए।
रात की वॉलीबॉल और थके हुए तलवे
कल रात पौने बारह बजे तक वॉलीबॉल खेल रहे थे। पैरों के तलवे बस टूटने को ही बाकी थे। अभी तक हाथों की कलाइयों में हल्का दर्द है। दो बार वॉलीबॉल ने हाथ के अंगूठों को मोड़ दिया, वे भी दर्द करते है। लेकिन खेल काफी मजेदार है। मेरी तो इच्छा और भी खेलने की थी। लेकिन बारह बजने को थे, इसी चक्कर में खेल रोक दिया। हमारे यह लड़के लोग भी बड़े अजीब है। नहीं आते थे तो नहीं आते थे, और आए तो एकसाथ सारे ही आ धमके। उनकी इस अनियमितता के चलते कल तो पत्ता बैडमिंटन भी ले आया था। हमने तय किया था कि आज लड़के लोग नहीं आए तो बैडमिंटन खेलेंगे।
सुबह की देरी और मार्केट का सफ़र
सवेरे इसी कारण वश आज आठ बजे उठा। और ऑफिस पहुँचते पहुँचते साढ़े नौ बज गए थे। शुकर है, मैंने कल दिलायरी जल्दी लिखकर शिड्यूल कर दी थी। आज तो वैसे कुछ भी ख़ास काम था नहीं, तो बस जूते लेने के लिए मार्किट चल दिया। अभी तो शेविंग वगैरह करवाने में भी समस्या है, नाइ भी दिवाली मांगेगा। मुझे तो यह समझ नहीं आता, मुझे खुद को जितनी दिवाली नहीं मिलती, उससे ज्यादा तो मुझे अपनी ओर से बांटनी पड़ जाती है। यह झोल क्या है, आज तक समझ नहीं आया मुझे। मैं पहले जहाँ नौकरी करता था, वहां का सरदार तो और विचित्र था, बोलता था, "दिवाली..? वो तो हर साल आती है, उसमे क्या लेना-देना?" और सच में किसी को एक मिठाई का बॉक्स भी नहीं देता था। फिर भी आज भी लोग उसके पास काम करते है।
दिलबाग में खिला पहला गुलाब
आज सवेरे दिलबाग में चक्कर काटते हुए देखा, तो पाया कि उस नन्हे से गुलाब के पौधे में बड़ा सा गुलाब का फूल खिला था। अभी तो वह पौधा बेंतभर का ही है। फिर भी इतना बढ़िया गुलाब? लेकिन शायद फूल कल का खिला हुआ था। जैसे ही मैंने उसे तोडा तो फूल की सारी पत्तियां अलग होकर बिखर गयी। गमलों की मिट्टी काफी सूख गयी थी, मैं दो दिनों से दिलबाग में गया ही नहीं था। तो सारे पौधों में भरपूर पानी दिया आज। प्रियम्वदा, काफी सालो बाद मेरे घर यह गुलाब खिला है। मजेदार था। वह प्रक्रिया देखनी, कि हररोज थोड़ा थोड़ा वह पौधा विकास करता है, नयीं पत्तियां आती है। एक कली लगती है। फिर कली खुलती है, और फिर खिलती है। धीरे धीरे मुरझाने लगती है। और फिर झड़ जाती है। लेकिन दो दिन बाद फिर नई कली उग आती है।
गेंदा, क्रोटोन और अपराजिता की चाह
गेंदा भी अब तो फूल देने लगा है.. वो तो गजब की हाइट ले चूका है। करीब चार फिट ऊँचा हो चूका है। लेकिन फूल उसमे बढ़िया नहीं आते। कमजोर फूल लगते है। वो भरा मोटा फूल नहीं होता है। गेंदे में भी पौधों की वेरायटी आती है। क्रोटोन और लकी बम्बू तो उतने ही लगते है, जितने मैं लाया था। और वह जेड प्लांट भी। मैं काफी दिनों से बस सोच ही रहा हूँ अपराजिता लाने की। अभी तक ला ही नहीं पाया। वैसे यह दिवाली और ट्रिप के चक्कर में बाकी सब कुछ ध्यान बहार जा रहा है। एक और समस्या भी है, किसी दिन पूरी फेमिली बाहर जाएगी, तब इन पौधों का क्या होगा, यह भी समस्या है।
गुजरात के हडदड गाँव की महापंचायत
चलो थोड़ी समाचार जगत की भी बात बता देता हूँ आज। गुजरात में बोटाद के पास एक गाँव है हडदड। यह आम आदमी पार्टी वाले किसानों का सहारा बनने की फ़िराक़ में थे ही। महापंचायत का आह्वान किया। अपने यहाँ, मतलब की गुजरात में किसानों की कैसी भी स्थिति हो, मुझे याद नहीं आता, कभी किसी किसान ने फरियाद की हो। यहाँ खेती के लिए पानी की समस्या है, मौसम की अनिश्चितता है, फिर भी किसान अपनी रोजीरोटी चुपचाप निकाल लेता है। वह शायद सोचता है कि जितना समय मैं विरोध प्रदर्शनों में लगाऊं, उतनी मेहनत अपनी ज़मीन पर क्यों न करूँ?
जब भीड़ और पुलिस दोनों सही लगते हैं
तो आम आदमी वाले उठे, खतरनाक वाले भाषण किए, मीटिंग तो उन्हें करनी थी यार्ड में, और कर ली हडदड गांव में। भारी भाषण से भीड़ उग्र हो गयी, और पुलिस वालों को दौड़ा दिया। अब पुलिस वालों को दौड़ाने का कारण तो मुझे पता नहीं चला, लेकिन बढ़िया तरीके से दौड़ा दिए। एक पुलिस कार भी पलट दी। बस के शीशे वगैरह फोड़ दिए। अब पुलिस वाले भी तो शांति व्यवस्था बनाने के लिए बदला लेंगे। तो उन्होंने ने गाँव वाले कूट दिए। एक वीडियो देखा मैंने, जिसमे एक घर का गेट तोड़कर सात-आठ पुलिस वाले दाखिल हो गए, बुजुर्ग समेत सबको लाठी से कूटा..! कुछ लोग विडिओ बना रहे थे, उनसे भी कैमरा छीनने की कोशिश की।
वैसे बात पुलिसवालो की भी सही है। जब भीड़ ने पोलिस पर हमला किया था, तब पुलिसवालों के भी मानवाधिकार तो थे ही। अब जब पुलिस प्रत्युत्तर देने की कोशिश करे, तो मानवाधिकार वाले आड़े आ जाते है, विडिओ बनाने लगते है। समस्या अब यह है, कि उन गाँव वालों का कहना यह है, कि पुलिस पर हमला तो महापंचायत में उन बाहर से आए लोगों ने किया था, गाँव वालों का कोई लेना-देना ही नहीं है। और अब पुलिस ने गाँव वालों को पकड़ लिया है। वह महापंचायत की सभा भी गाँव की मंजूरी के बिना हुई थी। भारी विचित्र मामला है। पुलिसवालों ने भी बेरहमी से कूटा है। उस दिन पुलिसवालों को भी यह कथित किसानों से बेहरमी से दौड़ाया था। महिला पुलिस भागती हुई कितनी विचित्र लगती है..?
हप्ता, दिवाली और सिस्टम का प्यार
खेर, समस्या तो सबको होती है, सबको हप्ते की फ़िक्र होती है। किसी को लोन का हप्ता चुकाना है, तो किसी को वो वाला हप्ता लेना है। जैसे यह दिवाली मांगते है, लगता तो ऐसा ही है कि हप्ता ही मांग रहे है। देना पड़ता है। क्योंकि सत्ता के आगे शाणा नहीं बनना चाहिए। उनके पास नियमावली होती है, ऐसे ऐसे नियम होते है, कि कोई न कोई तो हम भंग कर ही रहे होते है। यदि कोई भी धंधादारी आदमी सौ प्रतिशत नियमों के अनुसार चले यदि, तो काम हो ही नहीं सकता। नियम ही ऐसे है। जैसे हमारे यहाँ एक सिस्टम है। उस सिस्टम के अनुसार यदि व्यापार करना पड़े, तो एक गाडी को एक दिन लगे परमिशन के चक्करों में। इसी चक्रव्यूह का तोड़ भी साहबों ने ही दिया। उन्हें एक निश्चित प्यार भेज देना पड़ता है। प्यार से ही सबकुछ चलता है।
और हाँ, मुझे पता है...
अब तुम्हे लगेगा की यह आदमी फिर से प्रेम के विषय पर आने वाला है..! है न? नहीं आऊंगा.. आज तो बिलकुल ही नहीं। अरे यार प्रेम पर लिखने के लिए या तो शांत मन होना चाहिए, या फिर क्रोधित। आज दोनों ही नहीं है। आज दिमाग में भागदौड़ मची है। काफी सारी है, जिन्हे यहाँ उतार नहीं सकता। बताओ, मैं तो अपनी डायरी के प्रति भी ईमानदार नहीं हूँ..! होना भी नहीं चाहिए। ईमानदारी से बस आदमी जी सकता है, तरक्की नहीं कर पाता।
शुभरात्रि।
१५/१०/२०२५
|| अस्तु ||
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