समय, संघर्ष और सृजन: एक दिन || दिलायरी : 13/11/2025

0

समय का अपना विधान – एक दिन की दिलायरी

    प्रियम्वदा !

    जब जो काम होना होता है, वह तभी होता है। न उससे पूर्व, न उसके बाद..! आम के पेड़ पर आम आएगा, लेकिन गर्मियों में ही। बाकी सर्दियों में आम की छांया में बैठकर उस वृक्ष की कितनी ही तारीफें कर लो, कितना ही गिड़गिड़ा लो, या कितना ही धमका लो.. फल नहीं आता। फल का समय होगा, अपने आप कली आएगी, विकसित होगी, और फल में रूपांतरित होगा। समय समय की बात है ऐसे ही थोड़े कहा जाता है...


छत पर सोलर प्लेट्स साफ़ करते एक कार्टून-स्टाइल भारतीय लेखक की व्हाइट बैकग्राउंड इलेस्ट्रेशन।

सुबह की गहमागहमी और सोलर प्लेट्स की सफ़ाई

    आज तो साढ़े छह बजे उठा दिया गया। कारण..? सोलर प्लेट्स धोनी है। क्यों? क्योंकि काफी दिनों से धूल जमी है उस पर..! आसपास के कोई भी प्लेट्स साफ़ करते नहीं दीखते। लेकिन मुझे, करनी है, हुकुम का आदेश, लोहे पर लकीर। तो बाल्टी ली, मोप लिया, एक मग.. दे उड़ेल दे उड़ेल करके खूब पानी मारा। और फिर दण्डधारी मोप से सारी प्लेट्स पोंछ दी। वाकई काफी धुल मिटटी चढ़ी थी प्लेट्स पर। अब छत पर आया ही हूँ, तो लगे हाथों दिलबाग को भी देख लिया। बीते कल सिचा हुआ थोड़ा थोड़ा पानी भी अभी तक मिटटी में नमीं को थामे हुए था। तो आज किसी पौधे को पानी नहीं दिया। 


ऑफिस में लेखन, किंडल प्रकाशन और आत्मतृप्ति

    तैयार होकर ऑफिस के लिए निकल पड़ा। आज भी कुछ काम नहीं था। कोई काम नहीं। तो अपना निजी काम तो था ही। आज उस नकचढ़ी किंडल की नथेल कसनी ही थी मुझे। कल तो उसने मेरे इतने सारे प्रस्ताव रिजेक्ट किये थे, जितने को कभी किसी आशिक़ के न हुए होंगे। तो आज नए सिरे से पूरी ही नई फाइल बनायीं। फिर से सारा कंटेंट ब्लॉग से कॉपी किया, वर्ड फाइल में संकलित किया। हेडिंग्स की फॉर्मेट चेंज की। TOC माने अनुक्रमणिका का तरीका बदला। और कहीं भी ब्रेक लगाए बिना, एक कंटिन्यू पेज नंबर भी इन्क्लुड कर दिया। सारा कुछ तैयार हो जाने के बाद, फिर से एक बार यह फाइल किंडल को सौंपी। 


‘महाराष्ट्र में महादेव’ और ‘जुलाई का जादू’—दो नई ई-बुक्स

    इस बार उसने एक ही बार में प्रस्ताव मान लिया। बुक के बारे में थोड़ा बता देता हूँ। यह बुक मेरी उस महाराष्ट्र रोडट्रिप पर है। वह पांच दिनों की ट्रिप को एक इ-बुक में संकलित कर लिया। और अंत में उस ट्रिप में खर्च हुई लागत के बारे में भी बताया है। बजट से लेकर खर्चे तक। बुक का टाइटल रखा है, "महाराष्ट्र में महादेव" और किंडल पर मात्र 99 रूपये में ख़रीदा जा सकता है। सारी बुक इस ब्लॉग के "ई-बुक" सेक्शन में भी मिल जाएगी। 


    मजेदार बात क्या हुई, कि मैंने बुक का सारा सेटअप करके रख लिया था। और लंच टाइम हो गया। कुछ काम भी आ गया। तो सोचा अब बस उसका प्राइस सेट करके पब्लिश करना बाकी रह गया है। तो वह घंटे भर बाद कर लूंगा। और मैं फिर दूसरे कामों में उलझ गया, लंच करने के बाद। ऑफिस के कामों से फ्री हुआ तो, फिर विचार  आया,आज किंडल रानी मेहरबान है, तो एक और बुक बना ली जाए। 


    जुलाई महीने की सारी दिलायरी फिर से एक नई वर्ड फाइल में संकलित की। और बुक स्वरुप में तैयार करके किंडल पर पब्लिश करने जा ही रहा था, कि याद आया। अभी तक मैंने "महाराष्ट्र में महादेव" भी पब्लिश नहीं की है। तो एक साथ आज दो बुक्स पब्लिश कर दी। दिलायरी : जुलाई का जादू भी अब किंडल अमेज़न पर उपलब्ध है। हाँ ! बड़ा मजेदार लगता है, जब अपनी बुक पब्लिश होती है। भले ही उसे कोई पढ़े - न पढ़े.. ट्रेंडिंग में आए न आए.. कोई खरीदे न खरीदे..! अपने मन को तसल्ली जरूर मिलती है, कि हाँ ! मैं भी कुछ हूँ..! अभिमान.. अभिमान को तृप्ति जरूर मिलती है। 


    फ़िलहाल साढ़े पांच बज रहे है। अब धीरे धीरे कामों की कतार लगने वाली है। लो फिर कतार तो लग चुकी थी। अभी समय हो चूका सात बजकर तीन मिनिट। काम तो और भी है, लेकिन सोचा इसे पहले पूरा कर लिया जाए। वैसे यहीं, यह लिखते हुए मेल मिला कि वह "महाराष्ट्र में महादेव" पुस्तक पब्लिश होकर लाइव हो चुकी है। तो उसे ही अभी अपने ईबुक वाले सेक्शन में ऐड करने जुट गया। 


जीवन की कतारें, समय का दबाव और मन की लड़ाइयाँ

    कईं बार एक साथ बहुत सारी घटनाएं हो रही होती है। और आपको उन प्रत्येक घटनों का प्रतिघात देना होता है। एक भी पल अगर छूट जाए तो वह बहुत भारी पड़ता है। हमें हमेशा से लड़ते रहने की ट्रेनिंग मिलती ही आयी है। जब मनुष्य गुफाओं में था तब से। आज पर्यन्त हम प्रत्येक पल में लड़ते है। कभी अपने आप से, कभी किसी ओर से, तो कभी स्वयं समय से। समय को सरकने नहीं देना चाहते है। जैसे यह लिखते हुए समय सरता जा रहा है। और मेरे मन में कितने और कामों की सूची का पुनःमूल्यांकन भी चलता जा रहा है। 


    लेकिन यह भी वास्तविकता है, कि हम कितनी ही जोरों से मुट्ठी को भींच ले, समय की रेत तब भी छूट ही जाती है। अगर अपना पूरा जोर आज़मा कर के भी मुट्ठी को नहीं खोलते है, तो वह हाथ भी सुन्न हो जाता है कभी न कभी.. जैसे कोई हठयोगी अपना एक हाथ उठाए रखता है, और वह हाथ धीरे धीरे कुपोषित हो जाता है। हम अपने कामों की सूची में भी कुछ कामों को ऊँचे उठाए रखते है। वे भी समय के साथ कहीं सूख जाते है। 


विवाह, प्रेम और मानव सभ्यता पर चिंतन

    कल रात वॉलीबॉल खेल नहीं पाए थे, तो मैं यूट्यूब पर कुछ वीडिओज़ देखने लगा था। एक बहुत मजेदार विडिओ मिला। और अच्छा विचारणीय मुद्दा था। मानव जब पत्थरयुग में था, और कबीलों में रहता था, तब भी क्या यह विवाह का रिवाज़ हुआ करता था? जानकारियां तो इस बात पर मना करती है, कि उस समय पर एक कबीले में सारे बच्चे सबके, सारी स्त्रियां सबकी..! कोई प्रचलन ही नहीं था विवाह जैसी एक प्रथा का। विवाह का सबसे बड़ा प्रश्न ही यही है, कि प्रेम है, उससे विवाह नहीं, विवाह है उससे जबरजस्ती प्रेम करना पड़ता है। जबकि संसार तो यह कहता है, प्रेम किया नहीं जाता, अपने आप प्रकट होने वाली एक भावना है। 


बदलते रिश्ते, आधुनिक जीवन और नई परिभाषाएँ

    फिर एक यह ख्याल भी आया, कि जब से मानव ने खेती शुरू की होगी, तब से कितना कुछ बदल गया होगा.. एक जगह स्थायी हो गया वह। पहले कोई जिम्मेदारी नहीं थी उस पर, सिवा भूख संतोषने के। लेकिन जब किसानी करके स्थायी हुआ होगा, तो फिर उसमे स्वामित्व का भाव आया होगा। मेरा खेत, मेरी ज़मीन, मेरे पशु, मेरी संपत्ति। फिर इस संपत्ति के लिए उसे अपने अधिकार भाव वाला वारिस भी तो चाहिए होगा। कबीले में तो क्या पता कौनसा बच्चा किसका हो? इस लिए एक स्त्री का चयन हुआ होगा, जो उसे अपनी इस संपत्ति का वारिस दे। 


    पहले कबीलाई स्त्री को सारी छूट थी, लेकिन अब यह किसानी में स्त्री, चार दीवारों में बंधती गयी होगी। लेकिन इस विवाह से फायदा भी हुआ होगा.. एक सामाजिक बिमा मिला होगा उस पुरुष को। तभी तो आज तक यह प्रथा निभाई जा रही है, कि स्त्री और पुरुष आजीवन एक ही जोड़े में रहेंगे। विवाह से साम्राज्यों के बिच संधियां हुई है। कईं विवाह से युद्धों का अंत आया है। इस लिए भी विवाह का महत्व बढ़ा होगा। लेकिन हमेशा के लिए वह प्रेम वाला प्रश्न अनसुलझा रह गया। विवाह ने मर्यादाएं बाँधी, लेकिन उस अमर्यादित प्रेम की लाश के ऊपर। 


अंत में—मन की थकान, जीवन का संगीत

    जितने भी आशिक़ों की कहानियां मशहूर है, उनमे से एक का भी अंत सुखद नहीं है। हर प्रेमी पागल बनकर मृत्यु की ही भेंट चढ़ा है। या तो प्रेम करके पागल बनना स्वीकारना होगा, या विवाह में घुट-घुटकर हररोज मरना होगा। यही परम सत्य है, जिसे हर किसी को मानना है। वहां तक तलाक़ की प्रथा नहीं थी। धीरे धीरे उन्नति हुई, मशीने आयी। स्त्री पुरुषों का बौद्धिक स्तर बदला। स्त्रियों को अब चार दीवारों से निकलकर कमाने की अनुमति मिली। स्त्री ने समय खर्चकर धन तो कमाया, लेकिन उस पर घर की जिम्मेदारियों का भार तो तब भी रहा। भोजन पकाने से लेकर बच्चे पालने तक। यह दोहरे बोज से वह मुक्त होना चाहने लगी, और फिर जाकर यह तलाक पनपने लगे। और आज हाल यह है, कि कितनी ही स्त्रियां बालक पाल रही है, बगैर पति के। कितने ही पुरुष संतान बड़े कर रहे है, बगैर पत्नी के। 


    आज समाज में कितनी ही स्त्रियां अपने पीहर (मायके) में बैठी है। कितने ही पुरुष घर-भग्न होकर घूम रहे है। नए संबंधों में शांति खोजने..! बिना अपने आप में बदलाव किए, बिना अपने आप में सुधार किए, और अधिक एक्सपेक्टेशन के साथ..!


    शुभरात्रि। 

    १३/११/२०२५

|| अस्तु ||


प्रिय पाठक !

और भी दिल से लिखी दिलायरियाँ पढ़ने के लिए—अगला पन्ना खोलिए।
Dilayari पढ़ते रहिए, नए पत्र सीधे आपके Inbox में आएंगे:
मेरे लिखे भावनात्मक ई-बुक्स पढ़ना चाहें तो यहाँ देखिए:
और Instagram पर जुड़िए उन पलों से जो पोस्ट में नहीं आते:

आपसे साझा करने को बहुत कुछ है…!!!

और भी पढ़ें


#DilawariDiary #DailyDiary #HindiBlog #LifeThoughts #KindleAuthor #Mahadev #DayInLife #PersonalWriting #IndianBloggers


Post a Comment

0Comments
Post a Comment (0)