नींद से पहले आने वाले विचार | काश की कश्ती और मन की यात्रा || दिलायरी : 11/10/2025

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दिन की व्यस्तता और थकान

    प्रियम्वदा,

    क्या करें? आज तो कुछ सूझ नही रहा। और यह होना तय ही था, क्योंकि दोपहर के बाद से ऐसी व्यस्तताओं ने घेर लिया था, कि आज तो एक काम भी छूट गया था। कुँवरुभा के स्कूल में कल से दीवाली वेकेशन्स है, और आज आखरी दिन था। स्कूल वालो ने रामायण का छोटा सा नाटक रखा था। उस अनुसार प्रतिभागी बालकों को पात्र अनुसार वस्त्रादि धारण करने थे। कुँवरुभा ने तो भाग नही लिया था, लेकिन फिर भी बोले, "हनुमान बनूँगा।" सवेरे सवेरे उन्हें तैयार किया, खुद को आयने में देखा, और बोले, "कुछ शर्ट या टी-शर्ट तो पहनाओ.. ऐसे स्कूल कैसे जाऊं?" बड़ी मेहनत लगी उन्हें यह समझाने में, कि हनुमान जी शर्ट नही पहनते थे। मुझे गले तक विश्वास था, कि कुँवरुभा नही जा पाएंगे ऐसे। क्योंकि मैं आज भी शर्ट के बगैर छत पर भी नही जाता हूँ। 


रात की निस्तब्धता में विचारों में डूबा व्यक्ति, सिरहाने रखी डायरी और धीमी जलती लैंप की रोशनी में आत्ममंथन करता हुआ।

नींद और विचारों का रिश्ता

    मैं ऑफिस पहुंचा तब तक साढ़े नौ बज गए थे। दिलायरी कल की बाकी थी, पहले वो लिखनी शुरू की, लगभग बारह बजे तक लिख कर पब्लिश कर दी। अब तो मोबाइल भी सिर्फ कुछ मिनिटों के लिए चला पाता हूँ। बाकी दिन कब कामों में सरक जाता है, सुध नही रहती। नींद भी आ रही है, और यह लिखना भी बाकी है.. कैसे होगा? चौबीस में से ७-८ घण्टे, यह सो जाने वाला सिस्टम कितना सही है, है ना? क्या होता अगर नींद नाम की चीज ही नही होती? नींद निर्भर है थकान पर। जितने ज्यादा थके हो उतनी गहरी और ज्यादा नींद आती है। अक्सर सोने से पूर्व कुछ विचार दिमाग मे घूमने लगते है..! 


दिनभर का मंथन

    पहला विचार तो आज के दिनभर में हुई उथलपुथल का रहता है। क्या अच्छा हुआ, क्या कुछ छूट गया, क्या हो सकता था, और क्या कमी रह गयी। दिनमे एकाध वाकिया ऐसा हो ही जाता है, जहां हम कुछ बोल न पाए हो। वह सारा प्रसंग इस समय आंखों के आगे तैरने लगता है। और उस प्रसंग में हमारा कौनसा सटीक डायलॉग छूट गया था, वह यहां स्पष्ट और दृढ़ उच्चारण के साथ प्रवाहित किया जाता है। धीरे धीरे वह उग्र बहश शांत होने लगती है। अपने अहम को पोषित करने के पश्चात, मन धीरे धीरे उस नाट्यात्मक प्रसंग से विमुख होने लगता है। किसी नए विचार की ओर अग्रसर होते हुए, अब मन काश की कश्ती में चढ़ बैठता है। यह काश की कश्ती में छेद होता है, लेकिन कुछ दूर तक तो ले ही जाती है। काश की कश्ती में भी हम अकेले नही होते कईं बार। हमारे साथ कोई न कोई जरूर होता है।


काश की कश्ती

    काश वाले ख्याल बिना बताए आते है, नींद के पुराने साथी है, और तकिये पर अपनी जगह बना लेते है। काश उसे कह दिया होता.. काश उसने हाँ कह दी होती.. काश मैने उससे कुछ कहा ही नही होता.. काश मेरे पास यह होता, काश मेरे पास वो होता.. वगेरह वगेरह.. काश के साथ बहुत कुछ जुड़ा हुआ होता है। काश वाले ख्वाब मन को काफी देर तक बांधे रखते है। लेकिन आखिरकार काश की कश्ती बीच प्रवाह में जाकर डूबने लगती है। क्योंकि बीता हुआ काश कभी लौटता कहाँ है? ना ही कभी ख्वाब सच होते है, ना ही काश.. और समय बीत जाने पर कोई कितनी ही सहूलतें दे, वे कोई उपयोगी नही होती। काश की चहलकदमी कुछ ऐसी ही है। वह बस कुछ देर बहला सकती है, कुछ देर थके हुए को और थका सकती है, मन को दौड़ाकर यहां से वहां, थकान बढ़ती और नींद घेरने लगती है। 


यादें और चेहरे

    हालाँकि अब भी, यादें बाकी रह जाती है अपनी उपस्थिति दर्ज कराने आ धमकती है। कुछ चहेरे, जिन्हे दिनभर में याद नहीं किया था, लेकिन दिल भुला भी नहीं था..! वे हाजिर होकर कुछ बातें बतातें है.. वह काश वाली डूब चुकी कश्ती फिर से तैरने लगती है। आँखों के आगे रात का अँधेरा होने के बावजूद सारे ही चित्र स्पष्ट और प्रकाशित से मालुम होते है। कुछ वे चेहरे भी आ जाते है, जिन्हे नहीं देखना चाहते थे.. उनकी भी बातें सुननी पड़ती है। यह भी कुछ देर चलता है। धीरे धीरे मन फिर से मक्कम होने लगता है। और किन्ही ख्यालों की ओर ले जाता है। 


आत्ममंथन की घड़ी

    लेकिन अब आँखों के परदे भारी होने लगते है। यहाँ गंभीरता आ बस्ती है। गंभीरता का भार ज्यादा ही होता है। सवालों की छड़ी बरसती है। "क्या मैं सही रास्ते पर हूँ? वो बात कब पूरी होगी जिसके लिए मैं महेनत कर रहा हूँ। या मेरा वो ख्वाब कब हकीकत में उतरेगा..?" यहाँ एक गंभीर समीक्षा होती है। अपने कार्यो का मुआयना होता है, खुद ही जज बनकर सारे हालातों का जायजा लेते है। खुद के छोटे से छोटे कार्य की भी गहरी जांच पड़ताल के बाद, उसमे और अधिक क्या बहेतर हो सकता था, उस बारे में सोच-विचारों का दौर चलता है। 


स्वयं से संवाद

    हालाँकि यहाँ से मन जल्द ही उन ख्यालों में दौड़ लगा देता है, जहाँ खुद से जुडी बातें ज्यादा होती है। "आज मैं कैसा था से लेकर, आज मैंने यह गलत किया तक.." यहाँ गलतियों का बोझ ज्यादा होता है। क्षोभ का स्तर बहुत ऊँचा। स्वयं को लेकर ईमानदारी की अति। स्वार्थ कम होता है। यहाँ हम खुद को निष्पक्ष रखकर सोचने लगते है, स्वयं की गलतियों पर फटकार बरसाते है। पश्चाताप अनुभव होता है। लेकिन यह भी क्षणिक रहता है। क्योंकि बाकी का समय मन हमें यह समझा रहा होता है, कि सारी ही गलती सिर्फ तुम्हारी नहीं थी। 


यादों की उड़ान

    अगर अब भी नींद नहीं आयी, तो फिर मन पुराने पिटारे से कोई याद ले आता है। बचपन की हँसी, या कॉलेज की कोई शाम। रात के सन्नाटे में पंख उग आते है। मन उड़ निकलता है, अँधेरे को चीरता हुआ। उसी यादों के सफर पर। जहां मुस्कान ज्यादा होती थी। आनंद था, बेहद था.. आज के मुकाबले अनिश्चितता ज्यादा थी, लेकिन रसप्रद थी। आज की बेड़ियाँ वहां न थी। आज की भागदौड़ से परे कितना सुकून था वहां..! मन को ज्यादा लुभावना लगता है, और धीरे धीरे उन्ही यादों में खोते हुए निंद्रा अपनी आगोश में ले लेती है हमें। 


कल की उम्मीद

    अगर यहाँ तक के सफर में भी नींद न आयी, तो नींद से ठीक पहले के विचार भविष्य के ही होते है। कल क्या करना है, कल का दिन कैसा होना चाहिए, कल अपने सपने के पूरा करने के लिए एक और महेनत, एक और प्रयास करने का निर्धारित करते हुए, उसकी रूपरेखा तय करते करते जरूर से आँख लग जाती है। यह उम्मीद ही होती है, जो कल का दिन हमारे लिए अभी से बचाने लगती है। और इसी कल की उम्मीद में आँखों पर परदे ढल जाते है। नींद आ जाती है। और सपने.. सपने इन्ही सारी बातों का मिश्रण बनकर नींद को भी यादगार बना जाते है। 

    शुभरात्रि। 
    ११/१०/२०२५

|| अस्तु ||


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