त्यौहार या खर्चों का महीना?
प्रियम्वदा !
यह त्यौहार है या खर्चों का महीना..? आज भी काफी जेब ढीली हो गयी..! धनतेरस थी, लक्ष्मी जी का दिन। पिछले कुछ सालो से एक नियम ही बन गया है। एक सिल्वर कॉइन खरीदने का। पहले हर साल हुकुम ले आते थे, अब मैं। जब पहली बार मैं लेने गया था, तब पांच ग्राम का सिक्का पांचसौ रुपए का था। आज १००० रूपये का था। भाव चढ़ते ही जा रहे है.. कहाँ जाकर रुकेंगे? क्या लगता है?
मुझे तो यह भी समझ नहीं आ रहा है, कि यह कैसे त्यौहार हैं? त्यौहारों के नाम पर पिछले तीन-चार दिनों से हम बढ़चढ़ कर काम किए जा रहे है। हालात तो यह है कि कल भी हमें काम करना ही करना है। यह दिवाली आती ही क्यों है भला..? फायदा कुछ नहीं, घाटा ज्यादा। घाटा इस लिए, कि खर्चा बहुत होता है, इस त्यौहार के नाम पर। ऊपर से मैं ठहरा कंजूस.. जेब में हाथ डालते ही कांटा चुभता है। फ़िलहाल चार बज रहे है, मार्किट से लौटा हूँ.. और अभी भी कुछ खरीदारी बाकी ही है।
काम की थकान और त्योहार की दौड़
कल रात, वॉलीबॉल खेलते खेलते सवा बारह बज गए थे। मैं तो वॉलीबॉल कोर्ट में राइट नेट का कार्नर पकड़े खड़ा रहता हूँ, वहां बॉल आने के चांस न बराबर होते है। तो ज्यादा उछलकूद नहीं करनी पड़ती। लेकिन फिर भी पसीने से तो भीग ही जाता है शरीर। सवेरे उठकर पहले गया दिलबाग में, सारे पौधों को पानी दिया, और फिर ऑफिस के लिए चल दिया। काम तो आज भी काफी है। इतनी गाड़ियां खड़ी है, कि कल भी काम खिंचवाना पड़ेगा। स्टाफ ढीला है थोड़ा। हर बार दीपावली पर ऑफिस पर इतना ही काम रहता है। लेकिन इस बार वो स्फूर्ति नहीं दिख रही है।
दोपहर को मार्किट में जो भी थोड़ी बहुत खरीदी करनी थी, वह कर ली, और फिर चल पड़े छोले-भटूरे आरोगने। यूँ तो मैं पैसे पैसे करता रहता हूँ, लेकिन खाने के मामले में भले ज्यादा खर्च हो, लेकिन वहां समझौता नहीं चलता मुझे। लो, यह लिखते लिखते ही ITUS कर दिया मैंने। वही, फिर हेरा फेरी वाला ITUS फ़िलहाल कम्पनी में चल रही है कुछ समस्या.. बड़ी समस्या है, पेमेंट की। कही से आ नहीं रही है, और जिनकी देनी है, वह टाली नहीं जा सकती। तो अभी एक स्टाफ को सेलरी देनी थी, तो जिससे पेमेंट लेना था, उसपर इनका नम्बर दे दिया, कि इनसे ले लो..! फ़िलहाल अपने सर से तो बला टली।
पैसे का मैनेजमेंट और मिसमैनेजमेंट
प्रियम्वदा ! ना ना करते भी अब जेब में ट्रिप के खर्चे से भी कम की बचत बची है। और गंभीर समस्या यह है, कि अपने यहाँ तो बोनस में कुछ मिलता भी नहीं है। करें तो करें क्या..? यह पैसों का मैनेजमेंट करना बड़ा खतरनाख काम है। मैंने तीन महीने पूर्व से ही सारा मैनेजमेंट बना रखा था। लेकिन मैनेजमेंट बनाना, और उसका पालन करना, दोनों अलग बातें है। मेरे मैनेजमेंट के हिसाब से तो मेरे पास बिस हजार बचने चाहिए थे। लेकिन बचे है पांच हजार मात्र। यह वो वाला हाल हो गया है, कि मेरा तो इन्वेस्टमेंट ही चौंतीस लाख का था, फिर घाटा पेंतीस लाख का कैसे हो गया..? सच में, इस बार कुछ समझ ही नहीं आया... कि मैंने इतना सारा मिसमैनेजमेंट कैसे कर दिया?
शेयर, सेलरी और संतोष का सवाल
एक चीज यह अच्छी हुई, कि मैंने अपना शेयर वाला इन्वेस्टमेंट उठा लिया। टाटा स्टील के घाटे में ही मैंने शेयर बेचकर मुद्दल निकाल ली। पिछले डेढ़ वर्ष से वह घाटे में ही चल रहा था। ग्यारह हजार बचे थे उसमे, वे निकाल लिए। तो अब कम से कम यह टेंशन नहीं है, कि ट्रिप में तो तंगी नहीं पड़ेगी। मैं तो उल्टा पुष्पा को मैनेज कैसे करना है, यह समझा रहा था। लेकिन यहाँ तो मेरे ही १९-२० के बिच में काफी बड़ा फर्क आ गया। तो ऐसा है, कईं बार हम रह जाते है ओवर कॉन्फिडेंस में। और सारा ही गणित अपने हिसाब से अलग राह पर चल पड़ता है। अपनी सोच से काफी अलग।
आज का दिन तो ढल गया, समस्या यह है, कि कल भी पूरा ही दिन इसी तरह खींचना पड़ेगा। यह तो चार-पांच दिन की जो छुट्टियां मिल रही है, वह हम यह ओवर स्ट्रेस लेकर कम्पनी को पूरा कर दे रहे है टारगेट। हकीकत में तो हमें मिलती छुट्टियां बस नाम मात्र की है। क्योंकि तुम्हे तो पता है, मैं तो छुट्टी पर होते हुए भी मानसिक तरीके से ऑफिस में ही होता हूँ। चलो, आज की ड्यूटी तो पूरी हुई.. लेकिन अब भी कल की भेजामारी अलग बाकी है..! कल से कम से कम मेरी शिड्यूल्ड पोस्ट्स भी पब्लिश होनी चालू हो जाएगी। शायद कल से दिलायरियाँ न भी आए..!
क्योंकि कल से कंप्यूटर पर बैठना न होगा। मोबाइल में अब दिलायरी लिखने में मजा नहीं आता। यह कीबोर्ड पर उंगलिया चलाना एक फीलिंग है। एक तरफ मन में जो भी आ रहा हो, उस अनुसार यहाँ कीबोर्ड की चाबियाँ (KEYS) दबती जाए। और फ़ोन में क्या है, कि पैराग्राफ की लम्बाई का अंदाज़ा नहीं रहता मुझे। वहां बहुत लंबे लंबे पैराग्राफ्स हो जाते थे। जैसे आज की दिलायरी में हकीकत में कुछ भी नहीं है, सिवा मेरी शिकायतों के, वह भी अपने आप से शिकायतें है। कभी कभी खुद की ही शिकायतें खुद से ही कर लेनी चाहिए। हालाँकि मैं तो सदैव ही करता हूँ। और यह आत्मलोचना मुझे अब झकझोरती नहीं।
माँगना नहीं आता — यही सुकून, यही मूर्खता
आज तो शायद हर कोई छुट्टियां ले चूका है। गजा भी मस्त डिब्बे लिए बैठा है। उसने तो छोड़ दी है, लेकिन अब कम्पनी देता है, और न चकना खाते हुए शराब के नुकसान सुनाते रहता है। इसका भी अपना मजा है। नशे में सुने हुए भाषण चुभते बहुत है। और अब तो हमारा गजा भी बाबा गजानंद.. ऐसे ऐसे विषबाण छोड़ता है, कि कोई यह उड़ते तीर न लेना चाहे तब भी चुभ जाते है। कल या परसो ही मेरे साथ उलझ पड़ा था, अरे कल कहाँ, आज ही। उसके बॉस ने दिवाली पर दिलखोल खर्चा किया है। वैसे भी गुजराती शेठ होते है, वे दिवाली को सबसे बड़ी मानते है। पूरी पगार बोनस देते है, ऊपर से गिफ्ट्स अलग। गजे के वहां महफ़िल लगी है। उसने फोटो भेजी थी, और फोन किया, बोला, "क्या तुम लोग इक्कीसो में राज़ी हो जाते हो.. बोनस इसे बोलते है। फुल मौज-मजे।"
मेरे पास इस बात का एक ही प्रत्युत्तर होता है, "हम लोग मांगते ही नहीं है भाई... हमें माँगना नहीं आता है। जो राजीखुशी अगला देता है, हम चुपचाप ले लेते है। संतोषी जिव है बे हम।" (और कोई चारा भी तो नहीं है। लेकिन यह बात मैं उसे कहूं किस मुँह से?) सच तो यही है, कि मुझे सच में माँगना नहीं आता। जिह्वा ही नहीं उठती किसी चीज का विरोध करने के लिए। मैंने आज तक सैलरी बढ़ाने के लिए नहीं बोला है। वो अपने आप बढ़ा देता है। मैं पैसों के मामले में सदैव से यही सोचते आया हूँ, कि मेरी जरूरतें जितनी है, उतनी पूरी हो जाती है। फिर फ़ालतू चिंताएं क्यों लेनी। शायद यही कारण है, कि मैं मेरे मित्रों की तरह जम्प नहीं लगा पा रहा हूँ। अब यह संतोष है, या मूर्खता, मैं नहीं जानता।
शुभरात्रि। और काली चौदस या छोटी दीपावली की शुभकामनाएं..!
१८/१०/२०२५
|| अस्तु ||
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