जब कोई किसी की सुनना नहीं चाहता
प्रियम्वदा,
क्या बताऊँ तुम्हे, आज के समय कोई किसी की सुनना ही नही चाहता। भला हो, बुरा हो, कुछ भी। बस मैं कहूँ वही सच है। बाकी सब मैं क्यों सुनूँ? या फिर कुछ लोग ऐसे भी होते है, जिन्हें हर छोटी छोटी बातों में बुरा लग जाता है। किसी ने दो शब्द क्या कह दिए, तुरंत मूंह फुला लेते है। खासकर स्त्रियों में यह लक्षण ज्यादा पाया जाता है, लेकिन कुछ पुरुष भी हो सकते है। वैसे भी पुरुष कहाँ पूर्ण है? पूर्ण पुरुष तो कृष्ण थे, उसके बाद से कोई भी पूर्ण नही है..! खेर, मैं कह रहा था कि कोई किसी की सुनना नही चाहता.. कर्मचारी अपने बॉस की नही सुनता, पत्नी अपने पति की नही सुनती, बच्चे अपने बाप की नही सुनते, और अधिकारी कम्प्लेन नही सुनते.. शायद हर कोई बहरा हो चुका है। गुजराती में रिढा कहते है.. कुछ कुछ पथ्थर जैसा आदमी, जिसे कोई कुछ भी कहे, फर्क नही पड़ता।
प्रतिक्रियाओं की श्रृंखला : हर क्रिया की अपनी गूंज
कईं बार ऐसा भी होता है, कि हमें एक्शन का रिएक्शन देखने नही मिलता। हम सोच लेते है, कि यहाँ से आगे श्रृंखला नही बनी। लेकिन हकीकत में वहां से एक प्रतिक्रियाओं की श्रृंखला (चैन ऑफ रिएक्शन) शुरू हो चुकी होती है। बस हम तक उस श्रृंखला का सिरा आते आते देर लग जाती है। वह इतनी धीरी प्रक्रिया होती है, कि हम समझ नही पाते। और उसे ही सिरा समझकर भूल जाते है। ऐसा कुछ भी नही है, कोई भी क्रिया नही है, जिसकी प्रतिक्रिया न हो, प्रतिक्रियाओं की श्रृंखला न हो। तुमने आज किसी से कुछ कहा है, तो जरूरी नही है कि अगला तुम्हे आज ही प्रत्युत्तर देगा। दो दिन बाद प्रत्युत्तर दे, महीने बाद, साल बाद, या मृत्यु के पश्चात कोई वारिश प्रत्युत्तर सुने.. यह श्रृंखलाएं कभी बीच से टूटती नहीं। अगर टूट जाए तब भी वहां से अलग श्रृंखला निर्माण हो जाती है।
जिम्मेदारियों की कैद : भागो तो और उलझो
प्रियम्वदा, मैं कईं बार कुछ जिम्मेदारियों से भागना चाहता हूँ। लेकिन मैं जितना भागता हूँ, उतना जल्दी शिकंजे में कैद हो जाता हूँ। इस क़ैद से शायद कोई भी मुक्त नही है। शायद इसी लिए जिम्मेदारियां वज़नी मानी जाती है। यहां जवाबदेही बनती है। प्रत्येक कदम पर कईं सारी श्रृंखलाओं का आरंभ होता है। और कौनसे कदम पर कितनी मुक्ति मिलती है, यह गणित सटीक बैठना चाहिए। हम कईं बार यहां धोखा खा जाते है, किसी अवगणना या कोई नजरअंदाजी चोट कर जाती है। जिम्मेदारियां उनपर अधिक होती है, जो मजबूत ज्यादा होते है। मानसिक मजबूती और सहने की कला, यही दोनों हथियार काम आते है। यहां भागने से उलटा जल्दी थक जाते है, कंधे पर पचीस किलो की बोरी रखकर दौड़ना, और खाली हाथो दौड़ने में बहुत फर्क होता है। रिश्तों में भी वजन होता है, और लगभग सारे ही रिश्ते हमें जीवनभर निभाने होते है।
रिश्तों का वजन और जवाबदेही
ओहो, यहां बात रिश्तों की न थी। रिश्ते भी एक रूपक है, उदाहरण है। सवेरे ऑफिस पहुंचने से पूर्व, आज भी काफी दौड़ थी, छत पर सामान चढ़ाने की। आज कईं सारे तकिये थे। लगभग पचीस तीस तकिये होंगे। यह सब पहले रखने की जरूरत होती थी। क्योंकि गांवों की तरफ आज भी कईं बार, एक साथ कईं महेमान आ धमकते है। शहरों में तो साल में कोई एकाध व्यक्ति आ जाए। और मैं तो बसा भी अपने सारे रिश्तेदारों से लगभग चारसौ किलोमीटर पर हूँ। दोपहर को मार्किट में काम था। कल कुछ सामान छूट गए थे, आज लेने जाना पड़ा। एक तो मेरे कपड़े ही अल्टरिंग में दिए थे, वे तो ले लिए। अब जूते फिर भी बाकी रह गए। एक तो मेरी आदत गंदी है, एन मौके पर निकलता हूँ। प्यास लगे तब पानी खोजता हूँ।
शहर, जूते और जीवन की छोटी-छोटी बातें
दो-तीन दुकान में तो नही मिले। सोचा ऑनलाइन जिंदाबाद.. एक जूते पसंद आए, लेकिन वह दीवाली के बाद डिलीवरी देगा..! शहर में अच्छे अच्छे मॉल है, लेकिन मेरा शहर पता नही कौनसे रहिशो का बसाया हुआ है, बड़ा महंगा है। और अब मैं ज्यादा महंगी चीज खरीदने से परहेज भी करता हूँ। एक बार लिए थे, ब्रांडेड शूज..! वुडलैंड के। पता नही कौनसा बेस मटेरिअल यूज़ करते है यह लोग.. वे जूते टूटते ही नही थे। मैंने करीब दो साल उसे रेगुलर बेसिस पर पहना। न तो उसका सोल निकला कभी, न कभी कोई धागे खुले उसके। उस समय पर तो मैं ज्यादा भागदौड़ वाला काम करता था। दिनमे दसियों बार जूते उतारो और पहनो टाइप.. फिर भी नही टूटे..! आखिरकार उस जूते में से एक जूता कुत्ता ले गया। तब तो मैंने राजीखुशी से उस जूते को फेंका था। वो बात सच है, महंगा रोए एक बार, सस्ता रोए बार बार.. फिलहाल यही हाल है मेरे। अब मैं सस्ते वाले छह छह महीने में जूते ले आता हूँ.. लेकिन इस बार धोखा हो गया। इस बार अच्छे मिल नही रहे।
दिन का अंत और संतुलन की तलाश
शाम को फिर से कुछ जिम्मेदारियों में उलझना पड़ा। निभानी पड़ती है। जवाबदेही बनती है। कईं बार बड़े होने का फर्ज आन पड़ता है। सीखते सीखते कभी कुछ सीखाना भी पड़ता है। बहुत बार ऐसा होता है, कि हम इतने ज्यादा घुलमिल जाते है, कि एक दूसरे का रंग हम पर चढ़ जाता है। हम अपने आप को भूल कर, या हम अपनी ज़िद्द में बहुत कुछ बिगाड़ लेते है। या कईं बार ऐसा भी होता है, कि हमे फिर फिक्र नही रहती, जो होगा वह लड़ लिया जाएगा..! तुम्हे पता है प्रियम्वदा, संतुलन बनाए रखना आ जाए, तो कितनी सारी समस्याओं का निर्माण ही नही होता है। हम यह संतुलन टिका नही पाते है, और समस्याओं से लिपट जाते है। मैं खुद भी उन्ही लोगो मे शामिल हूँ, जो बहुत जल्द अपना आपा खो देते है। किसी की सुनना नही चाहते है। बस आदेश देना जानते है, कि ऐसा ही होना चाहिए जैसा मैंने कहा है। मैं भी कईं बार अपनी ऑफिस पर लोगों से यंत्रवत काम लेता हूँ। लेकिन यह बहुत कम बार होता है।
आज विचार था, वॉलीबॉल के बदले बैडमिंटन खेला जाए। पत्ते का तीन चार बार फोन आया। वो भी आइटम है, उसे भी अपनी कही पर अमल चाहिए। अगले का इंटरेस्ट क्या है, उसे मतलब नही होता। बोला, 'डिकेथलोन के दो रैकेट और शटल है। लगभग साढ़े नौ सौ के।' जब उसे बेरहम होकर समझाया, कि मैं एक रुपया नही दूंगा, तब जाकर उसने वह लेने की इच्छा त्याग दी। फिलहाल शांति से मैदान में बैठा हूँ। ठंडने अपने पैर पसार लिए है। अजरख से मैने अपने कान ढंके है, लेकिन नाक से श्वसन प्रक्रिया में ठंड अनुभव हो रही है। पूरे मैदान में एक अजीब सी शांति है, या वातावरण में ही एक शांति छा गयी है। बस यह शांति को चीरने का जिम्मा झिंगुरो के ही पास है।
आज इतना ही, बाकी कल सोचेंगे।
शुभरात्रि।
१३/१०/२०२५
|| अस्तु ||
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