जन्मदिन की आत्मदर्शी दिलायरी : परम्पराओं, भावनाओं और डिजिटल उलझनों के बीच
बचपन के जन्मदिन और सरस्वती शाला की संस्कृति
तुम तो कहोगी नहीं प्रियंवदा, तो तुम्हारी और से मैं ही अपने आप को कह देता हूँ, "जन्मदिन की अनंत शुभकामनाएं..!" मुझे याद नहीं आ रहा है, कि मैंने अपना जन्मदिन मनाया कब है? शालाकाल में तो हम पर कड़ा प्रतिबंध था, पाश्चात्य रीती से जन्मदिन मनाने पर। कोई केक कटिंग नहीं, कोई फ़ालतू हो-हल्ला नहीं। शायद यही प्रभाव आज पर्यन्त मुझ पर बना हुआ है। आर.एस.एस. संचालित श्री सरस्वती विद्यामंदिर की यह बात तो माननी पड़ेगी। संस्कार सिंचन तो करते ही है यह लोग। अध्यायको को सर मेडम नहीं कहना होता, गुरूजी तथा दीदी। सातवीं कक्षा तक तो हमे खाखी चड्डी ही पहननी होती थी, छिले हुए घुटने के बावजूद। यह तो अच्छा है, आठवीं से फुल पेण्ट की अनुमति हो गयी। वर्षो से श्वेत बेदाग़ हाफ बाजू शर्ट, और निचे खाखी घुटने तक की चड्डी। और शर्ट की जेब पर स्कूल का 'बिल्ला'..!
शाला में नियम था, एक कक्षा के उन तमाम बालकों का - जिनका जन्मदिन जिस माह में आता है - उस माह में एक दिन निश्चित कर, प्रार्थना के समय सबका एक साथ ही जन्मदिन मना लिया जाता। तारीख के अनुसार नहीं, माह के अनुसार। शाला के उन तमाम बालक-बालिका जिनका जन्मदिन जुलाई महीने में आता हो, उन सभी बच्चो को प्रार्थना के समय पर अलग कर लिया जाता। घर से लाए हुए आरती थाल में, जितनी आयु हुई है, उतने दिप प्रकटाकर, देवी सरस्वती की आरती उतारी जाती। तो किसी की थाली ६-७ दीपक होते, तो किसी की थाली में पंद्रह। उस दिन शाला का गणवेश न पहनने की छूट मिलती। कहने में भी अजीब लगता, कि जन्मदिन को तो अभी बीस दिन बाकी है, लेकिन मना आज रहे है।
शाला का वह नियम मेरे माताजी को खूब पसंद आया। जितनी आयु, उतने दिप प्राकट्य। उन्होंने हुकुम से लगभग थाली भरकर दिप प्रकटवाए थे। खेर, आज बारी मेरी थी। प्रतिवर्ष माताजी एक थाल तैयार करते है। और कईं सारी बाती से प्रकटती अग्नि.. सुबह पांच बजे से गुड़िया का शुभकामना सन्देश मिल गया था। आज छह बजे जाग कर भी, ग्राउंड नहीं गया। नहाधोकर तैयार होकर, माताजी के पैर छुए, वे आज भी एक हरी पत्ती जरूर देतीं है। हुकुम के चरणस्पर्श करने पर उनके द्वारा कोई भी शाब्दिक शुभकामना आज तक नहीं मिली है। उन्हें भी रियेक्ट करना नहीं आता मेरी ही तरह। पिता पुत्र में एक अदृश्य दीवार होती ही होती है। मतलब वैमनस्य की दीवार नहीं, भावनाओं की अभिव्यक्ति को रोकती एक दीवार।
सावन सोमवार का व्रत और शिव पूजन की स्मृतियाँ
ऊपर से आज सावन का पहला सोमवार। हमारा अमासांत पंचांग होता है। जहाँ उत्तर भारत पूर्णिमा से नया महीना शुरू करता है, वहां हम अमावस्या के बाद। इस कारण उत्तर भारत पंद्रह दिन आगे चलता है। तो हमारा आज सावन का पहला सोमवार है। सवेरे सब से पहले शिव मंदिर पहुंचा। जानता था, कि देर से गया तो शिवभक्तों का ताता लग जाएगा। खाली मंदिर में बड़ी शांतिपूर्वक जल चढ़ाया। और घर लौट आया। घर आते ही माताजी को मंदिर जाना था, तो उन्हें भी ले गया। एक ही दिन में दो-बार शिवलिंग पर जलाभिषेक का सौभाग्य मिला। हालाँकि यह तो बार बार होता है मेरे साथ। हमारे यहाँ शिव के गर्भगृह में स्त्रियां प्रवेश नहीं करती। इस कारण दो बार मैंने शिव पर जलाभिषेक किया। गुजरात में स्त्रियां क्यों शिव के गर्भगृह में नहीं प्रवेशती यह कारण तो मैं नहीं जानता, लेकिन इस मनाही के कारण एक बार मंदिर में झगड़ा जरूर से हो जाता मेरा।
हुआ ऐसा था कि सावन ही चल रहा था उस दिन। मेरे शहर में अधिकांश आबादी अन्य राज्यों से आए हुए लोगो की है। तो जाहिर है, मंदिरों में भी वे आएँगे। तो एक तरफ मैं गर्भगृह में शिव पर जलाभिषेक कर रहा था। दूसरी तरफ एक स्त्री भगवन शिव, माता पार्वती, त्रिशूल, डमरुँ, इन सब पर कुमकुम तिलक, अबीर-गुलाल से पूजा कर रही थी। तभी एक आदमी आया.. जोर जोर से बोलने लगा, 'मंदिर के गर्भगृह में स्त्री दाखिल नहीं होती, यह कोई फलाना-फलाना राज्य नहीं है, यहाँ यह नहीं चलता.. बाहर निकालो इन्हे.. आगे से ध्यान रखना, वरना मत आना।' वगैरह वगैरह.. मैंने ध्यान नहीं दिया। तो उसने फिर से शुरू किया, तो मुझे लगा कि यह सब बातें मुझे सुना रहा है, वह समझ रहा था कि वह स्त्री मेरे साथ है। उसे लगा थोड़ी लोकलगीरी जाड़ लेता हूँ।
मैंने शांति से पूजन कर, गर्भगृह से बाहर आकर उससे इतना ही कहा, "हुँ छे एला तारे?" इतने में वो समझ गया। बोला, "बापु ! आपको तो पता है अपने यहाँ नहीं चलता।", तो मैंने कहा, "मुझे क्या मतलब? मुझे क्यों सुना रहा था तू?" उतने में पुजारी आ गया, उस स्त्री को रिवाज समझाया, कि हमारे यहाँ शिव के गर्भगृह में महिलाऐं प्रवेश नहीं करती। और वह स्त्री भी समझ गयी, और आगे से ध्यान रखेगी कहकर चली गयी। फिर मैंने उस फटकिये को शांति पूर्वक समझाया। सब जगह अलग अलग पूजनविधि के रिवाज होते है, अलग परम्पराएं होती है। शांतिपूर्वक बात रखो, वरना वो वाला लहजा हमने भी बड़ी मुश्किल से काबू किया है। मंदिर में कोई कैसे क्रोध कर लेता है? शान्ति पाने जाते है न हम?
खेर, जितने बैंक में अकाउंट है, उन सभी बेंको से भी शुभकामना सन्देश मिला। कुछ बड़े बिज़नेस चेन्स की ओर से भी जन्मदिन पर कुछ हेवी डिस्काउन्ट्स की स्कीम्स भरे संदेश प्राप्त हुए। जहाँ जहाँ मुझे जो कुछ देना था, वह दिया भी। लेकिन साथ ही एक अजीब बात भी हुई। एक कॉल आयी, सामने से मेडम ने पहले बर्थडे विश की, और फिर टेप-रेकॉर्डर की तरह चालु हो गयी। उनकी कोई संस्था है, जो गरीब बच्चों के लिए भोजनादि प्रबंध करती है। मैं ऐसे कॉल्स पर खूब सचेत हो जाता हूँ। वह डोनेशन मांगने पर लगी रही। लेकिन मैंने नहीं दिया। हाँ ! थोड़ा कटु लग सकता है। उसे भी लगा होगा, तभी उसने धड़ल्ले से फोन काट भी दिया। प्रियंवदा ! बहुत लोग गुपचुप तरिके से ऐसा कुछ न कुछ करतें ही है, बच्चो के लिए, वृद्धाश्रमों के लिए, पर्यावरण के लिए भी। लेकिन वे जाहिर नहीं करते। मुझे जहाँ जो कुछ देना होता है, वहां दे देता हूँ, किसी निश्चित दिन की आड़ में नहीं रहता।
वैसे आज सावन के सोमवार का व्रत भी रखा है। सवेरे नाश्ते में एक कप चाय और आलू की चिप्स.. जिससे न पेट भरता है, न ही मन। देखते है, टिक पाउँगा या नहीं। अभी तो पौने एक ही बज रहे है दोपहर के। सूर्यदेव तो बादलों के पीछे आराम फर्मा रहे है। और इसी कारण से आलस और उबासियाँ खूब आ रही है। हाँ ! तो अभी समय हो चूका साढ़े छह। तमराज किल्विष वाला अँधेरा अभी भी कायम है। चलो फिर, लगे हाथो यह भी बता देता हूँ की इस दौरान क्या हुआ? जहरीला गजा अपनी भड़ास निकाल रहा था, यूटूबरियों को उसने नया नाम दिया, 'गुटूबरिये'.. क्योंकि ज्यादातर लोग एक ट्रेंड फॉलो करते पाए जाते है, कोई एक जन कुछ नया करेगा, तो बाकी सारे भी अनुकरण करते है। जैसे आदिवासी हेर आयल के समय हुआ था। सारे के सारे प्रमोशन में लगे हुए थे।
सोशल मीडिया और शुभकामनाओं की नकल संस्कृति
खेर, गिनती के भाई-बंधुओं के शुभकामना सन्देश मिले। और एक प्राचीनकाल के मित्र का फोन भी आया। उन्होंने नूतन रिवाज की स्किम समजायी। कि अब दूरियां मिट चुकी है, हम लोग होटल में भोजन करके QR भेज देंगे, आप पेमेंट कर देना, पार्टी हमे मिल जाएगी। और यदि ऐसा न करना हो तो, सीधे हमें ही ट्रांसफर कर दिए जाए। डिजिटल पार्टी हमें प्राप्त हुई मान लेंगे। बताओ.. क्या क्या दिमाग लड़ाया जा रहा है। पुराने मित्र है, ऐसा अटपटा ही मजाक उनकी ओर से आना तय था। वैसे ज़िंदगी का एक साल घटा है, लेकिन तजुर्बा एक साल का बढ़ा है। यह प्लस-माइनस का खेल भी अजीब है। कुछ घट रहा है, कुछ बढ़ रहा है.. कुछ मिल रहा है, तो कुछ खो रहा है.. लेकिन जो ऊंचाई हुकुम ने प्राप्त कर ली थी, इसी उम्र में.. मैं वहां तक नहीं पहुँच पाया हूँ।
आजतक लगभग एक बार ही मैंने केक कटिंग की है, अपने जन्मदिन पर। एक बार बोतल भी खोली थी। बाकी सारे ही जन्मदिन आए और गए। जैसे आम दिन हो.. हाँ ! वो फेसबुक वाला दौर अलग था.. जब शाम हो जाती थी, थैंक यू कहते कहते..! लेकिन मैंने हर जगह से अपनी जन्मतारीख हाईड कर दी है। फिर भी फेसबुक पर वो मेमोरीज हाईलाइट हो जाती है, और वे पुराने मित्र - जिनके पास फोन नंबर है - उनकी और से शुभकामना अचूक आ जाती है। वे हाईलाइट हटाने का ऑप्शन कहीं मिलता नहीं। वरना किसी को कानो कान खबर न हो इस दिन की। एकाद बार तो मैं ही भूल चूका हूँ कि आज मेरा जन्मदिन है।
क्या जन्मदिन मनाना ज़रूरी है? एक आत्ममंथन
प्रियंवदा ! वास्तव में जन्मदिन मनाना चाहिए, या नहीं, यह एक विस्तृत चर्चा का विषय है। लेकिन मुझे इतना जरूर लगता है, कि वो बकैती वाला प्रचार तो बिलकुल नहीं करना चाहिए। आजकल वो फैशन है न, तुमने मेरे जन्मदिन पर स्टेटस लगाया है, तो मुझे उसका स्क्रीनशॉट लेकर अपने स्टेटस पर चढ़ाकर धन्यवाद कहना है, वरना तुम्हे बुरा लगेगा। या फिर तुमने मेरे जन्मदिन पर स्टेटस नहीं रखा था, केवल टेक्स्ट मेसेज किया था, तो मैं भी तुम्हारे जन्मदिन पर टेक्स्ट ही करूँगा। फिर लगता है, कौन है यह लोग.. जो पूरा पूरा दिन बस धन्यवाद.. धन्यवाद.. करने में व्यस्त और मजे में है। यह कैसा आदानप्रदान है? या नकल चल रही है? अरे इससे याद आया। आज मुझे बेफालतू में सबके स्टेटस देखने पड़ेंगे.. बस धन्यवाद कहने के लिए। क्योंकि धन्यवाद नहीं कहा, तो मैं घमंडी हूँ, यह सिद्ध हो जाएगा।
ठीक है फिर प्रियंवदा ! तुम्हारा भी आभार.. जो तुमने मुझे इन झमेलों में कभी नहीं फंसाया।
शुभरात्रि।
२८/०७/२०२५
|| अस्तु ||
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– दिलावरसिंह