क्या खो गया है हमारा..!
जीवन जैसे खाने-पिने से भरा है प्रियम्वदा ! वैसे ही कुछ कुछ जीवन खोना-पाना से भरा हुआ है। कुछ पाते है, कुछ खोते है। कुछ समय खोते है, कुछ ऊर्जा पाते है। कुछ भरोसे खोकर अनुभव पाते है। कुछ अनुभव खोकर मूल्य पाते है। बस यही खानापीना और खोना-पाना ही जीवन है। इसी में मौज है, इसी में आनंद है.. इसी में समय कब सरक जाता है, पता नहीं चलता। वैसे पता तो चलता है, जब कुछ खो जाता है। बहुत समय के अंतराल के बाद अनुभव होता है, कुछ खोया हुआ है, उसकी कीमत...! और कुछ ऐसा भी होता है, जिन्हे हम खोना नहीं चाहते, उसकी कीमत में हम अपने आप को भी हविष्य बना लेते है।
बचपन की सादगी
प्रियम्वदा ! कितना अच्छा था बचपन.. कुछ भी कर सकते थे, सारे गुनाह मुआफ होते थे.. कोई फ़िक्र नहीं थी, कल की। लेकिन आज तो अगले पल की भी चिंता करनी पड़ रही है। आज फ़िक्र रहती है, चार लोगो के बिच ऐसे ही बैठना है, ऐसा ही अपना व्यक्तित्व दिखना चाहिए। बचपन में ऐसा कुछ कहाँ था? हाँ, प्रतिस्पर्धा तब भी थी, लेकिन ऐसी मूल्याङ्कन भरी न थी। जिसे मासूमियत कहते है न, वही खो गयी है हमारे बड़े होने के बाद..!
रिश्तों की गहराई
और खो गयी है रिश्तों में गहराई.. प्रियम्वदा ! प्रेम शब्द से मेरी चीड़ तुम्हसे कहाँ अनभिज्ञ है? हाँ ! मैं मानता हूँ, कि मैं अँधा हूँ, तो मुझे अँधेरा ही दिखेगा। अगर प्रेम सूर्य है, तो जरूर से मध्यान्ह का होगा। इसी कारण से मैं उसे देख नहीं पाता। कौन की सगाई शुद्ध है? निश्छलता शायद कलियुग से पूर्व ही जा चुकी। अपवाद छोड़कर सब कोई ही आप-मतलब का आदी है। स्वार्थ से परमप्रिय किसी को कुछ भी नहीं है। मैं और मेरा.. प्रेम में भी यही तो है। मैं उसके लिए यह कर सकता हूँ। मत कर लाला..!
भरोसा और विश्वास
दो शब्द है, भरोसा और विश्वास। दुनिया में अगर कुछ भी कमजोर में कमजोर है, तो वह यही विश्वास या भरोसा है। विश्वास तो स्वयं विश्वासघाती है। किसी पर से अगर उठ गया, तो वह कभी वापिस नहीं आता। और लोग बातें करते है, मुझे तुम पर अँधा भरोसा है। अँधा भरोसा कुछ नहीं होता, अँधा विश्वास भी कुछ नहीं होता। जो होता है, वह अपना उस कार्य से पीछा छुड़ाना होता है। अपना भार किसी और को सौंपना ही विश्वास कहलाता है। मैं तुम पर विश्वास करता हूँ, तुम कभी पीछे नहीं हटोगे। हकीकत में तुम्हे उस काम से दूर जाना है, इस लिए किसी और पर यह भार डाल रहे हो। फिर भी आम दृष्ट्या देखो तो लगता है, विश्वास खो गया है.. भूल तुम्हारी है। विश्वास पर ही विश्वास नहीं रखना चाहिए। क्योंकि यह सबसे पहले टूटता है, और शंका की सुई से भी मर जाता है।
समय की फुर्सत
समय बड़ा बलवान.. समय रहते विश्वास सम्भल जाए, समय रहते रणमैदान में हौंसला लौट आए, या समय रहते कुछ आशंका के बादल छंट जाए.. यह सब ही बहुत धीरी प्रक्रिया है, बहुत समय खाती है। लेकिन हम चाहते है, सब कुछ ही तुरंत होना चाहिए। इंस्टेंट.. (इस इंस्टेंट समय पर तो मैं पहले लिख चूका हूँ, यहाँ पढ़िए) पहले समय जैसे धीरे था, लेकिन मशीनों ने सब कुछ ही बड़ा त्वरित कर दिया है.. सब कुछ इंस्टेंट। यहाँ क्या खोया है, पता है प्रियम्वदा? फुर्सत.. फुर्सत खो चुकी है। लवलेटर के बदले इंस्टेंट रिप्लाई आते हो, फिर वो जो एक मीठी इन्तेजारी थी.. वो खो चुकी है..! सब कुछ जब इंस्टेंट होने लगे, फिर वो धीमी आंच पर पका हुआ स्वाद कहाँ से आएगा? इंस्टेंट नूडल और चूल्हे पर सिकी हुई रोटी में भूख से ज्यादा भूख की फुर्सत का फर्क है।
परंपराएं और संस्कार
जब कभी फुर्सत में बैठकर सोचते है, तो बहुत कुछ नजर आने लगता है। वो छींक आने पर राम का लेते थे, वहां अब 'सॉरी' ही छींक के साथ निकलता है। घर पर तुलसी के पौधे का स्थान मनी प्लांट ले रहा हो, वहां अब परंपरा भी पता भूल चुकी है। भाषाए, संस्कार, परंपरा.. यह सब धीरे धीरे अपना अस्तित्व खो रही है। हमारी ही मातृभाषा में हम कितने ही अन्यभाषी शब्द, आम बोलचाल में बोल जाते है, पता ही नहीं चलता। त्यौहारों की सादगी, बुजुर्गों की चौपाल.. रीती-रिवाज, यह सब पुराने जमाने की बातें है। आज इनका क्या उपयोग? इन्हे तो खो ही देना चाहिए। भले ही जानबूझकर खोना पड़े।
प्रकृति से जुड़ाव
अभी कुछ देर पहले ही आसमान पुनः एक बार घिर चूका था। घने बादलों ने फिर अपनी दिशा बदल ली। लगा था जैसे टूट पड़ेंगे। सूखी मिटटी पर कहीं कहीं एक एक बूँद ने अपनी छाप छोड़ी बस। जब यह बादल बरसते है, तो अब भीगने का मन नहीं होता। क्योंकि चिंता होती है, मोबाइल भीग जाएगा तो? संध्या होती है, खिलती है। लेकिन उसे बस शांत मन से देखने का खाली समय कहाँ है? प्रकृति से कट रहे है, लेकिन प्रकृति को भी हम बोन्साई बना लेने चाहते है। टेबल पर एक इंडोर प्लांट लगा है। तो प्रकृति हमारे पास है। मोबाइल में बहते झरने की रील देख ली, तो अहसास हो जाता है, कि बस यही सुकून तो चाहिए। लेकिन वास्तव में किसी झरने के निचे झूमना हो तो एडवांस लीव्स लेनी पड़ती है। कईं सारे काम आगे पीछे करके शिड्यूल बनाना पड़ता है। प्रकृति से जुड़ाव हम खो चुके है।
खुद से जुड़ाव
उससे भी अधिक कहूं प्रियम्वदा ! कड़वा लगे, लेकिन हम खुद से मिलना भी खो चुके है। कईं बार ऐसा होता है, जब करने के लिए कुछ भी नहीं होता है। तब हम विचारमग्न होने के बजाए मोबाइल लेकर बैठ जाते है। खाना खाते समय भी, या तो मोबाइल या तो टीवी स्क्रीन.. टॉयलेट में भी..! आखरी बार बगैर स्क्रीन के अकेले कब बैठे हो, यह पूछा जाए, तो इस प्रश्न का उत्तर भी काफी समय खाएगा। सोशल मीडिया का शोरगुल हमारा खुद से जुड़ाव का कालखंड खा चूका है।
आत्म-संतोष
मुझे, मुझमे सबसे ज्यादा खोया हुआ कुछ लगता है, तो वह है संतोष.. आत्मसंतोष। संतोष होता यदि मुझ में, तो मैं कुछ और ही होता। आय के आधार पर, या खर्च के आधार पर संतोष का नाप नहीं निकलता कभी भी। या इस पर भी, कि मेरी ज्यादा बड़ी गाडी लेने की केपेसिटी है, फिर भी मैं छोटी कार में चलता हूँ। संतोष में ख़ुशी होती है। स्वार्थ या लोभ नहीं। कईं बार हम लोभ को भी संतोष मान लेते है। या कईं बार पैसे कम पड़ने पर कुछ काम हम अगले महीने की जेब में डाल देते है, वह भी संतोष तो न हुआ। संतोष तो दोस्तों के साथ एक चाय की प्याली में भी बसता था, अब ccd की कॉफ़ी में भी कहाँ है? बड़ी बड़ी उपलब्धियां हांसिल कर लेने पर भी, एक खालीपन अनुभव हो आता हो, मतलब संतोष का वहां बसेरा नहीं।


